Our detailed NCERT Solutions for Class 12 Hindi नए और अप्रत्याशित विषयों पर रचनात्मक लेखन Questions and Answers help students in exams.
CBSE Class 12 Hindi नए और अप्रत्याशित विषयों पर रचनात्मक लेखन
प्रश्न 1.
रटंत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर
किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा तैयार की गई पठनीय सामग्री को ज्यों का त्यों याद करना और उसे दूसरे के सामने प्रस्तुत करना रटंत कहलाता
प्रश्न 2.
रटंत अथवा कुटेव को बुरी तल क्यों कहा जाता है ?
उत्तर
रटंत को बुरी लत इसलिए कहा जाता है क्योंकि जिस विद्यार्थी अथवा व्यक्ति को यह लत लग जाती है, उसके भावों की मौलिकता खत्म हो जाती है। इसके साथ-साथ उसकी चिंतन शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है और वह किसी विषय को अपने तरीके से सोचने की क्षमता खो देता है। वह सदैव दूसरों के लिखे पर आश्रित हो जाता है। उसे अपनी बु नहीं रहता।
प्रश्न 3.
अभिव्यक्ति के अधिकार में निबंधों के नए विषय किस प्रकार सहायक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर
अभिव्यक्ति का अधिकार मनुष्य का एक मौलिक अधिकार है जिसके माध्यम से मनुष्य अपने विचारों की अभिव्यक्ति स्वतंत्र रूप से कर सकता है। निबंध विचारों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इसमें निबंधकार अपने विचारों को सहज रूप से (अभिव्यक्ति) अभिव्यक्त करता है। विचार अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया निबंधों के पुराने विषयों के साथ पूर्णतः घटित नहीं होती क्योंकि पुराने विषयों पर पहले से ही तैयार शुद्ध सामग्री अधिक मात्रा में उपलब्ध रहती है।
इससे हमारी अभिव्यक्ति की क्षमता विकसित नहीं होती। इसलिए हमें निबंधों के नए विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त करने चाहिए। नए विषयों पर विचार अभिव्यक्त करने से . लेखक का मानसिक और आत्मिक विकास होता है। इससे लेखक की चिंतन शक्ति का विकास होता है। इससे लेखक को बौद्धिक विकास तथा अनेक विषयों की जानकारी होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभिव्यक्ति के अधिकार में निबंधों के विषय बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।
प्रश्न 4.
उत्तर
नए अथवा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन से क्या तात्पर्य है ? किसी नए अथवा अप्रत्याशित विषय पर कम समय में अपने विचारों को संकलित कर उन्हें सुंदर ढंग से अभिव्यक्त करना ही अप्रत्याशित विषयों पर लेखन कहलाता है।
प्रश्न 5.
नए अथवा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन में कौन-कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
उत्तर
नए अथवा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए
1. जिस विषय पर लिखना है लेखक को उसकी संपूर्ण जानकारी होनी चाहिए।
2. विषय पर लिखने से पहले लेखक को अपने मस्तिष्क में उसकी एक उचित रूपरेखा बना लेनी चाहिए।
3. विषय से जुड़े तथ्यों से उचित तालमेल होना चाहिए।
4. विचार विषय से सुसम्बद्ध तथा संगत होने चाहिए।
5. अप्रत्याशित विषयों के लेखन में ‘मैं’ शैली का प्रयोग करना चाहिए।
6. अप्रत्याशित विषयों पर लिखते समय लेखक को विषय से हटकर अपनी विद्वता को प्रकट नहीं करना चाहिए।
प्रश्न 6.
नाए अथवा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन में क्या-क्या बाधाएँ आती हैं ?
उत्तर
नए अथवा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन में अनेक बाधाएँ आती हैं जो इस प्रकार है
1. सामान्य रूप से लेखक आत्मनिर्भर होकर अपने विचारों को लिखित रूप देने का अभ्यास नहीं करता।
2. लेखक में मौलिक प्रयास तथा अभ्यास करने की प्रवृत्ति का अभाव होता है।
3. लेखक के पास विषय से संबंधित सामग्री और तथ्यों का अभाव होता है।
4. अप्रत्याशित विषयों पर लेखन करते समय शब्दकोश की कमी हो जाती है।
5. लेखक की चिंतन शक्ति मंद पड़ जाती है।
6. लेखक के बौद्धिक विकास के अभाव में विचारों की कमी हो जाती है।
प्रश्न 7.
नए तथा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन को किस प्रकार सरल बनाया जा सकता है ?
उत्तर
नए तथा अप्रत्याशित विषयों पर लेखन को सरल बनाने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान करना चाहिए
1. किसी भी विषय पर लिखने से पूर्व अपने मन में उस विषय से संबंधित उठने वाले विचारों को कुछ देर रुककर एक रूपरेखा प्रदान करें। उसके पश्चात् ही शानदार ढंग से अपने विषय की शुरुआत करें।
2. विषय को आरंभ करने के साथ ही उस विषय को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाए, यह भी मस्तिष्क में पहले से होना आवश्यक है।
3. जिस विषय पर लिखा जा रहा है, उस विषय से जुड़े अन्य तथ्यों की जानकारी होना भी बहुत आवश्यक है। सुसंबद्धता किसी भी लेखन का बुनियादी तत्व होता है।
4. सुसंबद्धता के साथ-साथ विषय से जुड़ी बातों का सुसंगत होना भी जरूरी होता है। अत: किसी भी विषय पर लिखते हुए दो बातों का आपस में जुड़े होने के साथ-साथ उनमें तालमेल होना भी आवश्यक होता है।
5. नए तथा अप्रत्याशित विषयों के लेखन में आत्मपरक ‘मैं’ शैली का प्रयोग किया जा सकता है। यद्यपि निबंधों और अन्य आलेखों में ‘मैं’ शैली का प्रयोग लगभग वर्जित होता है किंतु नए विषय पर लेखन में ‘मैं’ शैली के प्रयोग से लेखक के विचारों और उसके व्यक्तित्व को झलक प्राप्त होती है।
प्रश्न 8.
‘अक्ल बड़ी या भैंस’ विषय पर एक लेख लिखिए।
उत्लर
दुनिया मानती है और जानती है कि महात्मा गाँधी जैसे दुबले-पतले महापुरुष ने स्वतंत्रता-संग्राम बिना अस्त्र-शस्त्रों से लड़ा था। उनका हथियार तो केवल सत्य और अहिंसा थे। जिस कार्य को शारीरिक बल न कर सका, उसे बुद्धि बल ने कर दिखाया। इसी कारण यह कहावत प्रसिद्ध है कि अक्ल बड़ी या भैंस ? केवल शारीरिक बल होने से कोई लाभ नहीं हुआ करता।
महाभारत के युद्ध में भीम और उसके पुत्र घटोत्कच ने अपनी शारीरिक शक्ति के बल पर बहुत-से कौरवों को मार गिराया किंतु उनकी शक्ति को भी दिशा-निर्देश देने वाली श्री कृष्ण की बुद्धि ही थी। नैपोलियन, लेनिन तथा मुसोलिनी जैसे महान् व्यक्तियों ने भी बुद्धि के बल पर ही सफलताएं अर्जित की थीं। राजनीति, समाज, धर्म, दर्शन, विज्ञान और साहित्य आज लगभग हर क्षेत्र में बुद्धि बल का ही महत्त्व है। पंचतंत्र की एक कहानी .. से भी इस कथन की पुष्टि हो जाती है कि शारीरिक बल से अधिक महत्त्व बुद्धि का होता है।
इस कहानी में एक छोटा-सा खरगोश शक्तिशाली शेर को एक कुएँ के पास ले जाकर उससे कएँ में छलांग लगवाकर उसे मार डालता है। अपनी बदधि के बल पर ही उस नन्हें से खरगोश ने खूखार शेर से केवल अपनी ही नहीं अपितु जंगल के अन्य प्राणियों की भी रक्षा की थी। अतः शारीरिक शक्ति की अपेक्षा हमारे जीवन में बुद्धि का अधिक महत्त्व है।
पाठ से संवाद
प्रश्न 1.
अधूरे वाक्यों को अपने शब्दों से पूरा करें —
– हम नया सोचने-लिखने का प्रयास नहीं करते क्योंकि ………….
– लिखित अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं होता क्योंकि…………..
– हमें विचार-प्रवाह को थोड़ा नियंत्रित रखना पड़ता है क्योंकि ………….
– लेखन के लिए पहले उसकी रूपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि ………….
– लेख में ‘मैं’ शैली का प्रयोग होता है क्योंकि ………….
उत्तर
– हम नया सोचने-लिखने का प्रयास नहीं करते क्योंकि हमें आत्म-निर्भर होकर लिखित रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करने का अभ्यास नहीं होता है।
– लिखित अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं होता क्योंकि हम कुछ नया सोचने-लिखने का प्रयास करने के स्थान पर किसी विषय पर पहले से उपलब्ध सामग्री पर निर्भर हो जाते हैं।
– हमें विचार-प्रवाह को थोड़ा नियंत्रित रखना पड़ता है क्योंकि विचारों को नियंत्रित करने से ही हम जिस विषय पर लिखने जा रहे हैं उसका विवेचन उचित रूप से कर सकेंगे।
– लेखन के लिए पहले उसकी रूपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि जब तक यह स्पष्ट नहीं होगा कि हम ने क्या और कैसे लिखना है हम अपने विषय को सुसंबद्ध और सुसंगत रूप से प्रस्तुत नहीं कर सकते।
– लेख में ‘मैं’ शैली का प्रयोग होता है क्योंकि लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने होते हैं और लेख पर लेखक के अपने व्यक्तित्व की छाप होती है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित विषयों पर दो से तीन सौ शब्दों में लेख लिखिए
– झरोखे से बाहर
– सावन की पहली झड़ी
– इम्तिहान के दिन
– दीया और तूफ़ान
– मेरे मुहल्ले का चौराहा
– मेरा प्रिय टाइम पास
– एक कामकाज़ी औरत की शाम।
उत्तर
1. झरोखे से बाहर
झरोखा भीतर से बाहर की ओर झाँकने का माध्यम और बाहर से भीतर देखने का रास्ता है-हमारी आँखें भी झरोखा ही हैं। ये मन-मस्तिष्क को संसार से और संसार को मन-मस्तिष्क से जोड़ने का माध्यम मन रूपी झरोखे से किसी भक्त को संसार के कण-कण में बसनेवाले ईश्वर के दर्शन होते हैं तो मन रूपी झरोखे से ही किसी डाकू-लुटेरे को किसी धनी-सेठ की धन-संपत्ति दिखाई देती है जिसे लूटने के प्रयत्न में वह हत्या जैसा जघन्य कार्य करने में तनिक नहीं झिझकता।
झरोखा स्वयं कितना छोटा-सा होता है पर उसके पार बसने वाला संसार कितना व्यापक है जिसे देख तन-मन की भूख जाग जाती है और कभी-कभी शांत भी हो जाती है। किसी पर्वतीय स्थल पर किसी घर के झरोखे से गगन चुंबी पर्वत मालाएँ, ऊँचे-ऊँचे पेड़, गहरी-हरी घाटियाँ, डरावनी खाइयाँ यदि पर्यटकों को अपनी
ओर खींचती हैं तो दूर-दूर तक घास चरती भेड़-बकरियाँ, बाँसुरी बजाते चरवाहे, पीठ पर लंबे टोकरे बाँधकर इधर-उधर जाते सुंदर पहाड़ी युवक-युवतियाँ मन को मोह लेते हैं। राजस्थानी महलों के झरोखों से दूर-दूर फैले रेत के टीले कुछ अलग ही रंग दिखाते हैं। गाँवों में झोंपड़ों के झरोखों के बाहर यदि हरे-भरे खेत लहलहाते दिखाई देते हैं तो कूड़े के ऊँचे-ऊँचे ढेर भी नाक पर हाथ रखने को मजबूर
बे कमरों को हवा ही नहीं देते बल्कि भीतर से ही बाहर के दर्शन करा देते हैं। सजी-सँवरी दुल्हन झरोखे के पीछे छिप कर यदि अपने होनेवाले पति की एक झलक पाने को उतावली रहती है तो कोई विरहनी अपनी नज़ टिकी रहती है। माँ अपने बेटे के आगमन की इंतजार झरोखे पर टिककर करती है। झरोखे तो तरह-तरह के होते हैं पर झरोखों के पीछे बैठ प्रतीक्षारत आँखों में सदा एक ही भाव होता है-कुछ देखने का, कुछ पाने का। युद्ध-भूमि में मोर्चे पर डटा जवान भी तो खाई के झरोखे से बाहर छिप-छिप कर झाँकता है-अपने शत्रु को गोली से उड़ा देने के लिए। झरोखे तो छोटे-बड़े कई होते हैं पर उनके बाहर के दृश्य तो बहुत बड़े होते हैं जो कभी-कभी आत्मा तक को झकझोर देते हैं।
2. सावन की पहली झड़ी
पिछले कई दिनों से हवा में घुटन-सी बढ़ गई थी। बाहर तंपता सूर्य और सब तरफ़ हवा में नमी की अधिकता जीवन दूभर बना रही थी। बार-बार मन में भाव उठता कि हे भगवान, कुछ तो दया करो। न दिन में चैन और न रात को आँखों में नींद-बस गरमी-ही-गरमी, पसीना-ही-पसीना। रात को बिस्तर पर करवटें लेते-लेते पता नहीं कब आँख लग गई। सुबह आँखें खुली तो अहसास हुआ कि खिड़कियों से ठंडी हवा भीतर आ रही है।
उठकर खिड़की से बाहर झाँका तो मन खुशी से झम उठा। आकाश तो काले बादलों : आकाश में कहीं नीले रंग की झलक नहीं। सूर्य देवता बादलों के पीछे पता नहीं कहाँ छिपे हुए थे। पक्षी पेड़ों पर बादलों के स्वागत में चहचहा रहे थे। मुहल्ले से सारे लोग अपने-अपने घरों से बाहर निकल मौसम के बदलते रंग को देख रहे थे। उमड़ते-घुमड़ते मस्त हाथियों से काले-कजरारे बादल मन में मस्ती भर रहे थे। अचानक बादलों में तेज़ बिजली कौंधी ज़ोर से बादल गरजे और मोटी-मोटी कुछ बूंदें टपकीं।
कुछ लोग इधर-उधर भागे ताकि अपने-अपने घरों में बाहर पड़ा सामान भीतर रख लें। पलभर में ही बारिश का तेज़ सर्राटा आया और फिर लगातार तेज बारिश शुरू हो गई। महीनों से प्यासी धरती की प्यास बुझ गई। पेड़-पौधों के पत्ते नहा गए। उनका धूल-धूसरित चेहरा धुल गया और हरी-भरी दमक फिर से लौट आई। छोटे-छोटे बच्चे बारिश में नहा रहे थे, खेल रहे थे, एक-दूसरे पर पानी उछाल रहे थे। कुछ ही देर में सड़कें-गलियाँ छोटे-छोटे नालों की तरह पानी से भर-भरकर बहने लगी थीं।
कल रात तक दहकने वाला दिन आज खुशनुमा हो गया था। तीन-चार घंटे बाद बारिश की गति कुछ कम हुई और फिर पाँच-दस मिनट के लिए बारिश रुक गई। लोग बाहर निकलें इससे पहले फिर से बारिश शुरू हो गई-कभी धीमी तो कभी तेज़। सुबह से शाम हो गई है पर बादलों का अँधेरा उतना ही है जितना सुबह था। रिमझिम बारिश हो रही है। घरों की छतों से पानी पनालों से बह रहा है। मेरी दादी अभी कह रही थी कि आज शनिवार को बारिश की झड़ी लगी है। यह तो अगले शनिवार तक ऐसे ही रहेगी। भगवान करे ऐसा ही हो। धरती की प्यास बुझ जाए और हमारे खेत लहलहा उठे।
3. इम्तहान के दिन
बड़े-बड़े भी काँपते हैं इम्तिहान के नाम से। इम्तहान छोटों का हो या बड़ों का, पर यह डराता सभी को है। दो वर्ष पहले जब दसवीं की बोर्ड परीक्षा हमें देनी थी तब सारा वर्ष स्कूल में हमें बोर्ड परीक्षा नाम से डराया गया था और घर में भी इसी नाम से धमकाया जाता था। मन ही मन हम इसके नाम से भी डरा करते थे कि पता नहीं, इस बार इम्तहान में क्या होगा। सारा वर्ष अच्छी तरह पढ़ाई की थी, बार-बार टेस्ट दे-देकर तैयारी की थी पर इम्तहान के नाम से भी डर लगता था।
जिस दिन इम्तहान का दिन था, उससे पहली रात मुझे तो बिलकुल नींद नहीं आई। पहला प्रश्न-पत्र हिंदी का था और विषय पर मेरी अच्छी पकड़ थी पर ‘इम्तहान’ का भूत सिर पर इस प्रकार सवार था कि नीचे उतरने का नाम ही नहीं लेता था। सुबह स्कूल जाने के लिए तैयार हुआ। स्कूल-बस में सवार हुआ तो हर रोज़ .. हो-हल्ला करने वाले साथियों के हाथों में पकड़ी पुस्तकें और उनकी झुकी हुई आँखों ने मुझे और अधिक डराया। सबके चेहरों पर … खौफ़-सा छाया था। खिलखिलाने वाले चेहरे आज सहमे हुए थे। मैंने भी मन ही मन अपने पाठों को दुहराना चाहा पर ऐसा लगा कि मुझे तो कुछ भी याद ही नहीं।
सब कुछ भूलता-सा प्रतीत हो रहा था। मैंने भी अपनी पुस्तक खोली। पुस्तक देखते ही ऐसा लगा कि मुझे तो यह आती है। खैर, स्कूल पहुँच अपनी जगह पर बैठे। प्रश्न-पत्र मिला, आसान लगा। ठीक समय पर पूरा प्रश्न-पत्र हल हो गया। जब बाहर निकले तो सभी प्रसन्न थे। पर साथ ही चिंता आरंभ हो गई अगले पेपर की। अगला पेपर गणित का था। चाहे दो छुट्टियाँ थीं, पर ऐसा लगता था कि ये तो बहुत कम हैं। वह पेपर भी बीता, पर चिंता समाप्त नहीं हुई। पंद्रह दिन में सभी पेपर खत्म हुए दिन बहुत व्यस्त रहे थे। इन दिनों न तो भूख लगती थी और न खेलने की इच्छा होती थी। इन दिनों न तो मैं अपने किसी मित्र के घर गया और न ही मेरे किसी मित्र को मेरी सुध आई। इम्तहान के दिन बड़े तनाव भरे थे।
4. दीया और तूफ़ान
मिट्टी का बना हुआ एक नन्हा-सा दीया जब जलता है तो रात्रि के अंधकार से लड़ता हुआ उसे दूर भगा देता है। अपने आस-पास हल्का-सा उजाला फैला देता है। जिस अंधकार में हाथ को हाथ नहीं सूझता उसे भी दीया अपना मंद प्रकाश फैलाकर रास्ता दिखा देता है। हवा का हलका-सा झोंका जब दीये की लौ को कँपा देता है तब ऐसा लगता है कि इसके बुझते ही अंधकार फिर छा जाएगा और फिर हमें उजाला कैसे मिलेगा ? दीया चाहे छोटा-सा होता है पर वह अकेला अंधकार के संसार का सामना कर सकता है तो हम इस इंसान जीवन की राह में आने वाली कठिनाइयों का भी उसी की तरह मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? यदि वह तूफ़ान का सामना करके अपनी टिमटिमाती लौ से प्रकाश फैला सकता है तो हम भी हर कठिनाई में कर्मठ बनकर संकटों के घेरों से निकल सकते हैं।
महाराणा प्रताप ने सब कुछ खोकर अपना लक्ष्य प्राप्त करने की ठानी थी। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नन्हें-से दीये के समान जीवन की कठोरता का सामना किया। था और विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र भारत का प्रधानमंत्री पद प्राप्त कर लिया था। हमारे राष्ट्रपति कलाम ने अपना जीवन टिमटिमाते दीये के समान आरंभ किया था पर आज वही दीया हमारे देश को मिसाइलें प्रदान करने वाला प्रचंड अग्नि-पुंज है। उसने देश को जो शक्ति प्रदान की है वह स्तुत्य है। समुद्र में एक छोटी-सी नौका ऊँची-तूफानी लहरों से टकराती हुई अपना रास्ता बना लेती है और अपनी मंज़िल पा लेती है। एक छोटा-सा प्रवासी पक्षी साइबेरिया से उड़कर हज़ारों-लाखों मील दूर पहुँच सकता है तो हम इंसान भी कठिन से कठिन मंज़िल प्राप्त
कर सकते हैं। अकेले अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में कौरवों जैसे महारथियों का डट कर सामना किया था। कभी-कभी तूफान अपने प्रचंड वेग से दीये की लौ को बुझा देता है पर जब तक दीया जगमगाता है तब तक तो अपना प्रकाश फैलाता है और अपने अस्तित्व को प्रकट करता है। मिटना तो सभी को है एक दिन। मनुष्य को चाहिए कि वह कठिनाइयों से डरकर छिपा न रहे और डट कर उनका मुकाबला करे। श्रेष्ठ मनुष्य वही है जो दीये के समान जगमगाता हुआ तूफानों की परवाह न करे और अपनी रोशनी से संसार को उजाला प्रदान करता रहे।
5. मेरे मोहल्ले का चौराहा
मोहल्ले की सारी गतिविधियों का केंद्र मेरे घर के पास का चौराहा है। नगर की चार प्रमुख सड़कें यहाँ से गुज़रती हैं इसलिए इस पर हर समय हलचल बनी रहती है। पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली सड़क रेलवे स्टेशन की ओर से आती है और मुख्य बाज़ार की तरफ़ जाती है जिसके आगे औदयोगिक क्षेत्र हैं। रेलवे स्टेशन से आने वाले यात्री और मालगाडियों से उतरा सामान ट्रकों में भर इसी से गुजरकर अपने-अपने गंतव्य पर पहुँचता है। उत्तर से दक्षिण की तरफ जाने वाली सड़क मॉडल टाउन और बस स्टैंड से गुजरती है। इस पर दो सिनेमा हॉल तथा अनेक व्यापारिक प्रतिष्ठान बने हैं जहाँ लोगों का आना-जाना लगा रहता है।
चौराहे पर फलों की रेहड़ियाँ, कुछ सब्जी बेचने वाले, खोमचे वाले तो सारा दिन जमे ही रहते हैं। चूँकि चौराहे के आसपास घनी बस्ती है इसलिए लोगों की भीड़ कुछ न कुछ खरीदने के लिए यहाँ आती ही रहती है। सुबह-सवेरे स्कूल जाने वाले बच्चों से भरी रिक्शा और बसें जब गुज़रती हैं तो भीड़ कुछ अधिक बढ़ जाती है।
कुछ रिक्शाओं में तो नन्हें-नन्हें बच्चे गला फाड़कर चीखते-चिल्लाते सबका ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। चौराहे पर लगभग हर समय कुछ आवारा मजनूँ छाप भी मँडराते रहते हैं जिन्हें ताक-झाँक करते हुए पता नहीं क्या मिलता है। मैंने कई बार . पुलिस के द्वारा उनकी वहाँ की जाने वाली पिटाई भी देखी है पर इसका उन पर कोई विशेष असर नहीं होता। वे तो चिकने घड़े हैं। कुछ तो दिन भर नीम के पेड़ के नीचे घास पर बैठ ताश खेलते रहते हैं। मेरे मुहल्ले का चौराहा नगर में इतना प्रसिद्ध है कि मुहल्ले और आस-पास की कॉलोनियों की पहचान इसी से है।
6. मेरा प्रिय टाइम-पास
आज के आपाधापी से भरे युग में किस के पास फ़ालतू समय है। फिर भी हम लोग मशीनी मानव तो नहीं हैं। कभी-कभी अपने लिए निर्धारित काम-धंधों के अतिरिक्त हम कुछ और भी करना चाहते हैं। इससे मन सुकून प्राप्त करता है और लगातार काम करने से उत्पन्न बोरियत दूर होती है। हर व्यक्ति की पसंद अलग होती है इसलिए उसका टाइम-पास का तरीका भी अलग होता है। किसी का टाइम-पास सोना है तो किसी का टी० वी० देखना, किसी का सिनेमा देखना तो किसी का उपन्यास पढ़ना, किसी का इधर-उधर घूमना तो किसी का खेती-बाड़ी करना। मेरा प्रिय टाइम-पास विंडो-शॉपिंग है।
जब कभी काम करते-करते मैं ऊब जाता हूँ और मन कोई काम नहीं करना चाहता तब मैं तैयार होकर घर से बाहर बाज़ार की ओर निकल जाता हूँ-विंडो-शॉपिंग के लिए। जिस नगर में मैं रहता हूँ वह काफ़ी बड़ा है। बड़े-बड़े बाज़ार, शॉपिंग मॉल्ज और डिपार्टमेंटल स्टोर्स की संख्या काफ़ी है। दुकानों की शो-विंडोज़ सुंदर ढंग से सजे-सँवरे सामान से ग्राहकों को लुभाते रहते हैं। नए-नए उत्पाद, सुंदर कपड़े, इलैक्ट्रॉनिक्स का नया सामान, तरह-तरह के खिलौने, सजावटी सामान आदि इनमें भरे रहते हैं। मैं इन सजी-सँवरी दुकानों की शो-विंडोज़ को ध्यान से देखता हूँ, मन ही मन खुश होता हूँ, उनकी सुंदरता और उपयोगिता की सराहना करता हूँ।
जिस वस्तु को मैं खरीदने की इच्छा करता हूँ उसके दाम का टैग देखता हूँ और मन में सोच लेता हूँ कि मैं इसे तब खरीद लूँगा जब मेरे पास अतिरिक्त पैसे होंगे। ऐसा करने से मेरी जानकारी बढ़ती है। नए-नए उत्पादों से संबंधित ज्ञान बढ़ता है और मन नए सामान को लेने की तैयारी करता है और इसलिए मस्तिष्क और अधिक परिश्रम करने के लिए तैयार होता है। टाइम-पास की मेरी यह विधि उपयोगी है, और सार्थक है, जो परिश्रम करने की प्रेरणा देती है, ज्ञान बढ़ाती है और किसी का कोई नुकसान भी नहीं करती।
7. एक कामकाजी औरत की शाम
हमारे देश में मध्यवर्गीय परिवारों के लिए अति आवश्यक हो चुका है कि घर-परिवार को ठीक प्रकार से चलाने के लिए पति-पत्नी दोनों धन कमाने के लिए काम करें और इसीलिए समाज में कामकाज़ी औरतों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कामकाज़ी औरत की जिंदगी पुरुषों की अपेक्षा कठिन है। वह घर-बाहर एक साथ संभालती है। उसकी शाम तभी आरंभ हो जाती है जब वह अपने कार्यस्थल से छुट्टी के बाद बाहर निकलती है। वह घर पहुँचने से पहले ही रास्ते में बाजार से फल-सब्जियाँ खरीदती है, छो किरयाने का सामान लेती है और लदी-फदी घर पहुँचती है। तब तक पति और बच्चे भी घर पहुँच चुके होते हैं।
दिन-भर की थकी-हारी औरत कुछ आराम करना चाहती है पर उससे पहले चाय तैयार करती है। यदि वह औरत संयुक्त परिवार में रहती है तो कुछ और तैयार रमाइशें भी उसे पूरी करनी पड़ती हैं। चाय पीते-पीते वह बच्चों से, बड़ों से बातचीत करती है। यदि उस समय कोई घर में मिलने-जुलने वाला आ जाता है तो सारी शाम आगंतुकों की सेवा में बीत जाती है। लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो भी उसे फिर से बाजार या कहीं और जाना पड़ता है ताकि घर के लोगों की फरमाइशों को पूरा कर सके। लौटकर बच्चों को होमवर्क करने में सहायता देती है और फिर रात के खाने की तैयारी में लग जाती है।
कभी-कभी उसे आस-पड़ोस के घरों में भी औपचारिकतावश जाना पड़ता है। कामकाजी औरत तो चक्करघिन्नी की तरह हर पल चक्कर ही काटती रहती है। उसकी शाम अधिकतर दूसरों की फरमाइशों को पूरा – करने में बीत जाती है। वह हर पल चाहती है कि उसे भी घर में रहने वाली औरतों के समान कभी शाम अपने लिए मिले पर प्रायः ऐसा हो नहीं पाता, क्योंकि कामकाजी औरत का जीवन तो घड़ी की सुइयों से बँधा होता है।
प्रश्न 3.
घर से स्कूल तक के सफ़र में आज आपने क्या-क्या देखा और अनुभव किया ? लिखें और अपने लेख को एक अच्छा-सा शीर्षक भी दें।
उत्तर
संवेदनाओं की मौत मैं घर से अपने विद्यालय जाने के लिए निकली। आज मैं अकेली ही जा रही थी क्योंकि मेरी सखी नीलम को ज्वर आ गया था। मेरा .. विद्यालय मेरे घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर है। रास्ते में बस स्टेंड भी पड़ता है। वहाँ से निकली तो बसों का आना-जाना जारी था। मैं बचते-बचाते निकल ही रही थी कि मेरे सामने ही एक बस से टकरा कर एक व्यक्ति बीच सड़क पर गिर गया। मैं किनारे पर खड़ी हो कर देख रही थी कि उस गिरे हुए व्यक्ति को उठाने कोई नहीं आ रहा। मैं साहस करके आगे जा ही रही थी कि एक बुजुर्ग ने मुझे रोक कर कहा, ‘बेटी ! कहाँ जा रही हो ?’ वह तो मर गया लगता है। हाथ लगाओगी तो पुलिस के चक्कर में पड़ जाओगी। मैं घबरा कर पीछे हट गई और सोचते-सोचते विद्यालय पहुँच गई कि हमें क्या हो गया है जो हम किसी के प्रति हमदर्दी भी नहीं दिखा सकते, किसी की सहायता भी नहीं कर सकते ?
प्रश्न 4.
अपने आस-पास की किसी ऐसी चीज़ पर एक लेख लिखें, जो आप को किसी वजह से वर्णनीय प्रतीत होती हो। वह कोई चाय की दुकान हो सकती है, कोई सैलून हो सकता है, कोई खोमचे वाला हो सकता है या किसी खास दिन पर लगने वाला हॉट बाज़ार हो सकता है। विषय का सही अंदाज़ा देने वाला शीर्षक अवश्य दें।
उत्तर
पानी के नाम पर बिकता ज़हर जेठ की तपती दोपहरी। पसीना, उमस और चिपचिपाहट ने लोगों को व्याकुल कर दिया था। गला प्यास से सूखता है तो मन. सड़क – के किनारे खड़ी ‘रेफ्रीजेरेटर कोल्ड वाटर’ की रेहड़ी की ओर चलने को कहता है। प्यास की तलब में पैसे दिए और पानी पिया। चल दिए। पर कभी सोचा नहीं कि इन रेहड़ी की टंकियों की क्या दशा है ? क्या इन्हें कभी साफ़ भी किया जाता है ? क्या इन में वास्तव में रेफ्रीज़ेरेटर कोल्ड वॉटर है या पानी में बर्फ़ डाली हुई है ?
कहीं हम पैसे देकर पानी के नाम पर जहर तो नहीं पी रहे ? इन कोल्ड वॉटर बेचने वालों के ‘वाटर’ की जांच स्वास्थ्य विभाग का कार्य है परंतु वे तो तब तक नहीं जागते हैं जब तक इनके दूषित पानी पीने से सैंकड़ों व्यक्ति दस्त के, हैज़े के शिकार नहीं हो जाते। आशा है इन गर्मियों में स्वास्थ्य विभाग जायेगा और पानी के नाम पर जहर बेचने वाली इन ‘कोल्ड वाटर’ की रेहड़ियों की जाँच करेगा।
अभ्यास हेतु कुछ अन्य प्रश्न
प्रश्न 1.
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
संकेत बिंदु:
(i) जन्म से कोई मूर्ख या विद्वान् नहीं
(ii) अभ्यास से विशेष योग्यता व कुशलता की प्राप्ति
(iii) कोई उदाहरण
(iv) अभ्यास से असाध्य कार्य को भी साध्य बनाना।
उत्तर
यह सत्य है कि जन्म से कोई भी मनुष्य मूर्ख या विद्वान् नहीं होता। प्रत्येक मनुष्य का जन्म एक समान होता है। प्रकृति ने हर प्राणी को एक जैसा मस्तिष्क, बुद्धि और हृदय प्रदान किया है। मनुष्य विद्वान् तो बड़ा होकर बनता है जिसके लिए उसे अभ्यास की आवश्यकता होती है। नियमित अभ्यास करने से कोई भी मनुष्य विशेष योग्यता और कुशलता प्राप्त कर सकता है। इतना ही नहीं अभ्यास करने से तो मूर्ख भी धीरे-धीरे विद्वान् बन जाता है। जैसे विद्यार्थी जीवन में पाणिनी बहुत मूर्ख था।
वह एक ही कक्षा में जब अनेक बार असफल हुआ तो उनके गुरु ने उन्हें अपने आश्रम से मूर्ख कहकर निकाल दिया था। जब वह जंगल से गुजर रहे थे तो वह एक कुँए पर अपनी प्यास बुझाने के लिए गए। वहाँ उन्होंने देखा कि पानी खींचने की रस्सी से कुएँ की मेड़ पर भी निशान पड़ रहे थे।
उसी समय उन्होंने संकल्प कर लिया कि जब लगातार प्रयोग से एक कठोर वस्तु पर भी निशान पड़ सकते हैं तो फिर वह भी मूर्ख से विद्वान् बन सकता। यह निश्चय कर वे वापस अपने गुरु की शरण में चले गए। वही पाणिनी आगे चलकर महान विद्वान् महर्षि पाणिनी बने। अभ्यास करने से संसार में कोई असाध्य कार्य भी साध्य बन जाता है। अभ्यास असंभव को भी संभव बना देता है। इसीलिए यह सच कहा गया है कि
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।
प्रश्न 2.
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं
संकेत बिंदुः
(i) पराधीनता एक अभिशाप
(ii) पराधीनता प्रगति में बाधक
(iii) स्वाधीनता जन्मसिद्ध अधिकार
(iv) स्वाभिमान और आत्मविश्वास से स्वाधीनता प्राप्त होती है।
उत्तर
इस संसार में पराधीनता एक बहुत बड़ा अभिशाप है। जो मनुष्य दूसरों के अधीन रहता है वह नरक से बुरा जीवन भोगता है। उसके जीवन में कोई रस नहीं होता और न ही वह जीना चाहता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी का जीवन भी कठिन है। पराधीनता मनुष्य जीवन की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करती है क्योंकि दूसरे के अधीन रहकर मनुष्य कभी भी उन्नति नहीं कर सकता वह अपनी इच्छा से कोई भी काम नहीं कर सकता। उसका खान-पान, रहन-सहन सब कुछ दूसरों पर ही आश्रित होता है। स्वाधीनता प्रत्येक प्राणी का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस है।
प्रकृति ने सबको अपनी इच्छा के अनुसार जीवनयापन करने का जन्मसिद्ध अधिकार दिया है। वह कहीं भी आ-जा सकता है; घूम सकता है। स्वाभिमान और आत्मविश्वास से स्वाधीनता को प्राप्त किया जा सकता है। जो मनुष्य स्वाभिमानी होता है वह कभी भी दूसरों के अधीन रहना पसंद नहीं करता। आत्मविश्वास के बल पर ही स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है। इसलिए हमें सदा स्वाभिमानी और आत्मविश्वासी बनना चाहिए। पराधीन होकर जीवन में कोई रस नहीं रहता। इस जीवन में सुख की कल्पना भी नहीं कर सकते। अतः यह सत्य है कि पराधीन व्यक्ति को तो सपने में भी सुख की अनुभूति नहीं होती।
प्रश्न 3.
नारी शिक्षा का महत्त्व
संकेत बिंदुः
(i) सभी का शिक्षित होना आवश्यक
(ii) स्त्री शिक्षित तो समाज शिक्षित
(iii) संकीर्णता को छोड़कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना
(iv) लड़कियों के लिए विशेष सहलतें होना।
उत्तर
समाज में प्रत्येक मनुष्य का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है। समाज में जितने ज्यादा लोग शिक्षित होंगे समाज उतना ही सभ्य एवं सुसंस्कृत होता है। पुरुषों की अपेक्षा समाज में नारी शिक्षा की अधिक महता है। यदि स्त्री शिक्षित होगी तो समाज अपने आप ही शिक्षित हो जाएगा क्योंकि एक स्त्री दो परिवारों की देख-रेख करती है। वैसे भी नारी को ही समाज का निर्माण करने वाली होती है। नारी ही समाज का मूल आधार होती है। इसलिए नारी शिक्षित होगी तो सारा समाज शिक्षित तो बन ही जाएगा। वर्तमान युग में इस पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों को अपनी संकीर्ण विचारों को छोड़ देना चाहिए।
उन्हें अपनी संकीर्णता को त्याग कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। पुरुषों को नारी को किसी भी रूप में कम नहीं समझना …… चाहिए क्योंकि नारी का स्थान सबसे बड़ा होता है। समाज में लड़कियों को विशेष लाभ मिलना चाहिए। यदि लड़कियों को विशेष दर्जा दिया जाएगा तो समाज में वे आगे बढ़ सकेंगी। इतना ही नहीं समाज के हर क्षेत्र में उनका विकास होगा। लड़कियों के लिए विशेष शिक्षा दी जानी चाहिए। यदि लड़कियां शिक्षित होंगी तभी समाज का कल्याण होगा। लड़कियों को सुशिक्षित होने से ही समाज सभ्य सुसंस्कृत और संस्कारवान बन पाएगा। इसलिए समाज में नारी शिक्षा का बहुत महत्त्व है।
प्रश्न 4.
व्यायाम का महत्व
संकेत बिंदुः
(i) व्यायाम की जरूरत
(ii) व्यायाम का स्वरूप
(iii) व्यायाम के लाभ
(iv) व्यायाम करने में नियमितता।
उत्तर
हमारे जीवन में व्यायाम की बहुत आवश्यकता होती है। नियमित व्यायाम करने से ही व्यक्ति का शरीर स्वस्थ और सुडौल बन सकता है। जो लोग नियमित व्यायाम नहीं करते उनके शरीर में अनेक रोग लग जाते हैं। वे जल्दी ही बूढ़े हो जाते हैं। उनमें चुस्ती-फुर्ती गायब हो जाती है। उनके जीवन में आलस्य छा जाता है। व्यायाम अनेक प्रकार के होते हैं।
सैर करना, योगा, भागदौड़, टहलना आदि व्यायाम के ही रूप होते हैं। सुबह शाम .. सैर करनी चाहिए, योगाभ्यास करना चाहिए। अनुलोम-विलोम, सूर्य नमस्कार आदि नियमित रूप से करने चाहिए। जीवन में व्यायाम के अनेक लाभ हैं। व्यायाम करने से शरीर चुस्त रहता है। व्यायाम करने से शरीर स्वस्थ और रोग रहित रहता है।
शरीर में चुस्ती-फुर्ती आ जाती है। आलस्य गायब हो जाता है। चेहरे पर चमक आ जाती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए नियमित व्यायाम करना चाहिए। नियमित व्यायाम करने से ही अधिक लाभ … होता है। इससे रोगों से लड़ने की शक्ति आती है। शरीर का पूर्ण विकास होने लगता है।
प्रश्न 5.
यदि मैं अध्यापक होता
संकेत बिंदुः
(i) मन की इच्छा कि अध्यापक होता
(ii) स्कूल में विद्यमान कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान
(iii) पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशालाओं, खेल तथा सम्पूर्ण शिक्षा स्तर के उत्थान पर बल।
उत्तर
संसार में प्रत्येक मनुष्य कुछ न कुछ बनना चाहता है। यहाँ प्रत्येक मनुष्य की इच्छा अलग-अलग होती है। मेरे मन की इच्छा है कि मैं एक अध्यापक बनूँ। यदि मैं एक अध्यापक होता तो अपने समाज के विकास में योगदान देता। सदा शिक्षा क्षेत्र में आई कमियों को दूर करने का प्रयास करता। बच्चों को चहुंमुखी विकास में उनका मार्गदर्शन करता।
सदा बच्चों की भलाई करता। मैं अपने स्कूल की कमियों को दूर करने का प्रयास करता। छोटी-छोटी कमियों को ढूँढ़कर उन्हें दूर करने का प्रयास करता। मैं पुस्तकालय, विज्ञान, प्रयोगशालाओं, खेल आदि के उत्थान के प्रयास … अवश्य करता। खेलों को बढ़ावा देने के लिए बच्चों को जागरूक बनाता। मैं सदा संपूर्ण शिक्षा स्तर के उत्थान पर बल देता। शिक्षा का स्तर बच्चों के जीवन को विकसित कर सके ऐसे प्रयास करता। मैं एक अध्यापक होने के नाते सदा ईमानदारी, सत्यनिष्ठ एवं कर्तव्य भावना से अपना कर्म करता।
प्रश्न 6.
आँखों देखी रेल दुर्घटना
संकेत बिंदुः
(i) घर के पास से रोज़ ट्रेन का गुज़रना
(ii) खेलकूद में मस्त
(iii) अचानक ट्रेन का पटरी से उतरना
(iv) भयानक दृश्य : अनेक यात्रियों का मौत के मुंह में जाना
(v) स्थानीय लोगों द्वारा मौके पर मदद
(vi) सदमा पहुँचाने वाली दुर्घटना। मेरा घर चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन के बिल्कुल पास है।
उत्तर
मेरे घर के पास से ही पटरी गुज़र रही है। प्रतिदिन घर के पास से अनेक गाड़ियाँ गुजरती हैं। अब मैं गाड़ियों के शोर से अभ्यस्त हो गया हूँ। एक दिन मैं दोपहर के समय खेलकूद में दोस्तों के साथ मस्त था। हम सभी फुटबॉल खेल रहे थे। अचानक देखा कि एक ट्रेन पटरी से उतर गई। इस दुर्घटना से चारों तरफ हाहाकार मच गया। ट्रेन में बैठे यात्री चिल्लाने लगे।
पटरी से उतरकर ट्रेन अनेक घरों को तोड़ती-रौंदती हुई एक गहरे गड्ढे में जा गिरी उसके बाद घटनास्थल पर अनेक लोग जमा हो गए। रेलवे पुलिस के अनेक जवान आ गए। आग बुझाने वाली गाड़ियां आ गईं। इस दुर्घटना में अनेक यात्रियों की मौत हो गई। यह एक भयानक दृश्य था। इस भयानक दृश्य को देखकर मन डर गया। स्थानीय लोगों ने मौके पर पहुँचकर यात्रियों की मदद की। फँसे यात्रियों को बाहर निकाला। उन्हें पानी पिलाया। कुछ खाने की वस्तुएं दी। इस भयानक दृश्य को देखकर हर व्यक्ति सहम गया। यात्रियों की लाशें देखकर मुझे सदमा लगा। यह दृश्य मेरे मन में बैठ गया।
प्रश्न 7.
जैसा करोगे वैसा भरोगे
संकेत बिंदु:
(i) कर्म करना बीज बोने के समान
(ii) कोई कहावत जैसे-बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से ।
(iii) अच्छे काम का अच्छा फल
(iv) बुरे काम का बुरा फल
(v) अच्छे कर्म करने पर बल। जीवन में प्रत्येक मनुष्य को कर्म करना पड़ता है।
उत्तर
कर्म करना व्यक्ति का स्वभाव है। कर्म ही मनुष्य जीवन का आधार है। जीवन में कर्म करना खेत में बीज बोने के समान है। जिस प्रकार किसान अपने खेत में जैसा बीज बोता है उसे वैसी ही फसल मिलती है। ठीक उसी तरह करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। यह प्रसिद्ध कहावत है कि बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए अर्थात् यदि हम बबूल का पेड़ बोएँगे तो हमें कांटे ही मिलेंगे।
उससे कभी मीठे आम प्राप्त नहीं होंगे। यह सच ही है मनुष्य जैसे कर्म करता है उसे संसार में वैसा ही फल भोगना पड़ता है। कर्मफल का यही सिद्धांत है जो कभी भी निष्फल नहीं होता। इसीलिए इस संसार में जो मनुष्य अच्छे काम करता है उसे अच्छा फल मिलता है। जो बुरे काम करता है उसे बुरा फल ही मिलता है। फल की प्राप्ति मनुष्य के कर्मों पर निर्भर करती है। इसलिए मनुष्य को सदा अच्छे कर्म करने चाहिए। उसे जीवन में कभी भूलकर भी बुरा कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि बुरे कर्म करने पर मनुष्य सदा पश्चात्ताप करता है।
प्रश्न 8.
सच्चा मित्र
संकेत बिंदुः
(i) सच्चा मित्र : एक खजाना
(ii) सुख-दुःख का साथी
(iii) मार्गदर्शक और प्रेरक
(iv) परख और सही चुनाव।
उत्तर
जीवन में सच्चा मित्र एक अनूठे खजाने के समान होता है। जिस तरह किसी व्यक्ति को कोई खज़ाना मिलने से उसके जीवन में अपार खुशियाँ आ जाती हैं। उसके जीवन में धन, संपदा की कोई कमी नहीं रहती। ठीक उसी तरह सच्चा मित्र मिलने से भी जीवन खुशियों से भर जाता है। सच्चा मित्र मिलने से जीवन सुखमय बन जाता है। जीवन के बुरे गुण अच्छे गुणों में बदल जाते हैं। एक सच्चा मित्र ही जीवन में सुख-दुःख का सच्चा साथी होता है।
सच्चा मित्र केवल सुख में ही नहीं बल्कि दुःख में भी सहयोग देता है। वह भयंकर समय में भी हमारा साथ नहीं छोड़ता। सच्चा मित्र एक मार्गदर्शक प्रेरक होता है। वह एक गुरु के समान हमारा सच्चा मार्गदर्शन करता है। वह सदा अच्छाई की ओर प्रेरित करता है। वह सदा सच्चाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। सद्कर्म करने की प्रेरणा देता है। हमें सद्मार्ग पर चलने का सुझाव देता है। इसलिए जीवन में हमें एक मित्र का चुनाव सोच-समझकर और परखकर करना चाहिए। बुरे लोगों को कभी भी अपना मित्र नहीं बनाना चाहिए क्योंकि ये अपना ही नहीं बल्कि दूसरों का भी जीवन बर्बाद कर देते हैं।
प्रश्न 9.
खुशियाँ और उमंग लाते हैं जीवन में त्योहार
संकेत बिंदुः
(i) त्योहारों का महत्त्व
(ii) विभिन्न त्योहार
(iii) उमंग और जोश से भरे त्योहार
(iv) सद्भावना, एकता व प्रेम के प्रतीक
(v) सभी को त्योहारों का इंतज़ार।
उत्तर
भारत त्योहारों का देश कहा जाता है। ये त्योहार अनेक प्रकार के हैं। कुछ त्योहार धार्मिक महत्त्व रखते हैं तो कुछ राष्ट्रीय त्योहारों के रूप में देश-भर में मनाए जाते हैं। हमारे देश के त्योहार चाहे धार्मिक दृष्टि से मनाए जा रहे हैं या नए वर्ष के आगमन के रूप में सभी अपनी विशेषताओं एवं क्षेत्रीय प्रभाव से मुक्त होने के साथ-साथ देश की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता और अखण्डता को मज़बूती प्रदान करते हैं। ये त्योहार जहाँ जनमानस में उल्लास, उमंग एवं खुशहाली भर देते हैं, वहीं हमारे अंदर देशभक्ति एवं गौरव की भावना के साथ विश्व-बंधुत्व एवं समन्वय की भावना भी बढ़ाते हैं। भारत में विभिन्न त्योहार मनाए जाते हैं।
जैसे-होली, दीपावली, ईद, दशहरा, वैशाखी, रामनवमी, गुरुपर्व, बसंत पंचमी आदि। ये सभी त्योहार हमें समता और भाईचारे का प्रचार करने पर बल देते हैं। भारतीय त्योहार .एक अलग अंदाज में एक अलग तरीके से मनाए जाते हैं। यह हमें प्रसन्न रहने की प्रेरणा देते हैं। हमारे जीवन में उत्साह, उमंग एवं जोश का संचार करते हैं। ये आशा और उम्मीद को जन्म देने का काम भी करते हैं। त्योहार आपसी प्रेमभाव तथा सौहार्द को बढ़ाने का काम करते हैं।
ये व्यक्ति में नई जागृति और चेतना पैदा करने का काम करते हैं। ये हमें शिक्षा देते हैं कि हमें कभी भी अत्याचार के सामने नहीं झुकना चाहिए। एक-दूसरे को साथ लेकर चलने तथा एकता के प्रसार पर बल देते हैं। हम सभी को बड़ी ही उत्सुकता के साथ त्योहारों का इंतजार रहता है। ये हमारी एकता एवं अखंडता को बनाए रखने का काम करते हैं।
प्रश्न 10.
नाटक में अभिनय में मेरा पहला अनुभव
उत्तर
संकेत बिंदु:
(i) स्कूल में नाटक मंचन की तैयारी
(ii) स्वयं को नाटक में मुख्य रोल के लिए चुना जाना
(iii) नाटक मंचन का अभ्यास
(iv) मेकअप को लेकर उत्साह
(v) मंचन के बाद आत्म-संतुष्टि व लोगों द्वारा सराहना।
उत्तर
अभिनय करना एक कला है। इस कला के माध्यम से व्यक्ति अपने अंदर की भावनाओं एवं अनुभूतियों को अभिनय के माध्यम से प्रकट करता है। हमारे विद्यालय में समय-समय अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहते हैं। बीते दिनों में स्कूल में ‘कन्या भ्रूण हत्या’ विषय को लेकर एक नाटक के मंचन की तैयारी की जाने लगी। मैंने भी बड़े चाव से इस नाटक में भाग लिया। नाटक के प्रति मेरी उत्सुकता तथा मेरे अभिनय कौशल को देखते हुए अध्यापकों ने मुझे नाटक में मुख्य रोल के लिए चुन लिया। यह मेरे जीवन का सबसे उत्तम और अच्छा पल था। विद्यालय में हमें नाटक मंचन के अभ्यास के लिए प्रतिदिन आखिरी के तीन पीरियड मिले थे।
हम सभी पूरे जोश तथा उत्साह के साथ नाटक मंचन के अभ्यास में लगे रहते थे। हमारे नाटक और उत्साह की सभी ने सराहना भी की थी। अभिनय करने के लिए किया जाने वाला मेकअप हमारे लिए सबसे ज्यादा उत्साहवर्धक काम था। हम सभी चरित्रों तथा उनकी आवश्यकतानुसार मेकअप करने में उत्साह दिखा रहे थे। नाटक में अभिनय करने के बाद मुझे आत्म-संतुष्टि का अनुभव हुआ। मैंने स्वयं को नाटक के चरित्र में डूबो दिया था। मेरी इस अभिनय कला की सभी ने सराहना भी की थी।
प्रश्न 11.
नए स्कूल में मेरा पहला दिन
उत्तर
मेरे नए स्कूल का नाम शहीद भगत सिंह मॉडल स्कूल है। मैंने इसी वर्ष इस स्कूल में प्रवेश लिया है। मैं नौवीं कक्षा का छात्र हूँ। मुझे इस स्कूल में पढ़ते हुए आठ महीने हो गए हैं किंतु मुझे आज भी स्कूल में पहला दिन अच्छी तरह याद है। नए स्कूल में मेरा पहला दिन बड़ा ही रोमांचक एवं यादगार था। मेरे पिता जी ने मुझे नई ड्रेस, बैग और किताबें खरीदकर दी।
मैं पहली बार बस में बैठकर स्कूल गया। पहली बार बस में बैठकर मुझे बहुत अच्छा लगा। स्कूल जाते ही हम प्रार्थना सभा में पहुँच गए। प्रार्थना सभा में स्कूल के प्रधानाचार्य ने नए छात्रों का स्वागत किया। उन्होंने हमें जीवन में निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी। इसके बाद स्कूल के पुराने छात्रों ने नए छात्रों का स्वागत किया।
उन्होंने हमें पुस्तकालय, कंप्यूटर कक्ष, कैंटीन तथा खेल का मैदान दिखाया। पहले दिन ही कक्षा में नए मित्र बन गए। मैंने उनके साथ कैंटीन में चाय पी। खेल के पीरियड में मैंने अपने मित्रों के साथ क्रिकेट मैच खेला। छुट्टी होने पर पंक्तिबद्ध होकर बस में बैठ गए और हँसते-हँसते घर चले गए। सचमुच नए स्कूल में मेरा पहला दिन बहुत यादगार है।
प्रश्न 12.
मोबाइल फोन और विद्यार्थी
उत्तर
आज का युग संचार-क्रांति का युग है। इस युग में मोबाइल हम सब की जिंदगी का प्रमुख हिस्सा बन गया है। आज मोबाइल ने प्रत्येक क्षेत्र में क्रांति ला दी है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार इसका लाभ उठा रहा है। आज विद्यार्थी वर्ग में मोबाइल अधिक प्रसिद्ध है। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय हर स्तर के विद्यार्थी की पहली पसंद मोबाइल है। आज मोबाइल का प्रयोग केवल परस्पर बातचीत के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि विद्यार्थी इसका प्रयोग इंटरनेट, ई-मेल, चैटिंग आदि के लिए भी करते हैं। इससे घर बैठे इंटरनेट के माध्यम से संसार के किसी भी कोने की जानकारी ले सकते हैं।
विद्यार्थी अपनी मनचाही सामग्री को डाउनलोड भी कर सकते हैं। इससे प्रिंट भी निकाल सकते हैं। आज मोबाइल जीवन के लिए जितना उपयोगी है उतना हानिकारक भी है। कुछ विद्यार्थी ऐसे भी हैं जो मोबाइल का दुरुपयोग भी करते हैं ये व्यर्थ में ही घंटों गप्पें हांकते रहते हैं। एक-दूसरे को संदेश भेजने में समय गंवाते हैं। वे चैट करके अपना समय नष्ट करते हैं। ऐसे विद्यार्थियों को मोबाइल की उपादेयता समझनी चाहिए। इसका दुरुपयोग न करके केवल सदुपयोग करना चाहिए।
प्रश्न 13.
पुस्तकालय के लाभ
उत्तर
पुस्तकालय ज्ञान का अद्भुत भंडार है। पुस्तकालय ज्ञान का वह मंदिर होता है जहां हम विभिन्न विद्वानों, महापुरुषों, लेखकों, साहित्यकारों आदि के विचारों को पढकर ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। जिस तरह जीवन के लिए शद्ध हवा, भोजन, जल की ज़रूरत होती है उसी तरह ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्तम पुस्तकों की आवश्यकता होती है। पुस्तकालय में अनेक विषयों की पुस्तकें होती हैं। पुस्तकालय का मानव-जीवन में बहुत लाभ है। इससे हम धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
इससे व्यावहारिक ज्ञान ले सकते हैं। इससे बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के बारे में पढ़ सकते हैं। इससे संत कबीर, सूरदास, तुलसीदास, दादूदयाल आदि कवियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इससे हमें भारतीय ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास का ज्ञान होता है। पुस्तकालय से हमें अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता एवं परंपराओं का ज्ञान मिल सकता है। इससे कला संस्कृति की विस्तृत जानकारी प्राप्त हो सकती है। यदि हम पुस्तकालय का सदुपयोग करें तो यह हमारे जीवन में वरदान सिद्ध हो सकता है। हमें पुस्तकालय में शांत होकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
प्रश्न 14.
स्वास्थ्य और व्यायाम
उत्तर
यह बात सच है स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है। स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी संपत्ति है। स्वास्थ्य और व्यायाम का अटूट संबंध है क्योंकि स्वास्थ्य व्यायाम पर ही आधारित होता है। अच्छा स्वास्थ्य केवल नियमित व्यायाम से ही प्राप्त होता है। मनुष्य जीवन में व्यायाम का बहुत महत्त्व होता है। जवानी में ही नहीं बल्कि बुढ़ापे में भी शरीर को व्यायाम से स्वस्थ रख सकते हैं। स्वस्थ शरीर सदा निरोगी रहता है।
व्यायाम करने से हमारा शरीर स्वस्थ रहता है और रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है। नियमित व्यायाम से शरीर सुंदर और शक्तिशाली बनता है। इससे तन-मन में कभी आलस्य नहीं आता। सदा चुस्ती-फुर्ती बनी रहती है। हमें अपना स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए नियमित व्यायाम करना चाहिए। सुबह-शाम सैर करनी चाहिए। योगा भी करना चाहिए। संभवतः अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम बहुत ज़रूरी है। स्वस्थ शरीर का व्यायाम ही मूल आधार है। स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन निवास करता है।
प्रश्न 15.
रामलीला देखने का अनुभव
उत्तर
इस बार मैं रामलीला ग्राउंड में रामलीला देखने गया था। मेरे साथ मेरे मित्र अरुण और दीपक थे। मैंने अपने मित्रों के साथ इस रामलीला का आनंद उठाया। रामलीला रात नौ बजे शुरू होती थी किंतु हम प्रतिदिन साढ़े आठ बजे ही मैदान में जाकर बैठ जाते थे। रामलीला के पहले दिन श्रवण कुमार तथा श्रीराम जन्म उत्सव के दृश्य दिखाए गए जो बहुत अच्छे थे।
दूसरी रात राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के बालरूप के मनोरम दृश्य तथा अयोध्या के अनेक प्राकृतिक दृश्य दिखाए। तीसरी रात राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न की शिक्षा-दीक्षा का दृश्य दिखाया। चौथी रात सीता स्वयंवर तथा लक्ष्मण-परशुराम संवाद के दृश्य दिखाए। पांचवीं रात राम वनवास तथा भरत-राम मिलाप को दिखाया गया। भरत और राम के मिलन के दृश्य बहुत ही मार्मिक थे। उन्हें रोता देखकर मेरी आँखों में भी आँसू आ गए थे।
छठी रात सीता हरण, राम का सुग्रीव तथा हनुमान जी से मिलन दिखाया गया। सातवीं रात राम द्वारा बाली वध, हनुमान-रावण संवाद, लंका दहन के दृश्य दिखाए गए। आठवीं रात रावण-अंगद संवाद में अंगद की वीरता दिखाई गई। लक्ष्मण मूर्छा तथा राम का सामान्य आदमी की तरह विलाप दिखाया गया। अंतिम रात में राम-रावण युद्ध के दृश्य दिखाए गए। तभी यह घोषणा की गई कि श्रीराम द्वारा रावण वध दशहरा ग्राउंड में किया जाएगा। रामलीला के ये आठ दिन बहुत खुशी में बीते। रामलीला का यह अनुभव बहुत अच्छा लगा।
प्रश्न 16.
मधुर वाणी
उत्तर
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय।।
संत कबीरदास ने कहा है कि हमें सदा मीठी वाणी बोलनी चाहिए। मीठी वाणी केवल सुनने वालों को ही शीतलता नहीं देती बल्कि वक्ता को भी शीतल बना देती हैं। जीवन में मधर वाणी के अनेक लाभ हैं। कडवी वाणी दूसरों को अपना शत्र बना देती है। ऐसे व्यक्ति से कोई भी बात करना पसंद नहीं करता। वह धीरे-धीरे अकेला पड़ जाता है। इतना ही मनुष्य के जीवन में अनेक अवगण पैदा हो जाते हैं। किंत मधुर वाणी सदा लाभ ही लाभ देती है। मधुर वाणी बोलने वाले मनुष्य के सभी लोग मित्र बन जाते हैं। सभी उसको सुनना पसंद करते हैं। वह सबका प्रिय बन जाता है। उसका जीवन गुणों से भरपूर बन जाता है। वह सदा तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए व्यक्ति को सदा मधुर वाणी बोलनी चाहि इसीलिए भर्तृहरि ने कहा है-कि मधुर वाणी मनुष्य का सच्चा आभूषण है।
प्रश्न 17.
हिंदी भाषा की उपयोगिता
उत्तर
हिंदी भाषा भारतवर्ष की राष्ट्र भाषा है। यह भाषा केवल स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का ही माध्यम नहीं हैं अपि यह भारत के जन-जन की भाषा है। यह देश के लोगों के व्यवहार की भाषा है। आज हमारे देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हिंदी भाषा की बहुत उपयोगिता है। हिंदी की उपयोगिता प्रतिदिन बढ़ रही है। यह हमारी राष्ट्रभाषा है। यह राजकाज की भाषा है। इसमें ही बैंकों, आयोगों विभिन्न मंत्रालयों तथा संस्थाओं द्वारा प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं।
यह जनसंचार का प्रमुख माध्यम है। यह मीडिया, दूरदर्शन, सिनेमा, शिक्षा जनसंचार आदि क्षेत्रों की प्रमुख भाषा है। आज इस भाषा में अनूठा साहित्य उपलब्ध है। इसमें कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, यात्रावृत्त, रेखाचित्र, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में श्रेष्ठ साहित्य लिखा जा रहा है। इसमें विदेशों में भी साहित्य लिखा जा रहा है। क्लर्क से लेकर आई० ए० एस० तक की परीक्षाएँ हिंदी माध्यम में ली जाती हैं। वैश्वीकरण के युग में हिंदी की उपयोगिता भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण संसार में है।
प्रश्न 18.
जब मेरी माँ बीमार पड़ गयीं
उत्तर
माँ प्रकृति की सर्वोत्तम रचना है। माँ के आंचल में अनूठा स्नेह समाया हुआ है। वह संसार की सबसे बड़ी पीड़ा सहन कर बच्चे को जन्म देती हैं और उसका पालन-पोषण करती है। घर में सुबह-सवेरे सबसे पहले जागकर सभी काम करती हैं और रात में सबसे बाद में सोती है। पर जब मेरी माँ बीमार पड़ गयीं तो मुझे ऐसा लगा जैसे पूरा का पूरा घर ठहर गया हो। घर की सारी खुशियाँ कहीं गुम-सी हो गई। माँ का स्वभाव है कि घर के सभी लोगों का पूरा ध्यान रखती है। वह स्वस्थ ही नहीं बल्कि बीमार होकर भी सभी का ध्यान रख सदस्य का पूरा ध्यान रखती है। जब मैं सुबह चलने लगा तो माँ मेरा टिफिन तथा नाश्ता बनाकर ले आई।
उन्होंने मेरा बैग ठीक करके दिया। उन्होंने सभी के लिए नाश्ता बनाया। दोपहर में स्कूल से आया तो माँ को देखा कि वे उठ भी नहीं पा रही थीं। तब पिता जी ने खाना बनाया लेकिन वह बिलकुल कच्चा पका था। उनके खाने में कोई स्वाद नहीं आया। घर के प्रत्येक सदस्य ने मन मारकर खाया। रात को दूध गर्म किया तो उसमें हम चीनी डालना भूल गए। आज माँ के बिना पूरा घर अस्त-व्यस्त लग रहा था। चारों तरफ सामान बिखरा पड़ा था। सभी बहुत उदास हो गये। मैंने प्रभु से माँ के लिए जल्दी स्वस्थ होने की प्रार्थना की। प्रभु कृपा से अगले दिन माँ बिल्कुल स्वस्थ हो गई। उन्हें सुबह काम में लगा देखकर सभी का हृदय गद्-गद् हो उठा। ऐसा लग रहा था कि हमारे घर की खुशियाँ लौट आईं।
प्रश्न 19.
मैंने गर्मियों की छुट्टियाँ कैसे बितायीं
उत्तर
हमारे स्कूलों में हर साल जून में गर्मियों की छुट्टियाँ होती हैं। इन छुट्टियों में हर बच्चा खूब आनंद और मौज-मस्ती करता है। मुझे भी गर्मियों की छुट्टी अच्छी लगती हैं। मैं इन गर्मियों की छुट्टियों में माँ के साथ देहरादून घूमने गया। वहां मेरा ननिहाल है। वहां मेरे नाना-नानी तथा मामा-मामी रहते हैं। वहाँ जाते हुए मैं अपना स्कूल बैग भी साथ लेकर गया। मैं सुबह अपना गृह-कार्य करता। मेरे मामा जी मेरा कार्य करवाते थे। मैं रोज़ शाम . को अपने मामा जी के साथ बाहर घूमने जाता था। एक दिन मैं अपने मामा जी के साथ शिव मंदिर, साईं मंदिर तथा विष्णु मंदिर देखने गया। वहां के मंदिर बहुत सुंदर थे। इसके एक सप्ताह बाद मैं मसूरी घूमने गया।
मेरे मामा जी भी मेरे साथ थे। हम वहाँ बस से गये। जाते हुए रास्ते में शिव मंदिर पर रुककर मंदिर को देखा। उसके बाद मसूरी पहुंचे। वहाँ जाकर मैंने बर्फ से ढके पहाड़ों का खूब आनंद उठाया। मैंने वहाँ के प्रसिद्ध कैंप की फॉल को देखा। ऊँचाई से नीचे गिरता झरना मन को मोह लेता है। उसमें अपने मामा के साथ कंपनी बाग देखा। तीसरे सप्ताह मैं ऋषिकेश घूमने गया। मैंने वहाँ बहती गंगा को समीप से देखा। बहती गंगा बहुत सुंदर लग रही थी। छुट्टियाँ खत्म होने से दो दिन पहले हम वहाँ से लौट आए। सचमुच इन गर्मियों की छुट्टियों का मैंने खूब आनंद लिया।
प्रश्न 20.
जब मैं मॉल में शॉपिंग करने गयी
उत्तर
पिछले सप्ताह हमारे शहर में दून शॉपिंग मॉल खुला। मैं अपनी सखी के साथ वहां शॉपिंग करने गई। मैं जैसे ही उनके द्वार पर पहुंची तो उसकी बड़ी और सुंदर ईमारत को देखकर हैरान रह गई। उसमें पाँच मंजिलें थीं। प्रत्येक मंजिल पर विशेष खरीददारी का सामान सजा हुआ था, वहाँ ग्राउंड़ – फ्लोर पर रसोई का सारा सामान था। दूसरी मंजिल पर आधुनिक युग के रेडिमेड कपड़े सजे हुए थे। तीसरी मंजिल पर कास्मेटिक्स का सामान सजा हुआ था।
चौथी मंजिल पर इलेक्ट्रॉनिक्स तथा पाँचवीं मंजिल पर आभूषण का सामान था। मैंने इस शॉपिंग मॉल को अच्छी तरह देखा। मैं इस मॉल में एक पार्टी ड्रेस तथा जूते खरीदने गई थी। लेकिन वहाँ अलग-अलग प्रकार की ड्रेस देखकर मैं समझ ही नहीं पाई कि कौन-सी खरीदूं। फिर भी मैंने वहाँ से अपने लिए एक ड्रैस खरीदी। अपने मम्मी-पापा के लिए भी एक-एक ड्रेस खरीदी। मैंने अपनी छोटी बहन के लिए कुछ खिलौने भी लिए। इसके बाद हमने वहाँ घूमकर खूब आनंद लिया।
प्रश्न 21.
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’
उत्तर
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ इस सूक्ति का अर्थ है कि इस संसार में दूसरों को उपदेश देने वाले बहुत हैं किंतु अपने को उपदेश देने वाले कम हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि उसे केवल दूसरों को अवगुण नज़र आते हैं किंतु उसे अपने दोष भी गुण दिखाई देते हैं। इस तरह नज़रअंदाज करने से उसके दोष पक जाते हैं। ऐसे लोगों में अनेक तरह के दोष होते हैं लेकिन वे लंबे-चौड़े भाषण देकर उन्हें छिपा लेते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि जो अवगुण हम दूसरों में ढूँढ़ रहे हैं उससे कहीं ज्यादा हमारे अंदर भी छिपे हैं।
हमें दूसरों को उपदेश देने के नहीं बल्कि स्वयं अपने आपको देना चाहिए। जब ऐसे लोगों का पर्दाफाश होता है तब सच्चाई सामने आती है। तब उनके सामने पछतावे के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं रहता। इस संसार में जो स्वयं में झांककर देखते हैं जो अपने अवगुण देखकर उन्हें गुणों में बदल लेते हैं वहीं लोग महान बनते हैं। इसलिए हमें दूसरों को नहीं बल्कि स्वयं को उपदेश देना चाहिए। हमें दूसरों का नहीं अपना उपदेशक बनना चाहिए। हमें दीपक की तरह बनना चाहिए।
प्रश्न 22.
परीक्षा से एक दिन पूर्व
उत्तर
विद्यार्थी जीवन में परीक्षा का बहुत महत्त्व है। इस जीवन में प्रतिवर्ष ही नहीं बल्कि विद्यार्थी की हर पल परीक्षा होती है। जो विद्यार्थी इस परीक्षा .. में हर पल सफल होता है वही ऊँचाइयों को छूता है। कुछ विद्यार्थी परीक्षा से डर जाते हैं। इस बार परीक्षा से एक दिन पूर्व मैं भी थोड़ा-सा डर गया था। यद्यपि मैंने अपनी परीक्षा की पूरी तैयारी की थी किंतु फिर भी एक दिन पूर्व मुझे थोड़ी-सी घबराहट अवश्य हो रही थी। मुझे लग रहा था कि शायद मुझे सब कुछ याद नहीं है।
मेरी माता जी एवं पिता जी ने मेरा धैर्य बंधाया और मुझे इस परीक्षा में पास होने का आशीर्वाद दिया। उनका आशीर्वाद लेकर मेरा आत्मविश्वास जाग उठा। तब मुझे लगा कि मैं तो आज तक किसी भी परीक्षा में असफल नहीं हुआ। पिता जी ने कहा कि उन्हें मुझ पर गर्व हैं क्योंकि मैं सदा स्कूल में प्रथम रहा। इतना ही नहीं पिता जी ने मेरे साथ बैठकर मेरी करवाई दोहराई फिर मुझे कोई डर नहीं लगा। इसके बाद मैं अपना पेन, पेंसिल, रोल नंबर आदि सब चीजें बैग में रखकर शांत होकर सो गया।
प्रश्न 23.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
उत्तर
दुख-सुख सब कहूँ परत है पौरुष तजहु न मीत।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत॥
अर्थात् जीवन में सुख-दुःख सब पर आते-जाते हैं किंतु हमें अपना पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए। मनुष्य की हार-जीत तो मन पर निर्भर करती है जिसका मन हार गया तो हार है और यदि मन जीत गया तो उसकी सदा विजय ही होती है। जो मनुष्य जीवन में दुखों और मुसीबतों से डर जाता है उसे दुःख और मुसीबतें जकड़ लेती हैं। जो कठिन मुसीबतों में भी हार नहीं मानता और हिम्मत से उनका सामना करता है, वह सदा विजयी होता है। ऐसे व्यक्ति के सामने मुसीबतें भी घुटने टेक देती हैं। इस प्रकार मन ही मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। हमें अपने मन की शक्ति को समझना …. चाहिए। अपने मन में कभी भी नकारात्मक सोच नहीं लानी चाहिए। हमें सदैव सकारात्मक सोच रखनी चाहिए। जो मनुष्य सदा सकारात्मक सोचता है वह कभी भी हार नहीं मानता। उसे हर जगह विजय ही मिलती है। इसलिए हमें मन को अपने काबू में रखकर उसे मज़बूत बनाना चाहिए। यदि मन कमजोर पड़ गया तो हार और मजबूत हुआ तो अवश्य ही जीत होगी।
प्रश्न 24.
दहेज प्रथा : एक सामाजिक कलंक
उत्तर
हमारे समाज में विवाह के शुभ अवसर पर वधु पक्ष की ओर से वर पक्ष को जो संपत्ति उपहार के रूप में दी जाती है, उसे दहेज कहा जाता हत प्राचीन है। पहले माता-पिता अपनी कन्या को कुछ वस्तुएँ अपनी इच्छा से उपहार के रूप में देते थे किंतु आजकल यह प्रथा एक बुरा रूप धारण कर चुकी है। यह हमारे समाज पर कलंक बन गई है। आजकल वर पक्ष वाले वधू पक्ष से मुँह खोलकर बड़ी-बड़ी वस्तुओं और बड़े दहेज की मांग करने लगे हैं। अनेक लोग तो अपने बच्चों की बोली तक लगाने लगे हैं। उन्हें अपने लड़कों की बोली लगाने में कोई शर्म नहीं आती। यदि वधू पक्ष वर पर की मांगों को पूरा नहीं करता तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है।
कुछ लोग तो वधुओं को अनेक कठोर यातनाएँ भी देते हैं। यहाँ तक सास अपनी बहुओं को जलाकर मार देती हैं। इसी से तंग आकर कुछ लड़कियाँ आत्महत्या तक भी कर लेती है। इस प्रकार दहेज प्रथा एक सामाजिक कलंक का रूप धारण कर चुकी है। इस सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए युवाओं को आगे आना चाहिए। उन्हें प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि वे बिना दहेज ही शादी करेंगे। जब हमारे समाज का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को कहेगा कि न हम दहेज देंगे और न लेंगे तभी इस समस्या को पूरी तरह से दूर किया जा सकता है। .
प्रश्न 25.
जल के प्रयोग में व्यावहारिकता
उत्तर
‘जल ही जीवन है’ यह बात बिल्कुल सच है क्योंकि बिना जल के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस संसार में जल का कोई विकल्प नहीं है। यह प्रकृति की अनूठी भेंट है। हवा के बाद जल ही जीवन रक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है। पर आजकल हम जल की हरपल बर्बादी कर रहे हैं। हम इस बात को नहीं समझ रहे कि यह जल की बर्बादी नहीं बल्कि इससे हमारा जीवन ही बर्बाद हो रहा है। इसलिए हमें जल का प्रयाग सोच-समझकर करना चाहिए। नहाते समय ज़रूरत के अनुसार जल गिराना चाहिए। नहाने के लिए सीधे नल न खोलकर बाल्टी का प्रयोग करना चाहिए। हाथ-पैर धोते समय व्यर्थ पानी नहीं बहाना चाहिए।
कपड़े धोने के लिए कम-से-कम जल का प्रयोग करना चाहिए। अपने घर, स्कूल आदि के नल कभी भी खुले नहीं छोड़ने चाहिए। अपनी गाड़ियाँ धोने के लिए अमूल्य जल को नष्ट नहीं करना चाहिए। बाग बगीचे में पाइप की अपेक्षा फव्वारे से पानी देना चाहिए। रसोईघर में बर्तन साफ करने और सब्जियां धोते समय व्यर्थ जल नहीं बहाना चाहिए। घर का फर्श धोते समय जल को नहीं बहाना चाहिए। किसी भी जगह पर नल को खुला चलते देखकर उसे बंद कर देना चाहिए अथवा उसकी सूचना तुरंत नज़दीकी जल विभाग से देनी चाहिए। अपने नल खराब होने पर उसी समय ठीक करवाने चाहिए। इस प्रकार हमें सदा जल का सदुपयोग करना चाहिए।
प्रश्न 26.
मेरी दिनचर्या
उत्तर
प्रतिदिन किए जाने वाले कार्य को दिनचर्या कहते हैं। मैं प्रतिदिन सुबह पाँच बजे उठता हूँ। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए सबसे अच्छा साधन व्यायाम है। व्यायामों में सबसे सरल और लाभदायक व्यायाम प्रात:भ्रमण ही है इसलिए मैं प्रतिदिन भ्रमण के लिए जाता हूँ। प्रात:काल भ्रमण के अनेक लाभ हैं। इससे हमारा स्वास्थ्य उत्तम होता है। इसके बाद कुछ योगासन करता हूँ। मैंने अपनी दिनचर्या बड़े क्रमबद्ध तरीके से बनाई हुई। योगासन के बाद स्नान आदि से निवृत्त होकर नाश्ता करता हूँ।
फिर अपना बस्ता तैयार करके स्कूल के लिए साइकिल पर निकल जाता हूँ। दोपहर दो बजे तक विद्यालय पढ़ाई करने के बाद घर आकर भोजन करता हूँ। शाम को दोस्तों के साथ खेलने के लिए पार्क में जाता हूँ। वहाँ हम सभी दोस्त मिलकर खेलते हैं। इसके बाद घर आकर अपना पढ़ाई का काम करता हूँ। फिर कुछ देर टी० वी० भी देखता हूँ। इतने में माँ रात का भोजन लगा देती है। रात का भोजन करने के बाद मैं बिस्तर में जाकर सो जाता हूँ।
प्रश्न 27.
मेरी पहली हवाई यात्रा
उत्तर
मानव जीवन में प्राय: ऐसी रोमांचक घटनाएँ घटित होती हैं जो मानव को सदैव याद रह जाती हैं। ऐसे कुछ क्षण, ऐसी कुछ यादें ऐसी कुछ यात्राएँ जिन्हें मनुष्य सदा याद कर रोमांचित हो उठता है। बैंगलुरु की हवाई यात्रा मेरे जीवन की एक ऐसी ही रोमांचकारी यात्रा थी। जो सदैव मुझे याद रहेगी। मुझे अच्छी तरह याद है कि वह जनवरी का महीना था। हमारी अर्द्धवार्षिक परीक्षा हो चुकी थी।
हम घर पर छुट्टियों का आनंद उठा रहे थे कि एक दिन पिता जी दफ्तर से घर आए और कहा कि हम सब दो दिन बाद बैंगलुरु घूमने जा रहे हैं। उन्होंने इसके लिए पूरे परिवार की जेट एयर से उड़ान की टिकट बुक करवा ली थीं। ये सुनते ही मेरी खुशी का तो कोई ठिकाना न था। निश्चित दिन हम सभी टैक्सी से एयरपोर्ट पहुँच बावजूद भी मुंशी प्रेमचंद दुनिया के अमर उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। इसी प्रकार अनेक क्रिकेटर, खिलाड़ी, संगीतकार, नेता, अभिनेता, गायक आदि हुए हैं जो अपने अकादमिक रूप में नहीं बल्कि अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध हैं। सचमुच परीक्षा में केवल अच्छे अंक पाना ही जीवन में सफलता की प्राप्ति का मापदंड नहीं है।
गए। काउंटर पर हमने अपना सामान जमा करवाया। कंप्यूटर से सारे सामान की जाँच हुई। उसके बाद हमें यात्री पास मिले। हमारी भी चेकिंग हुई। इसके बाद हम विमान के अंदर गए। वहाँ विमान परिचारिकाओं ने हमें हमारी निश्चित सीट पर बैठाया। उड़ान से पूर्व हमें बताया गया कि हमारी उड़ान कहाँ और कितनी देर की है। हमें सीट बेल्ट बाँधने को कहा गया। मेरी सीट खिड़की के साथ थी। मैं आकाश से धरती के लगातार बदलते रूपों को देख रहा था। यह एक ऐसा निर्वचनीय आनंद था जिसकी अनुभूति तो हो सकती है पर वर्णन नहीं। यह मेरे जीवन की एक रोमांचक यात्रा भी जिसे मैं कभी नहीं भुला सकता।
प्रश्न 28.
मेरे जीवन का लक्ष्य
उत्तर
संसार में प्रत्येक मनुष्य के जीवन का कोई-न-कोई लक्ष्य अवश्य होता है। एक मनुष्य एवं सामाजिक प्राणी होने के नाते मैंने भी अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है। मैं बड़ा होकर एक आदर्श अध्यापक बनना चाहता हूँ और अध्यापक के रूप में अपने कर्तव्यों को निभाता हुआ अपने राष्ट्र की सेवा करना चाहता हूँ। मैं आदर्श शिक्षक बनकर अपने राष्ट्र की भावी पीढ़ी के बौद्धिक स्तर को उच्च स्तर पर पहुँचाना चाहता हूँ ताकि मेरे देश की युवा पीढ़ी कुशल, विवेकशील, कर्मनिष्ठ बन सके और मेरा देश फिर से शिक्षा का सिरमौर बन सके। फिर से हम विश्व-गुरु की उपाधि को ग्रहण कर सकें। विद्यार्थी होने के कारण मैं भली-भांति जानता हूँ कि किसी अध्यापक का विद्यार्थियों पर कैसा प्रभाव पड़ता है। कोई अच्छा अध्यापक उनको उच्छी दिशा दे सकता है। मैं भी ऐसा करके देश के युवा वर्ग को नई दिशा देना चाहता हूँ।
प्रश्न 29.
हम घर में सहयोग कैसे करें ?
उत्तर
मानव एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसे अपने जीवन-यापन हेतु समाज में दूसरों से किसी-न-किसी कार्य के लिए सहयोग लेना और देना पड़ता है। मानवीय जीवन में सहयोग का बहुत महत्त्व है। हमें इसका प्रारंभ अपने घर से ही करना चाहिए। हमें अपने घर में प्रत्येक सदस्य के साथ सहयोगपूर्ण भावना से मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए जैसे माता-पिता अपना सब कुछ समर्पित करके घर को चलाते हैं। पिता जी सुबह से शाम तक कठिन परिश्रम करते हैं और माता जी सुबह से लेकर रात तक साफ-सफाई, भोजन बनाना, बर्तन धोना आदि घर के अनेक कार्यों को निपटाने में लगी रहती हैं।
इसलिए हमें भी घर के किसी-न-किसी कार्य में माता-पिता का सहयोग ज़रूर करना चाहिए। हम अनेक छोटे-बड़े कार्यों में माता पिता का सहयोग कर सकते हैं; जैसे-दुकान से फल-सब्जियां तथा रसोई का सामान लाना, लांड्री से कपड़े लाना, खाना परोसना आदि। हम अपने छोटे भाई-बहनों को उनके पढ़ाने में उनकी मदद कर सकते हैं। अपने बगीचे की साफ-सफाई तथा घर की सफाई में सहयोग दे सकते हैं। पौधों में खाद-पानी दे सकते हैं तथा उनकी नियमित देख-रेख कर सहयोग दे सकते हैं। इस प्रकार घर में सहयोग की भावना का विकास होगा जिससे पारस्परिक सद्भाव एवं प्रेम की भावना बढ़ेगी और घर खुशहाल बन जाएगा।
प्रश्न 30.
गाँव का खेल मेला
उत्तर
मेले भारतीय संस्कृति की अनुपम पहचान हैं। ग्रामीण संस्कृति में इनका विशेष महत्त्व है। हमारे गाँव में प्रति वर्ष खेल मेले का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष भी हमारे गाँव में मई मास में खेल मेले का धूमधाम से आयोजन किया गया। इस अवसर पर पूरे गाँव को दुल्हन की तरह सजाया गया था। गाँव की प्रत्येक गली में बड़ी-बड़ी लाइटें तथा ध्वनि यंत्र लगाए गए। खेल मैदान में दर्शकों के लिए बैठने की विशेष सुविधा की गई थी। मैदान में चारों तरफ लाइटों का भी विशेष प्रबंध था।
इस मेले का उद्घाटन राज्य खेल मंत्री के कर कमलों से हुआ। खेल प्रारंभ होने से पूर्व खेल मंत्री ने सभी टीमों से मुलाकात की तथा उन्हें संबोधित करते हुए कहा कि खिलाड़ियों को खेल-भावना से खेलना चाहिए। प्रथम दिवस कबड्डी, खो-खो तथा साइकिल दौड़ का आयोजन किया गया तथा दूसरे दिन सौ-दो सौ तथा पाँच सौ मीटर दौड़ आयोजित की गई। क्रिकेट मैच ने सब दर्शकों का मन मोह लिया। खेल मेले के समापन अवसर पर मुख्य अतिथि शिक्षा अधिकारी ने प्रत्येक वर्ग में प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पर रहे सभी खिलाड़ियों को मेडल प्रदान किए। वास्तव में हमारे गाँव का खेल मेला अत्यंत रोचक, मनोरंजकपूर्ण रहा। यह हमारे लिए अविस्मरणीय रहेगा।
प्रश्न 31.
परीक्षा में अच्छे अंक पाना ही सफलता का मापदंड नहीं
उत्तर
परीक्षा में विद्यार्थियों के धैर्य और वर्षभर किए गए परिश्रम की परख होती है। यह सत्य है कि परीक्षा में सभी विद्यार्थियों की अच्छे अंक पाने की कामना होती है और अच्छे अंक प्राप्त करने से उनका सभी जगह सम्मान होता है। इससे विद्यार्थी का आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास बढ़ता है। उसकी स्वर्णिम भविष्य की राहें आसान हो जाती हैं। किंतु परीक्षा में अच्छे अंक पाना ही सफलता का मापदंड नहीं हैं क्योंकि सफलता केवल अच्छे अंकों से ही प्राप्त नहीं होती बल्कि सफलता के इसके अतिरिक्त कई पहलू और भी हैं।
सफलता के लिए आत्मविश्वास, साहस, विवेक, इच्छाशक्ति, सकारात्मक सोच होनी चाहिए। कम अंक पाने वाले लोग भी इन बिंदुओं के आधार पर सफलता की ऊँचाइयों को छू सकते हैं। इसके लिए आदमी को अपनी क्षमता की पहचान अवश्य होनी चाहिए। दुनिया में ऐसे बहुत उदाहरण हैं जिन्हें कम अंक पाने के बावजूद भी श्रेष्ठ स्तर की सफलता को प्राप्त किया है। दुनिया के श्रेष्ठ वैज्ञानिक आइंस्टाइन स्कली स्तर पर औसत विद्यार्थी रहे लेकिन आगे चल तरह मुंशी प्रेमचन्द ने दसवीं की परीक्षा मुश्किल से द्वितीय श्रेणी में पास की और कई बार फेल होने के बाद बी०ए० की परीक्षा पास की थी। इसके
प्रश्न 32.
ज्ञान वृद्धि का साधन-भ्रमण
उत्तर
संसार में ज्ञान-वृद्धि और ज्ञानार्जन के अनेक साधन हैं। पाठ्य-पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ आदि पढ़कर तथा अनेक स्थलों की यात्राएँ करके भी ज्ञान . प्राप्त किया जा सकता है। रेडियो, टेलीविजन सुन-देखकर भी देश-विदेश की अनेक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। किन्तु भ्रमण ज्ञान वृद्धि का अनुपम साधन है। यह ज्ञानवृद्धि के साथ-साथ आनंद और मौज-मस्ती का अनूठा साधन है। ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थलों के भ्रमण से ज्ञानवृद्धि ही नहीं, मन की शांति, आत्मिक प्रसन्नता और सौंदर्यानुभूति भी प्राप्त होती है। इसी तरह नदियों, पर्वतों, झरनों, वनों, तालाबों आदि के भ्रमण से प्राकृतिक सौंदर्य का ज्ञान एवं आनंद ग्रहण किया जा सकता है। भ्रमण से मनुष्य को चहँमुखी ज्ञान की प्राप्ति होती है। उसके आत्मविश्वास को बढ़ावा मिलता है वस्तुतः भ्रमण ज्ञान वृद्धि का साधन है।
प्रश्न 33.
प्रकृति का वरदान : पेड़-पौधे
उत्तर
प्रकृति ने संसार को अनेक अनूठे उपहार भेंट किए हैं। पेड़-पौधे प्रकृति का अनूठा वरदान है। पेड़-पौधे संपूर्ण जीव-जगत के जीवन का मूलाधार हैं। ये पर्यावरण को साफ, स्वच्छ एवं सुंदर बनाते हैं। ये कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन दूसरों को देते हैं। इस ऑक्सीजन से सम्पूर्ण प्राणी जगत सांस लेता है। पेड़-पौधे स्वयं सूर्य की तपन को सहन कर दूसरों को छाया प्रदान करते हैं। वे अपने फल स्वयं कभी नहीं खाते बल्कि उन्हें भी हमें ही दे देते हैं।
वे इतने विन्रम होते हैं कि फल आने पर स्वयं ही नीचे की तरफ झुक जाते हैं। पेड़-पौधे वातावरण को शुद्ध बनाते हैं। धरा की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाते हैं। भूमि को पानी के कटाव से रोकते हैं। पेड़-पौधों से हमें लकड़ियाँ, औषधियाँ, छाल आदि अनेक अमूल्य उपहार प्राप्त होते हैं। संभवतः पेड़-पौधे प्रकृति का अनूठा वरदान हैं। हमें भी पेड़-पौधों का संरक्षण करना चाहिए। अधिक-से-अधिक पेड़-पौधे लगाने चाहिए।
प्रश्न 34.
अपने नए घर में प्रवेश
उत्तर
मैंने बचपन में एक सपना देखा था कि हमारा नया घर होगा जिसमें हम सपरिवार खुशी से रहेंगे। मेरा यह सपना गत सप्ताह पूर्ण हुआ। पिछले सप्ताह ही हमारा नया घर बनकर तैयार हुआ जिसमें घर के अनुरूप नए पर्दै, फर्नीचर आदि लगवाया गया। सोमवार को हमारा गृह-प्रवेश था जिसमें हमने अपने सभी मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों को सादर आमंत्रित किया था। इस अवसर पर सुबह सात बजे ही पंडित जी ने पूजा विधान का कार्यक्रम आरंभ कर दिया।
इसके बाद हवन-यज्ञ किया गया जिसमें परिवार के सभी लोग सम्मिलित हुए। पंडित जी ने नारियल फोड़कर परिवार से गृह-प्रवेश करवाया। पूजा-विधान के पश्चात् दोपहर के भोजन का प्रबंध किया गया था। हमारे सभी मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने आनंदपूर्वक भोजन किया और जाते समय सभी ने गृह-प्रवेश पर लाखों बधाइयां दीं। हमने सपरिवार सभी मेहमानों का धन्यवाद किया। वास्तव में नए गृह-प्रवेश के अवसर पर हम सब बहुत उत्साहित थे।
प्रश्न 35.
कैरियर चुनाव में स्वमूल्यांकन
उत्तर
कैरियर चुनाव मानव-जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि कैरियर चुनाव की सार्थकता ही मानव-जीवन की सफलता की सीढ़ी है। यह वर्तमान युवा वर्ग की सबसे बड़ी चुनौती है। यह बात सच है कि कैरियर के चुनाव में माता-पिता, मित्र, रिश्तेदार आदि अनेक लोगों की राय होती हैं किंतु कैरियर चुनाव में स्वमूल्यांकन सर्वोत्तम है। युवा वर्ग को अपने विद्यार्थी जीवन के प्रारंभ से ही इसकी जानकारी होनी चाहिए। उसे प्रारंभ से स्वमूल्यांकन कर लेना चाहिए।
अपनी पसंद, क्षमता, पुरुषार्थ, विवेक, बुद्धि कौशल और आत्म-विश्वास को ध्यान में रखकर अपने कैरियर का चुनाव करना अति महत्त्वपूर्ण है। यदि विद्यार्थी अपनी क्षमता, पुरुषार्थ, विवेक बुद्धि-कौशल और आत्मविश्वास को ध्यान में रखकर अपने कैरियर का चुनाव करता है तो वह अवश्य ही सफल होता है। उसे अपने कैरियर के चुनाव में किसी बात की कोई कठिनाई नहीं आती। वह अपनी रुचि के अनुकूल अपना कैरियर बनाने में सफल हो सकता है। अतः कैरियर चुनाव में दूसरों की राय की अपेक्षा स्वमूल्यांकन अत्यावश्यक है।
प्रश्न 36.
विद्यार्थी और अनुशासन
उत्तर
विद्यार्थी और अनुशासन एक-दूसरे के पूरक हैं। यूं कहें कि अनुशासन ही विद्यार्थी जीवन की नींव है। विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का बहुत महत्त्व है। अनुशासित विद्यार्थी ही सफलता की ऊंचाई को छूने में सफल होता है जो विद्यार्थी अपने जीवन में अनुशासन को नहीं अपनाता वह कभी भी सफल नहीं होता बल्कि अपने जीवन को ही बर्बाद कर लेता है। बिना अनुशासन के विद्यार्थी जीवन कटी-पतंग के समान होता है जिसका कोई लक्ष्य नहीं होता। जो विद्यार्थी अपने विद्यालय के प्रांगण में रहकर प्रतिक्षण अनुशासन का पालन करता है। अपने शिक्षकों का आदर करता है और … इतना ही नहीं जीवन में हर पल नियमों-अनुशासन में बंधकर चलता है; वह कदापि निष्फल नहीं हो सकता। सफलता उसके कदम अवश्य ही चूमती है। इसलिए विद्यार्थी को कभी भी अनुशासन भंग नहीं करना चाहिए बल्कि सदैव अनुशासन का पालन करना चाहिए। एक अनुशासित विद्यार्थी ही राष्ट्र का आदर्श नागरिक बनता है और देश के चहुँमुखी विकास में अपना योगदान देता है।
प्रश्न 37.
कोचिंग संस्थानों का बढ़ता जंजाल
उत्तर
वर्तमान युग कंपीटीशन का युग है। आज हर क्षेत्र में प्रतियोगिता है। आज के विद्यार्थी को पग-पग पर अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है। मेडिकल, सेना, कानून, प्रशासनिक सेवाओं, इंजीनियरिंग आदि कोसों में प्रवेश लेने के लिए अलग-अलग परीक्षाएँ देनी पड़ती हैं। इतना ही नहीं अनेक प्रकार की नौकरियां पाने के लिए भी आजकल प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं जिनके पास करने के उपरांत ही प्रतियोगी को आगे बढ़ने का मौका मिलता है। आज के युग में प्रतियोगिता निरन्तर बढ़ती जा रही है। एक-एक सीट पर दाखिला लेने और नौकरी पाने के लिए हज़ारों-लाखों प्रतियोगी पंक्तिबद्ध होकर प्रतीक्षा में रहते हैं जिसके चलते आज कोचिंग संस्थानों की भरमार हो रही है।
चूंकि हर कोई अपने को सिद्ध करने के लिए कोचिंग संस्थानों की ओर भागता है। परिणामस्वरूप छोटे से लेकर बड़े शहरों तक कोचिंग संस्थानों ने अपना जाल बिछा दिया है। दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु जैसे शहरों में तो जगह-जगह बड़े-बड़े संस्थान खुले हुए हैं जिनमें लाखों लोग पढ़ रहे हैं। ये संस्थान लाखों की फीस ऐंठकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं क्योंकि कोचिंग से बढ़कर स्वाध्ययन ज़रूरी है। स्वाध्ययन से ही प्रतियोगी के अंदर आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न होती है और आत्मविश्वास ही सफलता होती है। इसलिए हमें स्वाध्ययन को ही आधार बनाना चाहिए।
प्रश्न 38.
मैंने लोहड़ी का त्योहार कैसे मनाया ?
उत्तर
लोहड़ी भारतीय संस्कृति का पवित्र और महत्त्वपूर्ण त्योहार माना जाता है। यह प्रतिवर्ष 13 जनवरी को संपूर्ण भारत वर्ष में बड़े हर्षोल्लास एवं मौज-मस्ती के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष मैंने लोहड़ी का त्योहार अपने मामा जी के घर अमृतसर में मनाया। मैं एक दिन पहले ही अपने मामा जी के घर पहुंच गया था। लोहड़ी वाले दिन सुबह से ही ढोल-नगाड़े बजने प्रारंभ हो गए थे। सब गले मिलकर एक-दूसरे को पावन पर्व की बधाइयाँ दे रहे थे। मैंने भी अपने भाई के साथ मिलकर पूरे मोहल्ले वालों को बधाइयां दी। सब लोग एक-दूसरे के घर मिठाइयां, रेवड़ी, मूंगफली बांट रहे थे। उस दिन शाम को मोहल्ले के बीच में सबने अपने-अपने घर से लकड़ियाँ लाकर बड़ा ढेर लगा दिया।
सभी उसके चारों तरफ इकट्ठे हो गए। पूरी श्रद्धा एवं आनंद के साथ लकड़ियों में अग्नि प्रज्वलित की गई। तत्पश्चात् सबने लोहड़ी की पूजा अर्चना की। सब उसकी परिक्रमा कर रहे थे और गीत गा रहे थे। पूजा के बाद सबको रेवड़ी, मूंगफली आदि का प्रसाद बांटा गया। इसके बाद ढोल-नगाड़े बजने लगे तो सभी लोग झूम उठे। लड़कियाँ गिद्दा पाने लगी तो लड़के भांगड़ा करने लगे। सचमुच यह लोहड़ी का त्योहार मैंने खूब आनंदपूर्वक मनाया। यह मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा।
प्रश्न 39.
जनसंचार के माध्यम
उत्तर
वर्तमान युग विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं भूमंडलीकरण का युग है। आज के युग में जनसंचार के क्षेत्र में क्रांति-सी आ गई है। आज पहले की अपेक्षा जनसंचार के आधुनिक एवं अनेक साधन हैं जिनसे हम दूसरों तक अपनी बात को आसानी से पहँचा सकते हैं। अब तो जनसंचार के लिए मोबाइल फोन हर व्यक्ति की जेब में सदा विद्यमान रहता है जिससे आप देश-विदेश कहीं भी बात कर सकते हो, संदेश प्राप्त कर सकते हो या उन्हें कहीं भी भेज सकते हो। इंटरनेट की सुविधा ने तो पूरे संसार को एक गाँव में बदल कर रख दिया है। पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न, … मोबाइल, टेलीफोन, इंटरनेट, ई-मेल, फैक्स आदि जनसंचार के विभिन्न माध्यम हैं। जनसंचार के इन माध्यमों को हम अनेक वर्गों में बांट सकते हैं। मौखिक और लिखित। दृश्य और श्रव्य तथा दृश्य एवं श्रव्य दोनों। इन सभी माध्यमों का देश के शिक्षा, व्यापार, व्यवसाय, मनोरंजन आदि क्षेत्रों में अनूठा योगदान है।
प्रश्न 40.
भ्रूण हत्या : एक जघन्य अपराध
उत्तर
आज हमारे देश में दहेज प्रथा, बाल विवाह, जनसंख्या वृद्धि, कन्या भ्रूण हत्या आदि अनेक समस्याएँ हैं जिनमें कन्या भ्रूण हत्या एक भयंकर समस्या है। यह एक ऐसा जघन्य अपराध है जो देश की महानता और गौरव-गरिमा को धूमिल कर रहा है। वैज्ञानिक उन्नति ने इस अपराध को बढ़ावा देने का कार्य किया है। मेडिकल क्षेत्र में नवीन खोज़ से जो बड़ी-बड़ी और अति आधुनिक अल्ट्रासाऊंड मशीनें आई हैं जिनका उपयोग जनकल्याण कार्यों के लिए किया जाना था।
आज कुछ स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उनका गलत कार्यों के लिए उपयोग कर रहे हैं। वे माता-पिता को जन्म से पूर्व ही अल्ट्रासांऊड के माध्यम से यह बता देते हैं कि गर्भ में पल रहा भ्रूण बेटा है अथवा बेटी। हालांकि ऐसा करना हमारे देश में कानूनी अपराध है किन्तु फिर भी कुछ लोग अपने लालच के कारण ऐसा कर रहे हैं जिससे माता-पिता एक बेटे की चाह में उस कन्या को जन्म से पहले ही गर्भ में मरवा देते हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि देश में लड़कियों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सरकार को कड़े कानून बनाने चाहिए। इसके लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति को कड़ी सजा देनी चाहिए।
प्रश्न 41.
मेरी माँ की ममता
उत्तर
माँ का रिश्ता दुनिया के सब रिश्तेनातों से ऊपर है, इस बात से कौन इनकार कर सकता है। माँ को हमारे शास्त्रों में भगवान् माना गया है। जैसे री रक्षा, हमारा पालन-पोषण और हमारी हर इच्छा को पूरा करते हैं वैसे ही माँ भी हमारी रक्षा, पालन-पोषण और स्वयं कष्ट सहकर हमारी सब इच्छाओं को पूरा करती है। इसलिए कहा गया है कि माँ के कदमों में स्वर्ग है। मुझे भी अपनी माँ दुनिया में सबसे प्यारी है। वह मेरी हर ज़रूरत का ध्यान रखती है। मैं भी अपनी माँ की सेवा करता हूँ। मेरी माँ घर में सबसे पहले उठती है। उठकर वह घर की सफ़ाई करने के बाद … स्नान करती है और पूजा-पाठ से निवृत्त होकर हमें जगाती है।
जब तक हम स्नानादि करते हैं, माँ हमारे लिए नाश्ता तैयार करने में लग जाती है। नाश्ता तैयार करके वह हमारे स्कूल जाने के लिए कपड़े निकालकर हमें देती है। जब हम स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाते हैं तो वह हमें नाश्ता परोसती है। स्कूल जाते समय वह हमें दोपहर के भोजन के लिए कुछ खाने के लिए डिब्बों में बंद करके हमारे बस्तों में रख देती है। स्कूल में हम आधी छुट्टी के समय मिलकर भोजन करते हैं।
कई बार हम अपना खाना एक-दूसरे से भी बाँट लेते हैं। मेरे सभी मित्र मेरी माँ के बनाए भोजन की बहुत तारीफ़ करते हैं। सचमुच मेरी माँ बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाती है। मेरी माँ हमारे सहपाठियों को भी उतना ही प्यार करती हैं जितना हमसे। मेरे सहपाठी ही नहीं हमारे मुहल्ले के सभी बच्चे भी उनका आदर करते हैं। हम सब भाई-बहन अपनी माँ का कहना मानते हैं। छुट्टी के दिन हम घर की सफ़ाई में अपनी माँ का हाथ बँटाते हैं। मेरी माँ इतनी अच्छी है कि मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि उस जैसी माँ सबको मिले।
प्रश्न 42.
मेले की सैर
उत्तर
भारत एक त्योहारों का देश है। इन त्योहारों को मनाने के लिए जगह-जगह मेले लगते हैं। इन मेलों का महत्त्व कुछ कम नहीं है। किंतु पिछले दिनों मुझे जिस मेले को देखने का सुअवसर मिला वह अपने आप में अलग ही था। भारतीय मेला प्राधिकरण तथा भारतीय कृषि और अनुसंधान परिषद के सहयोग से हमारे नगर में एक कृषि मेले का आयोजन किया गया था। भारतीय कृषि विश्वविद्यालयों का इस मेले में सहयोग प्राप्त किया गया था। इस मेले में विभिन्न राज्यों ने अपने-अपने मंडप लगाए थे।
उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार और महाराष्ट्र के मंडपों में गन्ने और गेहूँ की पैदावार से संबंधित विभिन्न चित्रों का प्रदर्शन किया गया था। केरल, गोवा के काजू और मसालों, असम में चाय, बंगाल में चावल, गुजरात, मध्य प्रदेश और पंजाब में रूई की पैदावार से संबंधित सामग्री प्रदर्शित की थी। अनेक व्यावसायिक एवं औद्योगिक कंपनियों ने भी अपने अलग-अलग मंडप सजाए थे। इसमें रासायनिक खाद, ट्रैक्टर, डीज़ल पंप, मिट्टी खोदने के उपकरण, हल, अनाज की कटाई और छटाई के अनेक उपकरण प्रदर्शित किए गए थे। यह मेला एशिया में अपनी तरह का पहला मेला था। इसमें अनेक एशियाई देशों ने भी अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए मंडप लगाए थे।
इनमें जापान का मंडप सबसे विशाल था। इस मंडप को देखकर हमें पता चला कि जापान जैसा छोटा-सा देश कृषि के क्षेत्र में कितनी उन्नति कर चुका है। हमारे प्रदेश के बहुत-से कृषक यह मेला देखने आए थे। मेले में उन्हें अपनी खेती के विकास संबंधी काफ़ी जानकारी प्राप्त हुई। इस मेले का सबसे बड़ा आकर्षण था मेले में आयोजित विभिन्न प्रांतों के लोकनृत्यों का आयोजन। सभी नृत्य एक से बढ़कर एक थे। मुझे पंजाब और हिमाचल प्रदेश के लोकनृत्य सबसे अच्छे लगे। इन नृत्यों को आमने-सामने देखने का मेरा यह पहला ही अवसर था।
प्रश्न 43.
प्रदर्शनी अवलोकन
उत्तर
पिछले महीने मुझे दिल्ली में अपने किसी मित्र के पास जाने का अवसर प्राप्त हुआ। संयोग से उन दिनों दिल्ली के प्रगति मैदान में एक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी चल रही थी। मैंने अपने मित्र के साथ इस प्रदर्शनी को देखने का निश्चय किया। शाम को लगभग पाँच बजे हम प्रगति मैदान पहुँचे। प्रदर्शनी के मुख्य द्वार पर हमें यह सूचना मिल गई कि इस प्रदर्शनी में लगभग तीस देश भाग ले रहे हैं। हमने देखा की सभी देशों ने अपने-अपने पंडाल बड़े कलात्मक ढंग से सजाए हुए हैं। उन पंडालों में उन देशों की निर्यात की जाने वाली वस्तुओं का प्रदर्शन किया जा रहा था। अनेक भारतीय कंपनियों ने भी अपने-अपने पंडाल सजाए हुए थे। प्रगति मैदान किसी दुल्हन की तरह सजाया गया था। प्रदर्शनी में सजावट और रोशनी का प्रबंध इतना शानदार था कि अनायास ही मन से वाह निकल पड़ती थी। प्रदर्शनी को देखने के लिए आने वालों की काफ़ी भीड़ थी।
हमने प्रदर्शनी के मुख्य द्वार से टिकट खरीदकर भीतर प्रवेश किया। सबसे पहले हम जापान के पंडाल में गए। जापान ने अपने पंडाल में कृषि, दूर-संचार, कंप्यूटर आदि से जुड़ी वस्तुओं का प्रदर्शन किया था। हमने वहाँ इक्कीसवीं सदी में टेलीफ़ोन एवं दूर-संचार सेवा कैसी होगी इसका एक छोटा-सा नमूना देखा। जापान ने ऐसे टेलीफ़ोन का निर्माण किया था जिसमें बातें करने वाले दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की फ़ोटो भी देख सकेंगे। वहीं हमने एक पॉकेट टेलीविज़न भी देखा जो माचिस की डिबिया जितना था। सारे पंडाल का चक्कर लगाकर हम बाहर आए। उसके बाद हमने दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी के पंडाल देखे।
उस प्रदर्शनी को देखकर हमें लगा कि अभी भारत को उन देशों का मुकाबला करने के लिए काफ़ी मेहनत करनी होगी। हमने वहाँ भारत में बनने वाले टेलीफ़ोन, कंप्यूटर आदि का पंडाल भी देखा। वहाँ यह जानकारी प्राप्त करके मन बहुत खुश हुआ कि भारत दूसरे बहुत-से देशों को ऐसा सामान निर्यात करता है। भारतीय उपकरण किसी भी हालत में विदेशों में बने सामान से कम नहीं थे। हमने प्रदर्शनी में ही बने रेस्टोरेंट में – चाय-पान किया और इक्कीसवीं सदी में दुनिया में होने वाली प्रगति का नक्शा आँखों में बसाए विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में होने वाली अत्याधुनिक जानकारी प्राप्त करके घर वापस आ गए।
प्रश्न 44.
नदी किनारे एक शाम
उत्तर
गर्मियों की छुट्टियों के दिन थे। स्कूल जाने की चिंता नहीं थी और न ही होमवर्क की। एक दिन चार मित्र एकत्र हुए और सभी ने यह तय किया कि आज की शाम नदी किनारे सैर करके बिताई जाए। कुछ तो गर्मी से राहत मिलेगी, कुछ प्रकृति के सौंदर्य के दर्शन करके मन खुश होगा। एक ने कही दूजे ने मानी के अनुसार हम सब लगभग छह बजे के करीब एक स्थान पर एकत्र हुए और पैदल ही नदी की ओर चल पड़े। दिन अभी ढला नहीं था बस ढलने ही वाला था।
ढलते सूर्य की लाल-लाल किरणें पश्चिम क्षितिज पर ऐसे लग रही थीं मानो प्रकृति रूपी युवती लाल-लाल वस्त्र पहने मचल रही हो। पक्षी अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगे थे। खेतों में हरियाली छायी हुई थी। ज्यों ही हम नदी किनारे पहुँचे सूर्य की सुनहरी किरणें नदी के पानी पर पड़ती हुई बहुत भली प्रतीत हो रही थीं। ऐसे लगता था मानों नदी के जल में हजारों लाल कमल एक साथ खिल उठे हों। नदी तट पर लगे वृक्षों की पंक्ति देखकर ‘तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए’ कविता की पंक्ति याद हो आई।
नदी तट के पास वाले जंगल से ग्वाले पशु चराकर लौट रहे थे। पशुओं के पैरों से उठने वाली धूलि एक मनोरम दृश्य उपस्थित कर रही थी। हम सभी मित्र बातें कम कर रहे थे, प्रकृति के रूप रस का पान अधिक कर रहे थे। थोड़ी ही देर में सूर्य अस्ताचल की ओर में जाता हुआ प्रतीत हुआ। नदी का जो जल पहले लाल-लाल लगता था अब धीरे-धीरे नीला पड़ना शुरू हो गया था। उड़ते हुए बगुलों की सफ़ेद-सफ़ेद पंक्तियाँ उस धूमिल वातावरण में और भी अधिक सफ़ेद लग रही थीं। नदी तट पर सैर करते-करते हम गाँव से काफ़ी दूर निकल आए थे। प्रकृति की सुंदरता निहारते-निहारते ऐसे खोए थे कि समय का ध्यान ही न रहा। हम सब गाँव की ओर लौट पड़े। नदी तट पर नृत्य करती हुई प्रकृति रूपी नदी की यह शोभा विचित्र थी। नदी किनारे सैर करते हुए बिताई यह शाम हमें जिंदगी-भर नहीं भूलेगी।
प्रश्न 45.
परीक्षा से पहल
उत्तर
वैसे तो हर मनुष्य परीक्षा से घबराता है किंतु विद्यार्थी इससे विशेष रूप से घबराता है। परीक्षा में पास होना ज़रूरी है नहीं तो जीवन का एक बहुमूल्य वर्ष नष्ट हो जाएगा। अपने साथियों से बिछड़ जाएँगे। ऐसी चिंताएँ हर विद्यार्थी को रहती हैं। परीक्षा शुरू होने से पूर्व जब मैं परीक्षा भवन पहुँचा तो मेरा दिल धक्-धक् कर रहा था। परीक्षा शुरू होने से आधा घंटा पहले मैं वहाँ पहुँच गया था। मैं सोच रहा था कि सारी रात जाग कर जो प्रश्न तैयार किए हैं यदि वे प्रश्न-पत्र में न आए तो मेरा क्या होगा? इसी चिंता में मैं अपने सहपाठियों से खुलकर बात नहीं कर रहा था। परीक्षा भवन के बाहर का दृश्य बड़ा विचित्र था। परीक्षा देने आए कुछ विद्यार्थी बिलकुल बेफ़िक्र लग रहे थे।
वे आपस में ठहाके मार-मारकर बातें कर रहे थे। कुछ ऐसे भी विद्यार्थी थे जो अभी तक किताबों या नोट्स से चिपके हुए थे। मैं अकेला ऐसा विद्यार्थी था जो अपने साथ घर से कोई किताब या सहायक पुस्तक नहीं लाया था। क्योंकि मेरे पिताजी कहा करते हैं कि परीक्षा के दिन से पहले की रात को ज़्यादा पढ़ना नहीं चाहिए। सारे साल का पढ़ा हुआ भूल नहीं जाता। वे परीक्षा के दिन से पूर्व की रात को जल्दी सोने की भी सलाह देते हैं जिससे सवेरे उठकर विद्यार्थी ताज़ा दम होकर परीक्षा देने जाए न कि थका-थका महसूस करे। परीक्षा भवन के बाहर लड़कों की अपेक्षा.. लड़कियाँ अधिक खुश नज़र आ रही थीं। उनके खिले चेहरे देखकर ऐसा लगता था मानो परीक्षा के भूत का उन्हें कोई डर नहीं।
उन्हें अपनी … स्मरण-शक्ति पर पूरा भरोसा था। थोड़ी ही देर में घंटी बजी। यह घंटी परीक्षा भवन में प्रवेश की घंटी थी। इसी घंटी को सुनकर सभी ने परीक्षा भवन की ओर जाना शुरू कर दिया। हँसते हुए चेहरों पर अब गंभीरता आ गई थी। परीक्षा भवन के बाहर अपना अनुक्रमांक और स्थान देखकर मैं परीक्षा भवन में प्रविष्ट हुआ और अपने स्थान पर जाकर बैठ गया। कुछ विद्यार्थी अब भी शरारतें कर रहे थे। मैं मौन हो धड़कते दिल से प्रश्न-पत्र बँटने की प्रतीक्षा करने लगा।
प्रश्न 46.
मदारी का खेल
उत्तर
कल मैं बाज़ार सब्जी लेने के लिए घर से निकला। चौराहे के एक कोने पर मैंने कुछ लोगों की भीड़ देखी। दूर से देखने पर मुझे लगा कि शायद यहाँ कोई दुर्घटना हो गई। उत्सुकतावश मैं वहाँ चला गया। वहाँ जाकर मुझे पता चला कि वहाँ एक मदारी तमाशा दिखा रहा था। बच्चों की भीड़ जमा है। बहुत-से युवक-युवतियाँ और बुजुर्ग लोग भी वहाँ एकत्र थे। जब मैं वहाँ पहुँचा तो मदारी अपने बंदर और बंदरिया का नाच दिखा रहा था। मदारी डुगडुगी बजा रहा था और बाँसुरी भी बजा रहा था।
बंदरिया ने. घाघरा-चोली पहन रखी थी और सिर पर चुनरी भी ओढ़ रखी थी। बंदर ने भी धोती-कुरता पहन रखा था। बंदरिया ने गले में मोतियों की माला और हाथों में चूड़ियाँ भी पहन रखी थीं। मदारी बंदर से पूछ रहा था कि क्या तुम ने विवाह करवाना है। बंदर हाँ में सिर हिलाता। फिर वह यही प्रश्न बंदरिया से करता। बंदरिया भी हाँ में सिर हिलाती। फिर मदारी ने पूछा कि कैसी लड़की से विवाह करवाएगा। बंदर ने हाव-भाव से बताया।
उसके हाव-भाव को देखकर सभी हँसने लगे। फिर बंदर दूल्हा बनकर विवाह करने चला और बंदरिया को ब्याह कर लाया। इस सारे तमाशे में बंदर की हरकतों, बंदरिया के शर्माने के अभिनय को देखकर लोगों ने कई बार तालियाँ बजाईं। मदारी ने डुगडुगी बजाकर नाच समाप्त होने की घोषणा की। बंदर-बंदरिया का नाच दिखाने के बाद मदारी ने एक चौंका देने वाला तमाशा दिखाया। मदारी ने अपने साथ एक छोटे लड़के को जमीन पर लिटाकर उसकी एक तेज़ छुरी से जीभ काट ली। बच्चा खून से लथपथ ज़मीन पर छटपटा रहा था। उस भीड़ में मौजूद स्त्रियाँ यह दृश्य देखकर काँप उठीं। कुछ स्त्रियों ने तो उस मदारी को बुरा-भला भी कहना शुरू कर दिया। मदारी पर उनका कोई प्रभाव न पड़ा। वह शांत बना रहा। उसने लोगों को बताया कि यह तो
मात्र एक तमाशा है। क्या कोई अपने बच्चे की जीभ काट सकता है। उसने ज़मीन पर पड़े अपने बच्चे का नाम लेकर पुकारा और लड़का हँसता हुआ उठ खड़ा हुआ। उसने अपना मुँह खोल कर लोगों को दिखाया तो उसकी जीभ सही सलामत थी। यह खेल दिखा कर मदारी ने बंदर और बंदरिया के हाथों में दो टोपियाँ पकड़ाकर लोगों से पैसा माँगने के लिए कहा—बंदर और बंदरिया लोगों के सामने मटकते हुए जाते और उनके आगे अपनी टोपी करते। सभी लोगों ने उनकी टोपी में कुछ-न-कुछ ज़रूर डाला जिन्होंने कुछ नहीं डाला उन्हें बंदरों ने घुड़की मारकर डराया और भागने पर विवश कर दिया। मदारी का तमाशा खत्म हुआ। भीड़ छट गई।
प्रश्न 47.
अवकाश का दिन
उत्तर
अवकाश के दिन की हर किसी को प्रतीक्षा होती है। विशेषकर विद्यार्थियों को तो इस दिन की प्रतीक्षा बड़ी बेसबरी से होती है। उस दिन न तो जल्दी उठने की चिंता होती है, न स्कूल जाने की। स्कूल में भी छुट्टी की घंटी बजते ही विद्यार्थी कितनी प्रसन्नता से कक्षाओं से बाहर आ जाते हैं। अध्यापक महोदय के भाषण का आधा वाक्य ही उनके मुँह में रह जाता है और विद्यार्थी कक्षा छोड़कर बाहर की ओर भाग जाते हैं। जब यह पता चलता है कि आज दिनभर की छुट्टी है तो विद्यार्थी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वे उस दिन खूब जी भरकर खेलते हैं, घूमते हैं। कोई सारा दिन क्रिकेट के मैदान में बिताता है तो कोई पतंगबाज़ी में सारा दिन बिता देते हैं।
सुबह के घर से निकले शाम को ही घर लौटते हैं। कोई कुछ कहे तो उत्तर मिलता कि आज तो छुट्टी है। लड़कियों के लिए छुट्टी का दिन घरेलू काम-काज का दिन होता है। छुट्टी के दिन मुझे सुबह-सवेरे उठकर अपनी माताजी के साथ कपड़े धोने में सहायता करनी पड़ती है। मेरी माताजी एक स्कूल में पढ़ाती हैं अत: उनके पास कपड़े धोने के लिए केवल छुट्टी का दिन ही उपयुक्त होता है। कपड़े धोने के बाद मुझे अपने बाल धोने होते हैं, बाल धोकर स्नान करके फिर रसोई में माताजी का हाथ बटाना पड़ता है। इस दिन ही हमारे घर में विशेष व्यंजन पकते हैं। दूसरे दिनों में तो सुबह-सवेरे सबको भागम-भाग लगी होती है। किसी को स्कूल जाना होता है
तो किसी को दफ़्तर। दोपहर के भोजन के पश्चात् थोड़ा आराम करते हैं। फिर माताजी मुझे लेकर बैठ जाती हैं। कुछ सिलाई, बुनाई या कढ़ाई की शिक्षा देती हैं। उनका मानना है कि लड़कियों को ये सब काम आने चाहिए। शाम होते ही शाम की चाय का समय हो जाता है। अवकाश के दिन शाम की चाय में कभी समोसे, कभी पकौड़े बनाए जाते हैं। चाय पीने के बाद फिर रात के खाने की चिंता होने लगती है और इस तरह अवकाश का । दिन एक लड़की के लिए अवकाश का नहीं बल्कि अधिक काम का दिन होता है।
प्रश्न 48.
रेलवे प्लेटफ़ॉर्म का दृश्य
उत्तर
एक दिन संयोग से मुझे अपने बड़े भाई को लेने रेलवे स्टेशन जाना पड़ा। मैं प्लेटफॉर्म टिकट लेकर रेलवे स्टेशन के अंदर गया। पूछताछ खिड़की से पता चला कि दिल्ली से आने वाली गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म नंबर चार पर आएगी। मैं रेलवे पुल पार करके प्लेटफ़ॉर्म नंबर चार पर पहुँच गया। वहाँ यात्रियों की बड़ी संख्या थी। कुछ लोग अपने प्रियजनों को लेने के लिए आए थे तो कुछ अपने प्रियजनों को गाड़ी में सवार कराने के लिए आए. हुए थे। जाने वाले यात्री अपने-अपने सामान के पास खड़े थे। कुछ यात्रियों के पास कुली भी खड़े थे। मैं भी उन लोगों की तरह गाड़ी की प्रतीक्षा…
करने लगा। इसी दौरान मैंने अपनी नज़र रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ाई। मैंने देखा कि अनेक युवक और युवतियाँ अत्याधुनिक पोशाक पहने इधर-उधर घूम रहे थे। कुछ यात्री टी-स्टाल पर खड़े चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, परंतु उनकी नज़रें बार-बार उस तरफ़ उठ जाती थीं, जिधर से गाड़ी आने वाली थी। कुछ यात्री बड़े आराम से अपने सामान के पास खड़े थे, लगता था कि उन्हें गाड़ी आने पर जगह प्राप्त करने की कोई चिंता नहीं। उन्होंने पहले से ही अपनी सीट आरक्षित करवा ली थी। कुछ फेरीवाले भी अपना माल बेचते हुए प्लेटफॉर्म पर घूम रहे थे। सभी लोगों की नजरें उस तरफ़ थीं जिधर से गाड़ी ने आना था। तभी लगा जैसे गाड़ी आने वाली हो। प्लेटफॉर्म पर भगदड़-सी मच गई। सभी यात्री अपना-अपना सामान उठाकर तैयार हो गए। कुलियों ने सामान अपने सिरों पर रख लिया।
सारा वातावरण उत्तेजना से भर गया। देखते-ही-देखते गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ पहुँची। कुछ युवकों ने तो गाड़ी के रुकने की भी प्रतीक्षा न की। वे गाड़ी के साथ दौड़ते-दौड़ते गाड़ी में सवार हो गए। गाड़ी रुकी तो गाड़ी में सवार होने के लिए धक्कम-पेल शुरू हो गई। हर कोई पहले गाड़ी में सवार हो जाना चाहता था। उन्हें दूसरों की नहीं अपनी केवल अपनी चिंता थी। मेरे भाई मेरे सामने वाले डब्बे में थे। उनके गाड़ी से नीचे उतरते ही मैंने उनके चरण-स्पर्श किए और उनका सामान उठाकर स्टेशन से बाहर की ओर चल पड़ा। चलते-चलते मैंने देखा जो लोग अपने प्रियजनों को गाड़ी में सवार कराकर लौट रहे थे। उनके चेहरे उदास थे और मेरी तरह जिनके प्रियजन गाड़ी से उतरे थे उनके चेहरों पर खुशी थी।
प्रश्न 49.
सूर्योदय का दृश्य
उत्तर
पूर्व दिशा की ओर उभरती हुई लालिमा को देखकर पक्षी चहचहाने लगते हैं। उन्हें सूर्य के आगमन की सबसे पहले सूचना मिल जाती है। वे अपनी चहचहाहट द्वारा समस्त प्राणी-जगत को रात के बीत जाने की सूचना देते हुए जागने की प्रेरणा देते हैं। सूर्य देवता का स्वागत करने के लिए प्रकृति रूपी नदी भी प्रसन्नता में भरकर नाच उठती है। फूल खिल उठते हैं, कलियाँ चटक जाती हैं और चारों ओर का वातावरण सुगंधित हो जाता है। सूर्य देवता के आगमन के साथ ही मनुष्य रात भर के विश्राम के बाद ताज़ा दम होकर जाग उठते हैं। हर तरफ़ चहल-पहल नज़र आने लगती है। किसान हल और बैलों के साथ अपने खेतों की ओर चल पड़ते हैं। गृहणियाँ घरेलू काम-काज में व्यस्त हो जाती हैं। मंदिरों एवं गुरुद्वारों में लगे
लाउडस्पीकर से भजन-कीर्तन के कार्यक्रम प्रसारित होने लगते हैं। भक्तजन स्नानादि से निवृत्त हो पूजा-पाठ में लग जाते हैं। स्कूली बच्चों की माताएँ उन्हें झिंझोड़-झिंझोड़कर जगाने लगती हैं। दफ्तरों को जाने वाले बाबू जल्दी-जल्दी तैयार होने लगते हैं जिससे समय पर बस पकड़कर अपने दफ्तर पहुँच सकें। थोड़ी देर पहले जो शहर सन्नाटे में लीन था आवाजों के घेरे में घिरने लगता है। सड़कों पर मोटरों, स्कूटरों, कारों के चलने की आवाजें सुनाई देने लगती हैं।
ऐसा लगता है मानो सड़कें भी नींद से जाग उठी हों। सूर्योदय के समय की प्राकृतिक सुषमा का वास्तविक दृश्य तो किसी गाँव, किसी पहाड़ी क्षेत्र अथवा किसी नदी तट पर ही देखा जा सकता है। प्रातः वेला में सोये रहने वाले लोग प्रकृति की इस सुंदरता के दर्शन नहीं कर सकते। कौन उन्हें बताए कि सूर्योदय के समय सूर्य के सामने आँखें बंदकर दो-चार मिनट खड़े रहने से आँखों की ज्योति कभी क्षीण नहीं होती।
प्रश्न 50.
अपना घर
उत्तर
कहते हैं कि घरों में घर अपना घर। सच है अपना घर अपना ही होता है। अपने घर में चाहे सारी सुख-सुविधाएँ न भी प्राप्त हों तो भी वह अच्छा लगता है। जो स्वतंत्रता व्यक्ति को अपने घर में होती है वह किसी बड़े-बड़े आलीशान घर में भी नहीं प्राप्त होती। पराये घर में जो झिझक, असुविधा होती है वह अपने घर में नहीं होती। अपने घर में व्यक्ति अपनी मर्जी का मालिक होता है। दूसरे के घर में उस घर के स्वामी की इच्छानुसार अथवा उस घर के नियमों के अनुसार चलना होता है।
अपने घर में आप जो चाहें करें, जो चाहें खाएँ, जहाँ चाहें बैठें, जहाँ चाहें लेटें पर दूसरे के घर में यह सब संभव नहीं। इसीलिए तो किसी ने कहा है-‘जो सुख छज्जू दे चौबारे वह न बलख, न बुखारे।’ शायद यही कारण है कि आजकल नौकरी करने वाले प्रतिदिन मीलों का सफ़र करके नौकरी पर जाते हैं परंतु रात को अपने घर वापस आ जाते हैं। पुरुष तो पहले भी नौकरी करने बाहर कई मील दूर जाती है परंतु आजकल सभी अपने-अपने घरों को लौटना पंसद करते हैं।
मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी तक भी अपने घर के महत्त्व को समझते हैं। सारा दिन जंगल में चरने वाली गाएँ, भैंसें, भेड़, बकरियाँ संध्या होते ही अपने-अपने घरों को लौट आते हैं। पक्षी भी दिनभर दाना-दुनका चुगकर संध्या होते ही अपने-अपने घोंसलों को लौट आते हैं। घर का मोह ही उन्हें अपने घोंसलों में लौट . आने के लिए विवश करता है क्योंकि जो सुख अपने घर में मिलता है वह और कहीं नहीं मिलता। इसीलिए कहा गया है कि घरों में घर अपना घर।
प्रश्न 51.
जब आँधी आई
उत्तर
मई का महीना था। सूर्य देवता लगता था मानो आग बरसा रहे हों। धरती भट्ठी की तरह जल रही थी। हवा भी गरमी के डर से सहमी हुई थम सी गई थी। पेड़-पौधे तक भीषण गरमी से घबराकर मौन खड़े थे। पत्ता तक नहीं हिल रहा था। उस दिन हमारे विद्यालय में जल्दी छुट्टी कर दी गई। मैं अपने कुछ सहपाठियों के साथ पसीने में लथपथ अपने घर की ओर लौट रहा था कि अचानक पश्चिम दिशा में कालिमा-सी दिखाई दी।
आकाश में चीलें मँडराने लगीं। चारों ओर शोर मच गया कि आँधी आ रही है। हम सब ने तेज़-तेज़ चलना शुरू किया जिससे आँधी आने से पूर्व सुरक्षित अपने-अपने घर पहुँच जाएँ। देखते-ही-देखते तेज़ हवा के झोंके आने लगे। दूर आकाश धूलि से अट गया लगता था। हम सब साथी एक दुकान के .. छज्जे के नीचे रुक गए और प्रतीक्षा करने लगे कि आँधी गुज़र जाए तो चलें। पलक झपकते ही धूल का एक बहुत बड़ा बवंडर उठा। दुकानदारों ने.. अपना सामान सहेजना शुरू कर दिया। आस-पास के घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे।
धूल भरी उस आँधी में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। हम सब आँखें बंद करके खड़े थे जिससे हमारी आँखें धूल से न भर जाएँ। राह चलते लोग रुक गए। स्कूटर, साइकिल और कार चलाने वाले भी अपनी-अपनी जगह रुक गए थे। अचानक सड़क के किनारे लगे एक वृक्ष की एक बहुत बड़ी टहनी टूटकर हमारे सामने गिरी। दुकानों के बाहर लगी कनातें उड़ने लगीं। बहुत-से दुकानदारों ने जो सामान बाहर सजा रखा था, वह उड़ गया। धूल भरी आँधी में कुछ भी दिखाई न दे रहा था।
चारों तरफ़ अफरा-तफरी मची हुई थी। आँधी का यह प्रकोप करीब घंटा भर रहा। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगी। यातायात फिर से चालू हो गया। हम भी उस दुकान के छज्जे के नीचे से बाहर आकर अपने-अपने घरों की ओर रवाना हुए। सच ही उस आँधी का दृश्य बड़ा ही डरावना था। घर पहुँचते-पहुँचते मैंने देखा रास्ते में बिजली के कई खंबे, वृक्ष आदि उखड़े पड़े थे। सारे शहर में बिजली भी ठप्प हो गई थी। मैं कुशलतापूर्वक अपने घर पहुँच गया। घर पहुँचकर मैंने सुख की साँस ली।
प्रश्न 52.
मतदान केंद्र का दृश्य
उत्तर
प्रजातंत्र में चुनाव अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। गत 22 फरवरी को हमारे नगर में विधानसभा क्षेत्र के लिए उप-चुनाव हुआ। चुनाव से कोई महीना भर पहले विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा बड़े जोर-शोर से चुनाव प्रचार किया गया। धन का खुलकर वितरण किया गया। हमारे यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध है कि चुनाव के दिनों में यहाँ नोटों की वर्षा होती है। चुनाव आयोग ने लाख सिर पटका पर ढाक के तीन पात ही रहे। आज मतदान केंद्रों की स्थापना की गई है। मतदान वाले दिन जनता में भारी उत्साह देखा गया।
इस बार पहली बार इलेक्ट्रॉनिक मशीनों का प्रयोग किया जा रहा था। अब मतदाताओं को मतदान केंद्र पर मत-पत्र नहीं दिए जाने थे और न ही उन्हें अपने मत मतपेटियों में डालने थे। अब तो मतदाताओं को अपनी पसंद के उम्मीदवार के नाम और चुनाव-चिह्न के आगे लगे बटन को दबाना भर था। इस नए प्रयोग के कारण भी मतदाताओं में काफी उत्साह देखने में आया। मतदान प्रात: आठ बजे शुरू होना था किंतु मतदान केंद्रों के बाहर विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने पंडाल समय से काफ़ी पहले सजा लिए थे। उन पंडालों में उन्होंने अपनी-अपनी पार्टी के झंडे एवं उम्मीदवार के चित्र भी लगा रखे
थे। दो-तीन मेजें भी पंडाल में लगाई गई थीं। जिन पर उम्मीदवार के कार्यकर्ता मतदान सूचियाँ लेकर बैठे थे और मतदाताओं को मतदाता सूची में से उनकी क्रम संख्या तथा मतदान केंद्र की संख्या तथा मतदान केंद्र का नाम लिखकर एक पर्ची दे रहे थे। आठ बजने से पूर्व ही मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की लंबी-लंबी पंक्तियाँ लगनी शुरू हो गई थीं। मतदाता खूब सज-धज कर आए थे। ऐसा लगता था कि वे किसी मेले में आए हों।
दोपहर होते-होते मतदाताओं की भीड़ में कमी आने लगी। राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता मतदाताओं को घेर-घेर कर ला रहे थे। चुनाव आयोग ने मतदाताओं को किसी प्रकार के वाहन में लाने की मनाही की है किंतु सभी उम्मीदवार अपने-अपने मतदाताओं को रिक्शा, जीप या कार में बैठाकर ला रहे थे। सायं पाँच बजते-बजते यह मेला उजड़ने लगा। भीड़ मतदान केंद्र से हटकर उम्मीदवारों के पंडालों में जमा हो गई थी और सभी अपने अपने उम्मीदवार की जीत के अनुमान लगाने लगे।
प्रश्न 53.
जब भूचाल आया
उत्तर
गरमियों की रात थी। मैं अपने भाइयों के साथ मकान की छत पर सो रहा था। रात लगभग आधी बीत चुकी थी। गरमी के मारे मुझे नींद नहीं ।
आ रही थी। तभी अचानक कुत्तों के भौंकने का स्वर सुनाई पड़ा। यह स्वर लगातार बढ़ता ही जा रहा था और लगता था कि कुत्ते तेज़ी से इधर-उधर भाग रहे हैं। कुछ ही क्षण बाद हमारी मुरगियों ने दड़बों में फड़फड़ाना शुरू कर दिया। उनकी आवाज़ सुनकर ऐसा लगता था कि जैसे उन्होंने किसी साँप को देख लिया हो। मैं बिस्तर पर लेटा-लेटा कुत्तों के भौंकने के कारण पर विचार करने लगा। मैंने समझा कि शायद वे किसी चोर को या संदिग्ध व्यक्ति को देखकर भौंक रहे हैं।
अभी मैं इन्हीं बातों पर विचार कर ही रहा था कि मुझे लगा जैसे मेरी चारपाई को कोई हिला रहा है अथवा किसी ने मेरी चारपाई को झुला दिया हो। क्षण भर में ही मैं समझ गया कि भूचाल आया है। यह झटका भूचाल का ही था। मैंने तुरंत अपने भाइयों को जगाया और उन्हें छत से शीघ्र नीचे उतरने को कहा। छत से उतरते समय हम ने परिवार के अन्य सदस्यों को भी जगा दिया। तेजी से दौड़कर हम सब बाहर खुले मैदान में आ गए। वहाँ पहुँचकर हमने शोर मचाया कि भूचाल आया है। सब लोग घर से बाहर आ जाओ।
सभी गहरी नींद में सोये पड़े थे, हड़बड़ाहट में सभी बाहर की ओर दौड़े। मैंने उन्हें बताया कि भूचाल के झटके कभी-कभी कुछ मिनटों के बाद भी आते हैं। अतः हमें सावधान रहना चाहिए। अभी यह बात मेरे मुँह में ही थी कि भूचाल का एक ज़ोरदार झटका और आया। सारे मकानों की खिड़कियाँ, दरवाजे खड़-खड़ा उठे। हमें धरती हिलती महसूस हुई। हम सब धरती पर लेट गए। तभी पड़ोस से मकान ढहने की आवाज़ आई। साथ ही बहुत-से लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें भी आईं। हम में से कोई भी डर के मारे अपनी जगह से नहीं हिला। कुछ देर बाद जब हम ने सोचा कि जितना … भूचाल आना था आ चुका, हम उस जगह की ओर बढ़े। निकट जाकर देखा तो काफ़ी मकान क्षतिग्रस्त हुए थे। ईश्वर कृपा से जान-माल की कोई हानि न हुई थी। वह रात सारे गाँववासियों ने पुनः भूचाल के आने की अशंका में घरों से बाहर रहकर ही बिताई।
प्रश्न 54.
मेरी रेल-यात्रा
उत्तर
हमारे देश में रेलवे ही एक ऐसा विभाग है जो यात्रियों को टिकट देकर भी सीट की गारंटी नहीं देता। रेल का टिकट खरीदकर सीट मिलने की बात तो बाद में आती है पहले तो गाड़ी में घुस पाने की समस्या सामने आती है। यदि कहीं आप बाल-बच्चों अथवा सामान के साथ यात्रा कर । रहे हों तो यह समस्या और भी विकट हो उठती है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि टिकट पास होते हुए भी आप गाड़ी में सवार नहीं हो पाते दिल में रह गयी’ गाते हुए या रोते हुए घर लौट आते हैं। रेलगाड़ी में सवार होने से पूर्व गाड़ी की प्रतीक्षा करने का समय बड़ा कष्टदायक होता है।
मैं भी एक बार रेलगाड़ी में मुंबई जाने के लिए स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी दो घंटे लेट थी। यात्रियों की बेचैनी देखते ही बनती थी। गाड़ी आई तो गाड़ी में सवार होने के लिए जोर आज़माई शुरू हो गयी। किस्मत अच्छी थी कि मैं गाड़ी में सवार होने में सफल हो सका। गाड़ी चले अभी घंटा भर ही हुआ था कि कुछ यात्रियों के मुख से मैंने सुना कि यह डब्बा जिसमें मैं बैठा था अमुक स्थान पर कट जाएगा। यह सुनकर मैं तो दुविधा में पड़ गया। गाड़ी रात के एक बजे उस स्टेशन पर पहुंची जहाँ हमारा वह डब्बा मुख्य गाड़ी से कटना था और हमें दूसरे डब्बे में सवार होना था। उस समय अचानक तेज वर्षा होने लगी।
स्टेशन पर को अपना-अपना सामान उठाए वर्षा में भीगते हुए दूसरे डब्बे की ओर भागने लगे। मैं अपना अटैची लेकर उतरने लगा कि एकदम से वह डब्बा चलने लगा। मैं गिरते-गिरते बचा और अटैची मेरे हाथ से छूटकर प्लेटफॉर्म पर गिर पड़ी। मैंने जल्दी-जल्दी अपना सामान समेटा और दूसरे डब्बे की ओर बढ़ गया। गरमी का मौसम और उस डब्बे के पंखे बंद थे। गाड़ी चली तो थोड़ी हवा लगी और कुछ राहत मिली।
प्रश्न 55.
एक दिन बिजली न आई
उत्तर
मनुष्य विकास कर रहा है। वह अपनी सुख-सुविधाओं के साधन भी जुटाने लगा है। बिजली भी उन साधनों में से एक है। आजकल हम बिजली पर किसी हद तक निर्भर हो गए हैं इसका पता मुझे उस दिन चला जब हमारे शहर में सारा दिन बिजली नहीं आई। जून का महीना था। सूर्य देव ने उदय होते ही गरमी बरसानी शुरू कर दी थी। आकाश में धूल-सी चढ़ी हुई थी। सात बजे होंगे कि बिजली चली गई। बिजली जाने के साथ ही पानी भी चला गया। घर में बड़े बुजुर्ग तो स्नान कर चुके थे पर हम तो अभी सोकर ही उठे थे इसलिए हमारा नहाना बीच में ही लटक गया। घर के अंदर इतनी तपश थी कि खड़ा न हुआ जाता था। बाहर निकलते तो वहाँ भी चैन न था। एक तो धूप की तेजी और ऊपर से हवा भी बंद थी। दिन चढ़ता गया और गरमी की प्रचंडता भी बढ़ने लगी। हमने बिजलीघर के शिकायत केंद्र को फ़ोन किया तो पता चला कि बिजली पीछे से ही बंद है।
कोई पता नहीं कि कब आएगी। गरमी के मारे सब का बुरा हाल था। छोटे बच्चों की हालत देखी न जाती थी। गरमी के कारण माताजी को खाना पकाने में भी बड़ा कष्ट झेलना पड़ा। गला प्यास के मारे सूख रहा था। खाना खाने से पहले तक कई गिलास पानी पी चुके थे। इसलिए खाना भी ठीक ढंग से नहीं खाया गया। उस दिन हमें पता चला कि हम कितने बिजली पर निर्भर हो चुके हैं। मैं बार-बार सोचता था कि जिन दिनों बिजली नहीं थी तब लोग कैसे रहते होंगे।
घर में हाथ से चलाने वाले पंखे भी नहीं थे। हम अखबार या कापी के गत्ते को ही पंखा बनाकर हवा ले रहे थे। सूर्य छिप जाने पर गरमी की प्रचंडता में कुछ कमी तो हुई किंतु हवा बंद होने के कारण बाहर खड़े होना भी कठिन लग रहा था। हमें चिंता हुई कि यदि बिजली रातभर न आई तो रात कैसे कटेगी। बिजली आने पर लोगों ने घरों के बाहर या छत पर सोना छोड़ दिया था। सभी कमरों में ही पंखों, कूलरों को लगाकर ही सोते थे। बाहर सोने पर मच्छरों के प्रकोप को सहना पड़ता था। रात के लगभग नौ बजे बिजली आई और मुहल्ले के हर घर में बच्चों ने ज़ोर से आवाज़ लगाई–’आ गई, आ गई’ और हम सब ने सुख की साँस ली।
प्रश्न 56.
परीक्षा भवन का दृश्य
उत्तर
मार्च महीने की पहली तारीख थी। उस दिन हमारी वार्षिक परीक्षाएं शुरू हो रही थीं। परीक्षा शब्द से वैसे सभी मनुष्य घबराते हैं परंतु विद्यार्थी वर्ग:इस शब्द से विशेष रूप से घबराता है। मैं जब घर से चला तो मेरा दिल भी धक-धक् कर रहा था। मैं रातभर पढ़ता रहा था और चिंता थी कि यदि सारी रात के पढ़े में से कुछ भी प्रश्न-पत्र में न आया तो क्या होगा? परीक्षा भवन के बाहर सभी विद्यार्थी चिंतित से नज़र आ रहे थे। कुछ विद्यार्थी किताबें लेकर अब भी उसके पन्ने उलट-पुलट रहे थे। कुछ बड़े खुश-खुश नज़र आ रहे थे। लड़कों से ज्यादा लड़कियाँ अधिक गंभीर नज़र आ रही थीं। कुछ लड़कियाँ तो बड़े आत्मविश्वास से भरी दिखाई पड़ रही थीं।
लड़कियाँ इसी आत्मविश्वास के कारण परीक्षा में लड़कों से बाज़ी मार जाती हैं। मैं अपने सहपाठियों से उस दिन के प्रश्न-पत्र के बारे में बात कर ही रहा था कि परीक्षा भवन में घंटी बजनी शुरू हो गई। यह संकेत था कि हमें परीक्षा भवन में प्रवेश कर जाना चाहिए। सभी विद्यार्थियों ने परीक्षा भवन में प्रवेश करना शुरू कर दिया। भीतर पहुँचकर हम सब अपने-अपने अनुक्रमांक के अनुसार अपनी-अपनी सीट पर जाकर बैठ गए। थोड़ी ही देर में अध्यापकों द्वारा उत्तर-पुस्तिकाएँ बाँट दी गयीं और हम ने उस पर अपना-अपना अनुक्रमांक आदि लिखना शुरू कर दिया। ठीक नौ बजते ही एक घंटी बजी और अध्यापकों ने प्रश्न-पत्र बाँट दिए।
कुछ विद्यार्थी प्रश्न-पत्र प्राप्त करके उसे माथा टेकते देखे गए। मैंने भी ऐसा ही किया। माथा टेकने के बाद मैंने प्रश्न-पत्र पढ़ना शुरू किया। मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था क्योंकि प्रश्न-पत्र के सभी प्रश्न मेरे पढ़े हुए प्रश्नों में से थे। मैंने किए जाने वाले प्रश्नों पर निशान लगाए और कुछ क्षण तक यह सोचा कि कौन-सा प्रश्न पहले करना चाहिए और फिर उत्तर लिखना शुरू कर दिया। मैंने देखा कुछ विद्यार्थी अभी बैठे सोच ही रहे थे शायद उनके पढ़े में से कोई प्रश्न न आया हो। तीन घंटे तक मैं बिना इधर-उधर देखे लिखता रहा। मैं प्रसन्न था कि उस दिन मेरा पर्चा बहुत अच्छा हुआ था।
प्रश्न 57.
साइकिल चोरी होने पर
उत्तर
एक दिन मैं अपने स्कूल में अवकाश लेने का आवेदन-पत्र देने गया। मैं अपनी साइकिल स्कूल के बाहर खड़ी कर के, उसे ताला लगाकर स्कूल के भीतर चला गया। थोड़ी देर में ही मैं लौट आया। मैंने देखा मेरी साइकिल वहाँ नहीं थी जहाँ मैं उसे खड़ी करके गया था। मैंने आसपास देखा पर मुझे मेरी साइकिल कहीं नज़र नहीं आई। मुझे यह समझते देर न लगी कि मेरी साइकिल चोरी हो गयी है। मैं सीधा घर आ गया। घर आकर मैंने अपनी माँ को बताया कि मेरी साइकिल चोरी हो गयी है।
मेरी माँ यह सुनकर रोने लगी। उसने कहा कि बडी मश्किल से तीन हजार रुपया खर्च करके तुम्हें साइकिल लेकर दी थी तुम ने वह भी गँवा दी। मेरी साइकिल चोरी हो गयी है, यह बात सारे मुहल्ले में फैल गयी। किसी ने सलाह दी . कि पुलिस में रिपोर्ट अवश्य लिखवा देनी चाहिए। मैं पुलिस से बहुत डरता हूँ। मैं डरता-डरता पुलिस चौकी गया। मैं इतना घबरा गया था, मानो मैंने ही साइकिल चुराई हो। पुलिस वालों ने कहा साइकिल की रसीद लाओ, उसका नंबर बताओ, तब हम तुम्हारी रिपोर्ट लिखेंगे। साइकिल खरीदने की रसीद मुझ से गुम हो गयी थी और साइकिल का नंबर मुझे याद नहीं था। मुझे क्या यह मालूम था कि मेरी साइकिल चोरी हो जाएगी? निराश हो मैं घर लौट आया।
लौटने पर पता चला कि मेरी साइकिल चोरी होने का समाचार सारे मुहल्ले में फैल गया है। हमारे देश में शोक प्रकट करने का कुछ ऐसा चलन है कि लोग मामूली-से-मामूली बात पर भी शोक प्रकट करने आ पहुँचते हैं। हर आने वाला मुझ से साइकिल कैसे चोरी हुई? प्रश्न का उत्तर जानना चाहता था। मैं एक ही उत्तर सभी को देता उकता-सा गया। कुछ लोग मुझे सांत्वना देते हुए कहते-जो होना था सो हो गया।
ईश्वर चाहेंगे तो साइकिल ज़रूर मिल जाएगी। मेरा एक मित्र विशेष रूप से शोक-ग्रस्त था। क्योंकि यदाकदा वह मुझसे साइकिल मांगकर ले जाता था। कुछ लोग मुझे यह भी सलाह देने लगे कि मुझे अब कौन-सी कंपनी की बनी साइकिल खरीदनी चाहिए और किस दकान से खरीदन तथा रसीद सँभालकर रखनी चाहिए। एक तरफ़ मुझे अपनी साइकिल चोरी हो जाने का दुःख था तो दूसरी तरफ़ संवेदना प्रकट करने वालों की ऊल-जलूल बातों से परेशानी हो रही थी।
प्रश्न 58.
जेब कटने पर
उत्तर
यह घटना पिछले साल की है। परीक्षाएँ समाप्त होने के बाद मैं अपने ननिहाल जाने के लिए बस अड्डे पहुँचा। बस अड्डे पर उस दिन काफ़ी भीड़ थी। स्कूलों में छुट्टियाँ हो जाने पर बहुत-से माता-पिता अपने बच्चों को लेकर कहीं-न-कहीं छुट्टियाँ बिताने जा रहे थे। मेरे गाँव को जाने वाली बस में काफ़ी भीड़ थी। मैं जब बस में सवार हुआ तो बस में बैठने की कोई जगह खाली न थी। मैं भी अपने सामान का बैग कंधे पर लटकाए खड़ा हो गया। कुछ ही देर में बस खचाखच भर चुकी थी परंतु बस वाले अभी बस चलाने को तैयार नहीं थे। वे और सवारियों को चढ़ा रहे थे। जब बस के अंदर तिल धरने को भी जगह न रही तो कंडक्टर ने सवारियों को बस की छत पर चढ़ाना शुरू कर दिया। गरमियाँ अभी पूरी तरह से शुरू नहीं … हुई थीं फिर भी हम बस के अंदर खड़े-खड़े पसीने से लथपथ हो रहे थे। मेरे पीछे एक सुंदर लड़की खड़ी थी। बस चलने से कुछ देर पहले वह लड़की यह कहकर बस से उतर गई कि यहाँ तो खड़ा भी नहीं हुआ जाता। मैं अगली बस से चली जाऊँगी।
बड़ी मुश्किल से बस ने चलने का नाम लिया। बस चलने के बाद कंडक्टर ने टिकटें बाँटना शुरू किया। थोड़ी देर में ही पीछे खड़े यात्रियों में से दो यात्रियों ने शोर मचाया कि उनकी किसी ने जेब काट ली है। कंडक्टर ने उन्हें बस रोककर बस से उतार दिया। कंडक्टर जब मेरे पास आया तो मैंने पैंट की पिछली जेब से जैसे ही बटुआ निकालने के लिए हाथ बढ़ाया। मैंने अनुभव किया कि मेरी जेब में बटुआ नहीं है। मैंने कंडक्टर को बताया कि मेरी जेब भी किसी ने काट ली है। सौभाग्य से मेरी दूसरी जेब में इतने पैसे थे कि मैं टिकट के पैसे दे सकता। कंडक्टर ने मुझे टिकट देते हुए कहा तुम फ़ैशन के मारे बटुए पैंट की पिछली जेब में रखोगे तो जेब कटेगी ही।
मैं थोड़ा शर्मिंदा अनुभव कर रहा था। दूसरे यात्री हँस रहे थे कि मैं बस से उतारे जाने से बच गया। मुझे यह समझते देर न लगी कि जो फ़ैशनेबल-सी लड़की मेरे पीछे खड़ी थी उसी ने मेरी जेब साफ़ की है। मेरी ही नहीं बल्कि दूसरे यात्रियों की जेबों की वही सफ़ाई कर गई है। मैं सोचने लगा कि बस अड्डे पर तो सरकार ने लिखा है कि जेबकतरों से सावधान रहें बसों में भी ऐसे बोर्ड लगवा देने चाहिए या फिर बस चालक गिनती से अधिक सवारियाँ बस में न चढ़ाएँ। इतनी भीड़ में तो किसी की भी जेब कट सकती है।
प्रश्न 59.
सब दिन होत न एक समान
उत्तर
जीवन को जल की संज्ञा दी गई है। जल कभी सम भूमि पर बहता है तो कभी विषम भूमि पर। कभी रेगिस्तान की भूमि उसका शोषण करती है तो कभी वर्षा की धारा उसके प्रवाह को बढ़ा देती है। मानव-जीवन में भी कभी सुख का अध्याय जुड़ता है तो कभी दुख अपने पूरे दल-बल के साथ आक्रमण करता है। प्रकृति में दुख-सुख की धूप-छाया के दर्शन होते हैं। प्रात:काल का समय सुख का प्रतीक है तो रात्रि दुख का। विभिन्न ऋतुएँ भी जीवन के विभिन्न पक्षों की प्रतीक हैं। राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
है निशा दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-संपदा।
संसार के बड़े-बड़े शासकों का समय भी एक-सा नहीं रहा है। अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफ़र का करुण अंत इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य का समय हमेशा एक-सा नहीं रहता। जो आज दीन एवं दुखी है वह कल वैभव के झूले में झूलता दिखाई देता है। जो आज सुख-संपदा एवं ऐश्वर्य में डूबा हुआ है, संभव है भाग्य के विपरीत होने के कारण उसे दर-दर की ठोकरें खाने पर विवश होना पड़े। जो वृक्ष, लताएँ एवं पौधे वसंत ऋतु में वातावरण को मादकता प्रदान करते हैं, वही पतझड़ में वातावरण को नीरस बना देते हैं। जीवन सुख-दुख, आशा-निराशा एवं हर्ष-विषाद का समन्यव है। एक ओर जीवन का उदय है तो दूसरी ओर जीवन का अस्त। अतः ठीक ही कहा गया है-‘सब दिन होत न एक समान।’
प्रश्न 60.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी
उत्तर
इस कथन का भाव है, “जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा है।” जो व्यक्ति अपनी माँ से और भूमि से प्रेम नहीं करता, वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। देश-द्रोह एवं मातृद्रोह से बड़ा अपराध कोई और नहीं है। यह ऐसा अपराध है जिसका प्रायश्चित्त संभव ही नहीं है। देश-प्रेम की भावना ही मनुष्य को यह प्रेरणा देती है कि जिस भूमि से उसका भरण-पोषण हो रहा है, उसकी रक्षा के लिए उसे अपना सब कुछ अर्पित कर देना उसका परम कर्तव्य है।
जननी एवं जन्मभूमि के प्रति प्रेम की भावना जीवधारियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अतः उसके हृदय में देशानुराग की भावना का उदय स्वाभाविक है। मरुस्थल में रहने वाले लोग हाँफ-हाँफ कर जीते हैं, फिर भी उन्हें अपनी : जन्मभूमि से अगाध प्रेम है। ध्रुववासी अत्यंत शीत के कारण अंधकार तथा शीत में काँप-काँप कर तो जीवन व्यतीत कर लेते हैं, पर अपनी मातृभूमि का बाल-बाँका नहीं होने देते। मुग़ल साम्राज्य के अंतिम दीप सम्राट बहादुरशाह जफ़र की रंगून के कारागार से लिखी ये पंक्तियाँ कितनी मार्मिक हैं
कितना है बदनसीब जफ़र दफ़न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूचा-ए-यार में।
जिस देश के लोग अपनी मातृ-भूमि से जितना अधिक स्नेह करते हैं, वह देश उतना ही उन्नत माना जाता है। देश-प्रेम की भावना ने ही भारत की पराधीनता की जंजीरों को काटने के लिए देश-भक्तों को प्रेरित किया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश के प्रति हमारा कर्तव्य और भी बढ़ गया है। इस कर्तव्य की पूर्ति हमें जी-जान लगाकर करनी चाहिए।
प्रश्न 61.
नेता नहीं, नागरिक चाहिए
उत्तर
लोगों के नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को नेता कहते हैं। आदर्श नेता एक मार्ग-दर्शक के समान है जो दूसरों को सुमार्ग की ओर ले जाता है। आदर्श . नागरिक ही आदर्श नेता बन सकता है। आज के नेताओं में सद्गुणों का अभाव है। वे जनता के शासक बनकर रहना चाहते हैं, सेवक नहीं। उनमें अहं एवं स्पर्धा का भाव भी पाया जाता है। वर्तमान भारत की राजनीति इस तथ्य की परिचायक है कि नेता बनने की होड़ ने आपसी राग-द्वेष को ही अधिक बढ़ावा दिया है।
इसीलिए यह कहा गया है-नेता नहीं नागरिक चाहिए। नागरिक को अपने कर्तव्य एवं अधिकारों के बीच समन्वय रखना पड़ता है। यदि नागरिक अपने समाज के प्रति अपने कर्तव्य का समुचित पालन करता है तो राष्ट्र किसी संकट का सामना कर ही नहीं सकता। नेता बनने की तीव्र लालसा ने नागरिकता के भाव को कम कर दिया है। नागरिक के पास राजनीतिक एवं सामाजिक दोनों अधिकार रहते हैं। अधिकार की सीमा होती है। हमारे ही नहीं दूसरे नागरिकों के भी अधिकार होते हैं।
अत: नागरिक को अपने कर्तव्यों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। नेता अधिकारों की बात ज्यादा जानता है, लेकिन कर्तव्यों के प्रति उपेक्षा भाव रखता है। उत्तम नागरिक ही उत्तम नेता होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने आपको एक अच्छा नागरिक बनाए। नागरिक में नेतृत्व का भाव स्वयंमेव आ जाता है। नेता का शाब्दिक अर्थ है जो दूसरों को आगे ले जाए अर्थात् अपने साथियों के प्रति सहायता एवं सहानुभूति का भाव अपनाए। अतः देश को नेता नहीं नागरिक चाहिए।
प्रश्न 62.
आलस्य दरिद्रता का मूल है
उत्तर
जो व्यक्ति श्रम से पलायन करके आलस्य का जीवन व्यतीत करते हैं वे कभी भी सुख-सुविधा का आनंद प्राप्त नहीं कर सकते। कोई भी कार्य यहाँ तक कि स्वयं का जीना भी बिना काम किए संभव नहीं। यह ठीक है कि हमारे जीवन में भाग्य का बड़ा हाथ है। दुर्भाग्य के कारण संभव है। मनुष्य को विकास और वैभव के दर्शन न हों पर परिश्रम के बल पर वह अपनी जीविका के प्रश्न को हल कर ही सकता है। यदि ऐसा न होता तो श्रम के महत्त्व का कौन स्वीकार करता। कुछ लोगों का विचार है कि भाग्य के अनुसार ही मनुष्य सुख-दुख भोगता है। दाने-दाने पर मोहर लगी है, भगवान् सबका ध्यान रखता है। जिसने मुँह दिया है, वह खाना भी देगा। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि भाग्य का निर्माण भी परिश्रम द्वारा ही होता है। राष्ट्रकवि दिनकर ने ठीक ही कहा है ब्रह्मा ने कुछ लिखा भाग्य में, मनुज नहीं लाया है।
उसने अपना सुख, अपने ही भुजबल से पाया है। भगवान् ने मुख के साथ-साथ दो हाथ भी दिए हैं। इन हाथों से काम लेकर मनुष्य अपनी दरिद्रता को दूर कर सकता है। हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाला व्यक्ति आलसी होता है। जो आलसी है वह दरिद्र और परावलंबी है क्योंकि आलस्य दरिद्रता का मूल है। आज इस संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह श्रम का ही परिणाम है। यदि सभी लोग आलसी बने रहते तो ये सड़कें, भवन, अनेक प्रकार के यान, कला-कृतियाँ कैसे बनती? श्रम से उगले मिट्टी सोना परंतु आलस्य से सोना भी मिट्टी बन जाता है। अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की दरिद्रता दूर करने के लिए आलस्य को परित्याग कर परिश्रम को अपनाने की आवश्यकता है। हमारे राष्ट्र में जितने हाथ हैं, यदि वे सभी काम में जुट जाएँ तो सारी दरिद्रता बिलख-बिलखकर विदा हो जाएगी। आलस्य ही दरिद्रता का मूल है।
प्रश्न 63.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
उत्तर
मानव-शरीर यदि रथ के समान है तो यह मन उसका चालक है। मनुष्य के शरीर की असली शक्ति उसका मन है। मन के अभाव में शरीर का कोई अस्तित्व ही नहीं। मन ही वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य से बड़े-से-बड़े काम करवा लेती है। यदि मन में द शक्तिशाली शरीर और विभिन्न प्रकार के साधन व्यर्थ हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एक सैनिक को लिया जा सकता है। यदि उसने अपने मन को जीत लिया है तो वह अपनी शारीरिक शक्ति एवं अनुमान से कहीं अधिक सफलता दिखा सकता है। यदि उसका मन हार गया तो बड़े-बड़े मारक अस्त्र-शस्त्र भी उसके द्वारा अपना प्रभाव नहीं दिखा सकते। मन की शक्ति के बल पर ही मनुष्य ने अनेक आविष्कार किए हैं।
मन की शक्ति मनुष्य को अनवरत साधना की प्रेरणा देती है और विजयश्री उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है। जब तक मन में संकल्प एवं प्रेरणा का भाव नहीं जागता तब तक हम किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। एक ही काम में एक व्यक्ति सफलता प्राप्त कर लेता है और दूसरा असफल हो जाता है। इसका कारण दोनों के मन की शक्ति की भिन्नता है। जब तक हमारा मन शिथिल है तब तक हम कुछ भी नहीं कर सकते। अत: ठीक ही कहा गया है-“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।”
प्रश्न 64.
सबै सहायक सबल के
उत्तर
यह संसार शक्ति का लोहा मानता है। लोग चढ़ते सूर्य की पूजा करते हैं। शक्तिशाली की सहायता के लिए सभी तत्पर रहते हैं लेकिन निबल को कोई नहीं पूछता। वायु भी आग को तो भड़का देती है, पर दीपक को बुझा देती है। दीपक निर्बल है, कमज़ोर है, इसलिए वायु का उस पर पूर्ण अधिकार है। व्यावहारिक जीवन में भी हम देखते हैं कि जो निर्धन है, वे और निर्धन बनते जाते हैं, और जो धनवान हैं उनके पास और धन चला आ रहा है। इसका एकमात्र कारण यही है कि सबल की सभी सहायता कर रहे हैं और निर्धन उपेक्षित हो रहा है। सर्वत्र जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। सामाजिक जीवन से लेकर अंतर्राष्ट्रीय जीवन तक यह भावना काम कर रही है। एक शक्तिशाली राष्ट्र दूसरे शक्तिशाली राष्ट्र की सहायता सहर्ष करता है जबकि निर्धन देशों को शक्ति संपन्न देशों के आगे गिड़गिड़ाना पड़ता है।
परिवार जैसे सीमित क्षेत्र में भी प्रायः यह देखने को मिलता है कि जो धनवान हैं, उनके प्रति सत्कार एवं सहायता की भावना अधिक होती है। घर में जब कभी कोई धनवान आता है तो उसकी खूब सेवा की जाती है, लेकिन जब द्वार पर भिखारी आता है तो उसको दुत्कार दिया जाता है। निर्धन ईमानदारी एवं सत्य के पथ पर चलता.. हुआ भी अनेक कष्टों का सामना करता है जबकि शक्तिशाली दुराचार एवं अन्याय के पथ पर बढ़ता हुआ भी दूसरों की सहायता प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसका कारण यही है कि उसके पास शक्ति है तथा अपने कुकृत्यों को छिपाने के लिए साधन हैं। अतः वृंदकवि का यह कथन बिलकुल सार्थक प्रतीक होता है-“सबै सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय।”.
प्रश्न 65.
सच्चे मित्र से जीवन में सौंदर्य आता है .
उत्तर
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के अभाव में उसका जीवन-निर्वाह संभव नहीं। सामाजिकों के साथ हमारे संबंध अनेक प्रकार के हैं। कुछ हमारे संबंधी हैं, कुछ परिचित तथा कुछ मित्र होते हैं। मित्रों में भी कुछ विशेष प्रिय होते हैं। जीवन में यदि सच्चा मित्र मिल जाए तो समझना चाहिए कि हमें बहुत बड़ी निधि मिल गई है। सच्चा मित्र हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। वह दिन प्रतिदिन हमें उन्नति की ओर ले जाता है। उसके सद्व्यवहार से हमारे जीवन में निर्मलता का प्रसार होता है। दुःख के दिनों में वह हमारे लिए विशेष सहायक होता है। जब हम निरुत्साहित होते हैं तो वह हम में उत्साह भरता है। वह हमें कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग की ओर चलने की प्रेरणा देता है।
सुदामा एवं कृष्ण की तथा राम एवं सुग्रीव की आदर्श मित्रता को कौन नहीं जानता। श्रीकृष्ण ने अपने दरिद्र मित्र सुदामा की सहायता कर उसके जीवन को ऐश्वर्यमय बना दिया था। राम ने सुग्रीव की सहायता कर उसे सब प्रकार के संकट से मुक्त कर दिया। सच्चा मित्र कभी एहसान नहीं जतलाता। वह मित्र की सहायता करना अपना कर्तव्य .. समझता है। वह अपनी दरिद्रता एवं अपने दुख की परवाह न करता हुआ अपने मित्र के जीवन में अधिक-से-अधिक सौंदर्य लाने का प्रयत्न करता है। सच्चा मित्र जीवन के बेरंग खाके में सुखों के रंग भरकर उसे अत्यंत आकर्षक बना देता है, अत: ठीक ही कहा गया है, “सच्चे मित्र से जीवन में सौंदर्य आता है।”
प्रश्न 66.
जीवन का रहस्य निष्काम सेवा है
उत्तर
प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित करता है। कोई व्यापारी बनना चाहता है तो कोई कर्मचारी, कोई इंजीनियर बनने की लालसा से प्रेरित है तो कोई डॉक्टर बनकर घर भरना चाहता है। स्वार्थ पूर्ति के लिए किया गया काम उच्चकोटि की संज्ञा नहीं पा सकता। स्वार्थ के पीछे तो संसार पागल है। लोग भूल गए हैं कि जीवन का रहस्य निष्काम सेवा है। जो व्यक्ति काम-भावना से प्रेरित होकर काम करता है, वह कभी भी सुपरिणाम नहीं ला सकता। उससे कोई लाभ हो भी तो वह केवल व्यक्ति विशेष को ही होता है। समाज को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। निष्काम सेवा के द्वारा ही मनुष्य समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभा सकता है। कबीरदास ने भी अपने एक दोहे में यह स्पष्ट किया है
जब लगि भक्ति सकाम है, तब लेगि निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले निहकामी निज देव॥
निष्काम सेवा के द्वारा ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। समाज एवं देश को उन्नति की ओर ले जाने का श्रेष्ठतम तथा सरलतम साधन निष्काम सेवा है। हमारे संत कवियों तथा समाज-सुधारकों ने इसी भाव से प्रेरित होकर अपनी चिंता छोड़ देश और जाति के कल्याण की चिंता की। इसलिए वे समाज और राष्ट्र के लिए कुछ कर सके। अपने लिए तो सभी जीते हैं। जो दूसरों के लिए जीता है, उसका जीवन अमर हो जाता है। तभी तो गुप्तजी ने कहा है-‘वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।”
प्रश्न 67.
भीड़ भरी बस की यात्रा का अनुभव
उत्तर
वैसे तो जीवन को ही यात्रा की संज्ञा दी गई है पर कभी-कभी मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए गाड़ी अथवा बस का भी सहारा लेना पड़ता है। बस की यात्रा का अनुभव भी बड़ा विचित्र है। भारत जैसे जनसंख्या प्रधान देश में बस की यात्रा अत्यंत असुविधानजनक है। प्रत्येक बस में सीटें तो गिनती की हैं पर बस में चढ़ने वालों की संख्या निर्धारित करना एक जटिल कार्य है। भले ही बस हर पाँच मिनट बाद चले पर चलेगी पूरी तरह भर कर। गरमियों के दिनों में तो यह यात्रा किसी भी यातना से कम नहीं। भारत के नगरों की अधिकांश सड़कें सम न होकर विषम हैं।
खड़े हुए यात्री की तो दुर्दशा हो जाती है, एक यात्री दूसरे यात्री पर गिरने लगता है। कभी-कभी तो लड़ाई-झगड़े की नौबत पैदा हो जाती है। लोगों की जेबें कट जाती हैं। जिन लोगों के कार्यालय दूर हैं, उन्हें प्राय: बस का सहारा लेना ही पड़ता है। बस-यात्रा एक प्रकार से रेल-यात्रा का लघु रूप है। जिस प्रकार गाड़ी में विभिन्न जातियों एवं प्रवृत्तियों के लोगों के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार बस में भी अलग-अलग विचारों के लोग मिलते हैं। इनसे मनुष्य बहुत कुछ सीख भी सकता है।
भीड़ भरी बस की यात्रा जीवन की कठिनाइयों का सामना करने का छोटा-सा शिक्षालय है। यह यात्रा इस तथ्य की परिचायक है कि भारत अनेक क्षेत्रों में अभी तक भरपूर प्रगति नहीं कर सका। जो व्यक्ति बस-यात्रा के अनुभव से वंचित है, वह एक प्रकार से भारतीय जीवन के बहुत बड़े अनुभव से ही वंचित है।
प्रश्न 68.
हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ
उत्तर
इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है, उस सबके पीछे विधि का प्रबल हाथ है। मनुष्य के भविष्य के विषय में बड़े-बड़े ज्योतिषी भी सही अनुमान नहीं लगा सकते। भाग्य रूपी नर्तकी के क्रिया-कलाप बड़े विचित्र हैं। विधि के विधान पर भले कोई रीझे अथवा शोक मनाए पर होनी होकर और अपना प्रभाव दिखाकर रहती है। मनुष्य तो विधि के हाथ का खिलौना मात्र है। हमारे भक्त कलाकारों ने विधि की प्रबल शक्ति के आगे नत-मस्तक होकर जीवन की प्रत्येक स्थिति पर संतोष प्रकट करने की प्रेरणा दी है।
उक्त उक्ति जीवन संबंधी गहन अनुभव का निष्कर्ष है। जो व्यक्ति जीवन के सुखद एवं दुखद अनुभवों का भोक्ता बन चुका है, वह बिना किसी तर्क के इस उक्ति का समर्थन करेगा-“हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ” मनुष्य सोचता कुछ है पर विधाता और भाग्य को कुछ और ही स्वीकार होता है। मनुष्य लाभ के लिए काम करता है, दिन-रात परिश्रम करता है, वह काम की सिद्धि के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है, लेकिन परिणाम उसकी आशा के सर्वथा विपरीत भी हो सकता है।
मनुष्य जीने की लालसा में न जाने क्या कुछ करता है पर जब मौत अनायास ही अपने दल-बल के साथ आक्रमण करती है तो सब कुछ धरे का . धरा रह जाता है। मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है, पर उसे मिलती है बदनामी और निराशा। इतिहास में असंख्य उदाहरण हैं जो उक्त कथन के साक्षी रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। राम, कृष्ण, जगत जननी सीता एवं सत्य के उपासक राजा हरिश्चंद्र तक विधि की विडंबना से नहीं बच सके। तब सामान्य मनुष्य की बात ही क्या है? वह व्यर्थ में ही अपनी शक्ति एवं साधनों की डींगे हाँकता है। उक्त उक्ति में यह संदेश निहित है कि मनुष्य को अपने जीवन में आने वाली प्रत्येक आपदा का सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। कबीरजी ने भी कहा है कि-“करम गति टारे नाहिं टरे।”
प्रश्न 69.
दैव दैव आलसी पुकारा
उत्तर
इस उक्ति का अर्थ है कि आलसी व्यक्ति ही भाग्य की दुहाई देता है। वह भाग्य के भरोसे ही जीवन बिता देना चाहता है। सुख प्राप्त होने पर वह भाग्य की प्रशंसा करता है और दुख आने पर वह भाग्य को कोसता है। यह ठीक है कि भाग्य का भी हमारे जीवन में महत्त्व है, लेकिन आलसी बनकर बैठे रहना तथा असफलता प्राप्त होने पर भाग्य को दोष देना किसी प्रकार भी उचित नहीं। प्रयास और परिश्रम की महिमा कौन नहीं जानता? परिश्रम के बल पर मनुष्य भाग्य की रेखाओं को बदल सकता है। परिश्रम सफलता की कुंजी है। कहा भी है-“यदि पुरुषार्थ मेरे दाएँ हाथ में है तो विजय बाएँ हाथ में।” परिश्रम से मिट्टी भी सोना उगलती है। आलसी एवं कामचोर व्यक्ति ही भाग्य के लेख पढ़ते हैं। वही ज्योतिषियों का दरवाजा खटखटाते हैं। कर्मठ व्यक्ति तो बाहुबल पर भरोसा करते हैं। परिश्रमी व्यक्ति स्वावलंबी, ईमानदार, सत्यवादी एवं चरित्रवान होता है। आलसी व्यक्ति जीवन में कभी प्रगति नहीं कर सकता। आलस्य जीवन को जड़ बनाता है। आलसी परावलंबी होता है। वह कभी भी पराधीनता के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता। वह भाग्य के भरोसे रहकर जीवन-भर दुख भोगता रहता है।
प्रश्न 70.
आवश्यकता आविष्कार की जननी है
उत्तर
आवश्यकता अनेक आविष्कारों को जन्म देती है। शारीरिक तथा बौद्धिक दोनों प्रकार के बल का उपयोग करके मनुष्य ने अपने लिए अनेक सुविधाएँ जुटाई हैं। इन्हीं आविष्कारों के बल पर मनुष्य आज सुख-सुविधा के झूले में झूल रहा है। जब उसने अनुभव किया कि बैलगाड़ी की यात्रा है और न ही इससे समय की बचत होती है। तो उसने तेज़ गति से चलने वाले वाहनों का आविष्कार किया। रेल, कार तथा वायुयान आदि उसकी आवश्यकता की पूर्ति करने वाले साधन हैं।
बिजली के अनेक चमत्कार, टेलीफ़ोन आदि भी मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति करने वाले साधन हैं। इन आविष्कारों की कोई सीमा नहीं। जैसे-जैसे मानव-जाति की आवश्यकता बढ़ती है वैसे-वैसे नए आविष्कार हमारे सामने आते हैं। मनुष्य की बुद्धि के विकास के साथ ही आविष्कारों की भी संख्या बढ़ती जाती है। अत: यह ठीक ही कहा है कि ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है।’
प्रश्न 71.
आत्म-निर्भरता
उत्तर
आत्म-निर्भरता अथवा स्वावलंबन का अर्थ है-अपना सहारा आप बनना। बिना किसी की सहायता लिए अपना कार्य सिद्ध कर लेना आत्म निर्भरता कहलाता है। आत्म-निर्भरता का यह अर्थ कदापि नहीं कि मनुष्य हर काम में मनमर्जी करे। आवश्यकतानुसार उसे दूसरों से परामर्श भी लेना चाहिए। आत्म-निर्भरता का गुण साधन एवं परिश्रम से आता है। आत्मविश्वास आत्म-निर्भरता का मूल आधार है। आत्मविश्वास के अभाव में आत्म-निर्भरता का गुण नहीं आता। आत्म-निर्भरता का गुण मनुष्य का एकमात्र सच्चा मित्र है। अन्य मित्र तो विपत्ति में साथ छोड़ सकते हैं, पर इस मित्र के बल पर मनुष्य चाहे तो विश्व-विजय का सपना साकार कर सकता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति स्वाभिमानी एवं स्वतंत्रता-प्रिय होता है। वह अपने उद्धार के साथ-साथ देश और जाति का उद्धार करने में भी समर्थ होता है। जिस देश के प्रत्येक नागरिक में आत्म-निर्भरता का गुण होता है, वह प्रत्येक क्षेत्र में भरपूर उन्नति कर सकता है।
प्रश्न 72.
करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान ।
उत्तर
निरंतर अभ्यास से मूर्ख मनुष्य भी मेधावी बन सकता है। जिस प्रकार रस्सी के निरंतर आने-जाने से शिला पर निशान पड़ जाते हैं। उसी प्रकार अभ्यास.से मनुष्य जड़मति से सुजान हो जाता है। यह ठीक है कि गधे को पीट-पीटकर घोड़ा तो नहीं बनाया जा सकता, किंतु निरंतर अभ्यास और प्रयत्न से अनेकानेक गुणों का विकास किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, कवियों में कविता करने की शक्ति ईश्वर-प्रदत्त होती है, परंतु निरंतर अभ्यास से भी कविता संपादित की जा सकती है।
सच तो यह है कि अभ्यास सबके लिए आवश्यक है। कोई भी कलाकार बिना अभ्यास के सफलता की चरम-सीमा को नहीं छू सकता। परिपक्वता अभ्यास से ही आती है। जब हम किसी भी काम को सीखना चाहते हैं तो उसके लिए अभ्यास अनिवार्य है। एक अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए नित्य प्रति खेलने का अभ्यास आवश्यक है तो एक अच्छा संगीतकार बनने के लिए निरंतर स्वर-साधना का अभ्यास अपेक्षित है।
प्रश्न 73.
अधजल गगरी छलकत जाय ।
उत्तर
जल से आमुख भरी गगरी चुपचाप बिना उछले चलती है। आधी भरी हुई जल की मटकी उछल-उछलकर चलती है। ठीक यही स्वभाव मानव मन का भी है। वास्तविक विद्वान् विनम्र हो जाते हैं। नम्रता ही उनकी शिक्षा का प्रतीक होता है। दूसरी ओर जो लोग अर्द्ध-शिक्षित होते हैं अथवा अर्द्ध-समृद्ध होते हैं, वे अपने ज्ञान अथवा धन की डींग बहुत हाँकते हैं। अर्द्ध-शिक्षित व्यक्ति का डींग हाँकना बहुत कुछ मनोवैज्ञानिक भी है। वे लोग अपने ज्ञान का प्रदर्शन करके अपनी अपूर्णता को ढकना चाहते हैं। उनके मन में अपने अधूरेपन के प्रति एक प्रकार की हीनता का मनोभाव भाव उत्पन्न करके समाप्त करना चाहते हैं।
यही कारण है कि मध्यमवर्गीय व्यक्तियों के जीवन जितने आडंबरपूर्ण, प्रपंचपूर्ण एवं लचर होते हैं उतने निम्न या उच्चवर्ग के नहीं। उच्चवर्ग में शिक्षा, धन और समृद्धि रच जाती है। इस कारण ये चीजें महत्त्व को बढ़ाने का साधन नहीं बनती। मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपनी हर समृद्धि को, अपने गुण को, अपने महत्त्व को हथियार बनाकर चलाता है। प्राय: यह व्यवहार देखने में आता है कि अंग्रेजी की शिक्षा से अल्प परिचित लोग अंग्रेजी बोलने तथा अंग्रेज़ी में निमंत्रण-पत्र छपवाने में अधिक गौरव अनुभव करते हैं। अत: यह सत्य है कि अपूर्ण समृद्धि प्रदर्शन को जन्म देती है अर्थात् अधजल गगरी छलकत जाय।
74.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
प्रश्न उत्तर
अपनी भाषा के उत्थान के बिना व्यक्ति उन्नति ही नहीं कर सकता। भाषा अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम है। भाषा सामाजिक जीवन का अपरिहार्य अंग है। इसके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपनी भाषा में अपने मन के विचारों को प्रकट करने में सुविधा रहती है। विदेशी भाषा कभी भी हमारे भावों को उतनी गहरी अभिव्यक्ति नहीं दे सकती जितनी हमारी मातृभाषा। महात्मा गांधीजी ने भी इसी बात को ध्यान में रखकर मातृ-भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल दिया था। हमारे देश में अंग्रेजी के प्रयोग पर इतना अधिक बल दिए जाने के उपरांत भी अपेक्षित सफलता इसी कारण नहीं मिल पा रही है क्योंकि इसके द्वारा हम अपने विचारों को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं दे सकते। हम हीनता की भावना का शिकार हो रहे हैं। अंग्रेज़ी-परस्तों द्वारा दिया जाने वाला यह तर्क भ्रमित कर रहा है कि, “अंग्रेज़ी ज्ञान का वातायन है।” अपनी भाषा के बिना मानव की मानसिक भूख शांत नहीं हो सकती। निज भाषा की उन्नति से ही समाज की उन्नति होती है। निज भाषा जननी तुल्य है। अत: कहा गया है कि
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिना निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥
प्रश्न 75.
वीर भोग्या वसुंधरा
उत्तर
वीर लोग ही वसुंधरा का भोग करते हैं। जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘स्कंदगुप्त’ में भटार्क नामक पात्र कहता है ‘वीर लोग एक कान से तलवार का तथा दूसरे से नूपुर की झंकार सुना करते हैं।’ यह सत्य उक्ति है कि वीरता और भोग परस्पर पूरक हैं। वीरता भोगप्रिय होती है। विजय पाने के लिए प्रेरणा चाहिए, उत्साह चाहिए, पौरुष और सामर्थ्य चाहिए। भोग करने के लिए स्वस्थ, उमंगपूर्ण, उत्साहित एवं शक्तिशाली शरीर चाहिए। बूढ़े लोग कभी भोग नहीं कर सकते। हर गहरे भोग के लिए अंत:स्थल में जोश और आवेग होना चाहिए, जो वीरों में ही होता है। हिंदी साहित्य का आदिकाल इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है।
तत्कालीन राजा लड़ते थे, भोगते थे, मर जाते थे। इतिहास साक्षी है कि भोग के साधनों को उसी जाति या राजा ने विपुल मात्रा में जुटाया जो जूझारू थे, संघर्षशील थे। यह सामान्य मानव-प्रकृति है कि व्यक्ति युवावस्था में सांसारिक द्रव्यों . पीछे भागता है, उन्हें एकत्र करता है, किंतु वृद्धावस्था में उन्हीं द्रव्यों को मायामय कहकर तिरस्कृत करने लगता है। उस तिरस्कार के पीछे द्रव्य का मायामय हो जाना नहीं, अपितु उसकी भोग की इच्छा का शिथिल पड़ जाना है, उसकी पाचन-शक्ति मंद पड़ जाना है। युवावस्था में शरीर हर प्रकार की तेजस्विता से संपन्न होता है, इसलिए उस समय भोग की इच्छा सर्वाधिक उठती है। अतः यह प्रमाणित सत्य है कि वीर लोग ही धरती का त धरती के समस्त भोगों का रसपान करते हैं, कर पाते हैं।
प्रश्न 76.
मन चंगा तो कठौती में गंगा
उत्तर
संत रविदास का यह वचन एक मार्मिक सत्य का उद्घाटन करता है। मानव के लिए मन की निर्मलता का होना आवश्यक है। जिसका मन निर्मल होता है, उसे बाहरी निर्मलता ओढ़ने या गंगा के स्पर्श से निर्मलता प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिनके मन में मैल होती है, उन्हें ही गंगा की निर्मलता अधिक आकर्षित करती है। स्वच्छ एवं निष्पाप हृदय का व्यक्ति बाह्य आडंबरों से दूर रहता है। अपना महत्त्व प्रतिपादित करने के लिए वह विभिन्न प्रपंचों का सहारा नहीं लेता।
प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि घर-बार सभी त्याग कर सभी भौतिक सुखों से रहित होकर भी परमानंद की प्राप्ति इसीलिए कर लेते थे कि उनकी मन-आत्मा पर व्यर्थ के पापों का बोझ नहीं होता था। बुरे मन का स्वामी चाहे कितना भी प्रयास कर ले कि उसे आत्मिक शांति मिले, परंतु वह उसे प्राप्त नहीं कर सकता। भक्त यदि परमात्मा को पाना चाहते हैं तो भगवान् स्वयं भी उसकी भक्ति से प्रभावित हो उसके निकट आना चाहता है। वह भक्त के निष्कपट, निष्पाप और निष्कलुष हृदय में मिल जाना चाहता है।
प्रश्न 77.
तेते पाँव पसारिए जेती लंबी सौर
उत्तर
जीवन में अनेक दुख मनुष्य स्वयं मोल लेता है। इन दुखों का कारण उसके चरित्र में छिपी दुर्बलता होती है। अपव्यय की आदत भी एक ऐसी ही दुर्बलता है। जीवन में सुखी बनने के लिए अपनी आय एवं व्यय के बीच संतुलन रखना अत्यंत आवश्यक है। अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखे बिना मनुष्य जीवन में सफल नहीं हो सकता। आय के अनुसार व्यय की आदत डालना जीवन में संयम, व्यवस्था एवं स्वावलंबन जैसे गुण लाती है। आय के अनुरूप खर्च करना किसी प्रकार से भी कंजूसी नहीं कहलाता। कंजूस की संज्ञा तो वह पाता है जो धन के होते हुए भी जीवन के लिए आवश्यक कार्यों में भी धन खर्च नहीं करता। अल्प व्यय के गुण को लक्ष्य करके ही वृंद कवि ने कहा था कि “तेते पाँव पसारिए जेती लांबी
सौर”।
यदि संसार के अधिकांश व्यक्ति अपव्ययी होते तो इस संसार का निर्माण भी संभव न होता। सरकार का भी कर्तव्य है कि वह व्यय करने में अपनी आय की मर्यादा का उल्लंघन न करे अन्यथा जनता को संतुलित रखने के लिए स्वयं को असंतुलित बनाना पड़ेगा। आय के अनुरूप व्यय करने से मनुष्य को कभी आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ता। मितव्ययिता के अभ्यास द्वारा उसका भविष्य भी सुरक्षित हो जाता है। उसे किसी की खुशामद नहीं करनी पड़ती। मितव्ययी बनने के लिए आवश्यक है कि अपना हर एक काम योजना बनाकर किया जाए। कहीं भी आवश्यकता . से अधिक व्यय न करें। अपनी आय के अनुसार खर्च करने वाला व्यक्ति स्वयं भी आनंद उठाता है और उसका परिवार भी प्रसन्नचित्त दिखाई देता है। यह आदत समाज में प्रतिष्ठा दिलाती है। अत: प्रत्येक को अधोलिखित सूक्ति के अनुसार अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न करना चाहिए तेते पाँव पसारिए जेती लंबी सौर।
प्रश्न 78.
जहाँ चाह वहाँ राह मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
उत्तर
समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीवन-यापन करने के लिए उसे निरंतर संघर्षशील रहना पड़ता है। इसके लिए वह नित्य रहे तथा वह नित्य प्रति उन्नति करता रहे। यदि मनष्य के मन में उन्नति करने की इच्छा नहीं होगी तो वह कभी उन्नति कर ही नहीं सकता। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रयत्न करता है तब कहीं अंत में उसे सफलता मिलती है। – सबसे पहले मन में किसी कार्य को करने की इच्छा होनी चाहिए, तभी हम कार्य करते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं।
संस्कृत में एक कथन है कि ‘उद्यमेनहि सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथः’ अर्थात् परिश्रम से ही कार्य की सिद्धि होती है। परिश्रम मनुष्य तब करता है जब उसके मन में परिश्रम करने की इच्छा उत्पन्न होती है। जिस मनुष्य के मन में कार्य करने की इच्छा ही नहीं होगी वह कुछ भी नहीं कर सकता। जैसे पानी पीने की इच्छा होने पर हम नल अथवा कुएँ से पानी लेकर पीते हैं। यहाँ पानी पीने की इच्छा ने पानी को प्राप्त करने के लिए हमें नल अथवा कुएँ तक जाने का मार्ग बनाने की प्रेरणा दी। अत: कहा जाता है कि जहाँ चाह वहाँ राह।
प्रश्न 79.
का वर्षा जब कृषि सुखाने
उत्तर
गोस्वामी तुलसीदास की इस सूक्ति का अर्थ है-जब खेती ही सूख गई, तब पानी के बरसने का क्या लाभ है ? जब ठीक अवसर पर वांछित वस्तु उपलब्ध न हुई तो बाद में उस वस्तु का मिलना बेकार ही है। साधन की उपयोगिता तभी सार्थक हो सकती है, जब वे समय पर उपलब्ध हो जाएँ। अवसर बीतने पर सब साधन व्यर्थ पड़े रहते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है-लोहे पर तभी चोट करो जबकि वह गर्म हो अर्थात् जब लोहा मुड़ने और ढलने को तैयार हो, तभी उचित चोट करनी चाहिए।
उस अवसर को खो देने पर केवल लोहे की टन-टन की आवाज़ के अतिरिक्त कुछ लाभ नहीं मिल सकता। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह उचित समय की प्रतीक्षा में हाथ-पर-हाथ धरकर न बैठा रहे, अपितु समय की आवश्यकता को पहले से ध्यान करके उसके लिए उचित तैयारी करे। हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है कि समय एक ऐसी स्त्री है जो अपने लंबे बाल मुँह के आगे फैलाए हुए निरंतर दौड़ती चली जा रही है। जिसे भी समय रूपी उस स्त्री को वश में करना हो, उसे चाहिए कि वह समय के आगे-आगे दौड़कर उस स्त्री के बालों से उसे पकड़े। उसके पीछे-पीछे दौड़ने से मनुष्य उसे नहीं पकड़ पाता। आशय यह है कि उचित समय पर उचित साधनों का होना ज़रूरी है। जो लोग आग लगाने पर कुआँ खोदते हैं, वे आग में अवश्य झुलस जाते हैं। उनका कुछ भी शेष नहीं बचता।
प्रश्न 80.
परिश्रम सफलता की कुंजी है
उत्तर
संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति है-‘उद्यमेनहि सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथः’ अर्थात् परिश्रम से ही कार्य सिद्धि होती है, मात्र इच्छा करने से नहीं। सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम ही एकमात्र मंत्र है। ‘श्रमेव जयते’ का सूत्र इसी भाव की ओर संकेत करता है। परिश्रम के बिना हरी-भरी खेती सूखकर झाड़ बन जाती है जबकि परिश्रम से बंजर भूमि को भी शस्य-श्यामला बनाया जा सकता है। असाध्य कार्य भी परिश्रम के बल पर संपन्न .. किए जा सकते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति कितने ही प्रतिभाशाली हों, किंतु उन्हें लक्ष्य में सफलता तभी मिलती है जब वे अपनी बुद्धि और प्रतिभा को परिश्रम की सान पर तेज़ करते हैं। न जाने कितनी संभावनाओं के बीज पानी, मिट्टी, सिंचाई और जुताई के अभाव में मिट्टी बन जाते हैं, जबकि ठीक संपोषण प्राप्त करके कई बीज सोना भी बन जाते हैं। कई बार प्रतिभा के अभाव में परिश्रम ही अपना रंग दिखलाता है।
प्रसिद्ध उक्ति है कि निरंतर घिसाव से पत्थर पर भी चिह्न पड़ जाते हैं। जड़मति व्यक्ति परिश्रम द्वारा ज्ञान उपलब्ध कर लेता है। जहाँ परिश्रम तथा प्रतिभा दोनों एकत्र हो जाते हैं वहाँ किसी अद्भुत कृति का सृजन होता है। शेक्सपीयर ने महानता को दो श्रेणियों में विभक्त किया है-जन्मजात महानता तथा अर्जित महानता। यह अर्जित महानता परिश्रम के बल पर ही अर्जित की जाती है। अत: जिन्हें ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त नहीं है, उन्हें अपने श्रम-बल का भरोसा रखकर. . कर्म में जुटना चाहिए। सफलता अवश्य ही उनकी चेरी बनकर उपस्थित होगी।
प्रश्न 81.
पशु न बोलने से और मनुष्य बोलने से कष्ट उठाता है
उत्तर
मनुष्य को ईश्वर की ओर से अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें वाणी अथवा वाक्-शक्ति का गुण सबसे महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति वाणी का सदुपयोग करता है, उसके लिए तो यह वरदान है और जिसकी जीभ कतरनी के समान निरंतर चलती रहती है, उसके लिए वाणी का गुण अभिशाप भी बन जाता है। भाव यह है कि वाचालता दोष है। पशु के पास वाणी की शक्ति नहीं, इसी कारण जीवन-भर उसे दूसरों के अधीन रहकर कष्ट उठाना पड़ता है। वह सुख-दुख का अनुभव तो करता है पर उसे व्यक्त नहीं कर सकता। उसके पास वाणी का गुण होता तो उसकी दशा कभी दयनीय न बनती।
कभी-कभी पशु का सद्व्यवहार भी मनुष्य को भ्रांति में डाल देता है। अनेक कहानियाँ ऐसी हैं जिनके अध्ययन से पता चलता है कि पशुओं ने मनुष्य-जाति के लिए अनेक बार अपने बलिदान और त्याग का परिचय दिया है पर वाक् -शक्ति के अभाव के कारण उसे मनुष्य के द्वारा निर्मम मृत्यु का भी सामना करना पड़ा है। इसके विपरीत मनुष्य अपनी वाणी के दुरुपयोग के कारण अनेक बार कष्ट उठाता है। रहीम ने अपने दोहे में व्यक्त किया है कि जीभ तो अपनी मनचाही बात कहकर मुँह में छिप जाती है पर जूतियाँ का सामना करना पड़ता है बेचारे सिर को। अभिप्राय यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए।
इस संसार में बहुत-से झगड़ों का कारण वाणी का दुरुपयोग है। एक नेता के मुख से निकली हुई बात सारे देश को युद्ध की ज्वाला में झोंक सकती है। अत: यह ठीक ही कहा गया है कि पशु न बोलने से कष्ट उठाता है और मनुष्य बोलने से। कोई भी बात कहने से पहले उसके परिणाम पर विचार कर लेना चाहिए।
प्रश्न 82.
कारज धीरे होत हैं, काहे होत अधीर
उत्तर
जिसके पास धैर्य है, वह जो इच्छा करता है, प्राप्त कर लेता है। प्रकृति हमें धीरज धारण करने की सीख देती है। धैर्य जीवन की लक्ष्य प्राप्ति का द्वारा खोलता है। जो लोग ‘जल्दी करो, जल्दी करो’ की रट लगाते हैं, वे वास्तव में ‘अधीर मन, गति कम’ लोकोक्ति को चरितार्थ करते हैं। सफलता
और सम्मान उन्हीं को प्राप्त होता है, जो धैर्यपूर्वक काम में लगे रहते हैं। शांत मन से किसी कार्य को करने में निश्चित रूप से कम समय लगता है। बचपन के बाद जवानी धीरे-धीरे आती है। संसार के सभी कार्य धीरे-धीरे संपन्न होते हैं। यदि कोई रोगी डॉक्टर से दवाई लेने के तुरंत पश्चात् पूर्णतया स्वस्थ होने की कामना करता है, तो यह उसकी नितांत मूर्खता है। वृक्ष को कितना भी पानी दो, परंतु फल प्राप्ति तो समय पर ही होगी। संसार के सभी महत्त्वपूर्ण विकास कार्य धीरे-धीरे अपने समय पर ही होते हैं। अतः हमें अधीर होने की बजाय धैर्यपूर्वक अपने कार्य में संलग्न होना चाहिए।
प्रश्न 83.
दूर के ढोल सुहावने
उत्तर
इस उक्ति का अर्थ है कि दूर के रिश्ते-नाते बड़े अच्छे लगते हैं। जो संबंधी एवं मित्रगण हम से दूर रहते हैं, वे पत्रों के द्वारा हमारे प्रति कितना अगाध स्नेह प्रकट करते हैं। उनके पत्रों से पता चलता है कि वे हमारे पहुँचने पर हमारा अत्यधिक स्वागत करेंगे। हमारी देखभाल तथा हमारे आदर सत्कार में कुछ कसर न उठा सकेंगे। लेकिन जब उनके पास पहुँचते हैं तो उनका दूसरा ही रूप सामने आने लगता है। उनके व्यवहार में यह चरितार्थ हो जाता है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। दूर बजने वाले ढोल की आवाज़ भी तो कानों को मधुर लगती है। पर निकट पहुँचते ही उसकी ध्वनि कानों को कटु लगने लगती है। दूर से झाड़-झंखाड़ भी सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है पर निकट जाने पर पाँवों के छलनी हो जाने का डर उत्पन्न हो जाता है। ठीक ही कहा है-दूर के ढोल सुहावने।
प्रश्न 84.
लोभ पाप का मूल है
उत्तर
संस्कृत के किसी नीतिकार का कथन है कि लोभ पाप का मूल है। मन का लोभ ही मनुष्य को चोरी के लिए प्रेरित करता है। लोभ अनेक अपराधों को जन्म देता है। लोभ, अत्याचार, अनाचार और अनैतिकता का कारण बनता है। महमूद गज़नवी जैसे शासकों ने धन के लोभ में आकर मनमाने अत्याचार किए। औरंगजेब ने अपने तीनों भाइयों का वध कर दिया और पिता को बंदी बना लिया। ज़र, जोरू तथा जमीन के झगड़े भी प्रायः लोभ के कारण होते हैं। लोभी व्यक्ति का हृदय सब प्रकार की बुराइयों का अड्डा होता है। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि इच्छाओं का लोभ ही चिंताओं का मूल कारण है। लालची व्यक्ति बहुत कुछ अपने पास रखकर भी कभी संतुष्ट नहीं होता। उसकी दशा तो उस मूर्ख लालची के समान हो जाती है जो मुरगी का पेट फाड़कर सारे अंडे निकाल लेना चाहता है। लोभी व्यक्ति अंत में पछताता है। लोभी किसी पर उपकार नहीं कर सकता। वह तो सबका अपकार ही करता है। इसलिए अगर कोई पाप से बचना चाहता है तो वह लोभ से बचे।
प्रश्न 85.
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं
उत्तर
“पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं’ उक्ति का अर्थ है कि पराधीन व्यक्ति सपने में भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। पराधीन और परावलंबी के लिए सुख बना ही नहीं। पराधीनता एक प्रकार का अभिशाप है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक पराधीनता की अवस्था में छटपटाने लगते हैं। पराधीन हमेशा शोषण की चक्की में पिसता रहता है। उसका स्वामी उसके प्रति जैसे भी अच्छा-बुरा व्यवहार चाहे कर सकता है। पराधीन व्यक्ति अथवा जाति अपने आत्म-सम्मान को सुरक्षित नहीं रख सकते। किसी भी व्यक्ति, जाति अथवा देश की पराधीनता की कहानी दुख एवं पीड़ा की कहानी है। स्वतंत्र व्यक्ति दरिद्रता एवं अभाव में भी जिस सुख का अनुभव कर सकता है, पराधीन व्यक्ति उस सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता। अत: ठीक ही कहा गया है-‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं।’
प्रश्न 86.
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
उत्तर
दूसरों को उपदेश देना अर्थात् सब प्रकार से आदर्शों का पालन करने की प्रेरणा देना सरल है। जैसे कहना सरल तथा करना कठिन है, उसी प्रकार स्वयं अच्छे पथ पर चलने की अपेक्षा दूसरों को अच्छे काम करने का संदेश देना सरल है। जो व्यक्ति दूसरों को उपदेश देता है, वह स्वयं भी उन उपदेशों का पालन कर रहा है, यह जरूरी नहीं। हर व्यापारी, अधिकारी तथा नेता अपने नौकरों, कर्मचारियों तथा जनता को ईमानदारी, सच्चाई तथा
कर्मठता का उपदेश देता है जबकि वह स्वयं भ्रष्टाचार के पथ पर बढ़ता रहता है। नेता मंच पर आकर कितनी सारगर्भित बातें कहते हैं, पर उनका आचरण हमेशा उनकी बातों के विपरीत होता है। माता-पिता तथा गुरुजन बच्चों को नियंत्रण में रहने का उपदेश देते हैं-पर वे यह भूल जाते हैं कि उनका अपना जीवन अनुशासनबद्ध एवं नियंत्रित ही नहीं।
प्रश्न 87.
जैसा करोगे वैसा भरोगे
उत्तर
‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ उक्ति का अर्थ है कि मनुष्य अपने जीवन में जैसा कर्म करता है, उसी के अनुरूप ही उसे फल मिलता है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है। सुकर्मों का फल अच्छा तथा कुकर्मों का फल बुरा होता है। दूसरों को पीड़ित करने वाला व्यक्ति एक दिन स्वयं पीड़ा के सागर में डूब जाता है। जो दूसरों का भला करता है, ईश्वर उसका भला करता है। कहा भी है, ‘कर भला हो भला’।
पुण्य से परिपूर्ण कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। जो दूसरों का शोषण करता है, वह कभी सुख की नींद नहीं सो सकता। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ वाली बात प्रसिद्ध है। मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्मों में रुचि लेनी चाहिए। दूसरों का हित करना तथा उन्हें संकट से मुक्त करने का प्रयास मानवता की पहचान है। मानवता के पथ पर बढ़ने वाला व्यक्ति मानव तथा दानवता के पथ पर बढ़ने वाला व्यक्ति दानव कहलाता है। मानवता की पहचान मनुष्य के शुभ कर्म हैं।
प्रश्न 88.
समय का महत्त्व/समय सबसे बड़ा धन है
उत्तर
दार्शनिकों ने जीवन को क्षणभंगुर कहा है। इनकी तुलना प्रभात के तारे और पानी के बुलबुले से की गई है। अत: यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि हम अपने जीवन को सफल कैसे बनाएँ। इसका एकमात्र उपाय समय का सदुपयोग है। समय एक अमूल्य वस्तु है। इसे काटने की वृत्ति जीवन को काट देती है। खोया समय पुनः नहीं मिलता। दुनिया में कोई भी शक्ति नहीं जो बीते हुए समय को वापस लाए। हमारे जीवन को सफलता-असफलता के सदपयोग तथा दुरुपयोग पर निर्भर करती है। कहा भी है-क्षण को क्षद्र न समझो भाई, यह जग का निर्माता है। हमारे देश समय का मूल्य नहीं समझते।
देर से उठना, व्यर्थ की बातचीत करना, खेल, शतरंज आदि में रुचि का होना आदि के द्वारा समय का नष्ट करना। यदि हम चाहते हैं तो पहले अपना काम पूरा करें। बहुत-से लोग समय को नष्ट करने में आनंद का अनुभव करते हैं। मनोरंजन के नाम पर समय नष्ट करना बहुत बड़ी भूल है। समय का सदुपयोग करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने दैनिक कार्य को करने का समय निश्चित कर लें। फिर उस कार्य को उसी काम में करने का प्रयत्न करें।
इस तरह का अभ्यास होने से समय का मूल्य समझ जाएँगे और देखेंगे कि हमारा जीवन निरंतर प्रगति की ओर बढ़ता जा रहा है। समय के सदुपयोग से ही जीवन का पथ सरल हो जाता है। महान् व्यक्तियों के महान बनने का रहस्य समय का सदुपयोग ही है। समय के सदुपयोग के द्वारा ही मनुष्य अमर कीर्ति का पात्र बन सकता है। समय का सदुपयोग ही जीवन का सदुपयोग है। इसी में जीवन की सार्थकता है-“कल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलै होयगी, बहुरि करोगे कब।”
प्रश्न 89.
स्त्री-शिक्षा का महत्त्व
उत्तर
विद्या हमारी भी न तब तक काम में कुछ आएगी।
अर्भागनियों को भी सुशिक्षा दी न जब तक जाएगी।
आज शिक्षा मानव-जीवन का एक अंग बन गई है। शिक्षा के बिना मनुष्य ज्ञान पंगु कहलाता है। पुरुष के साथ-साथ नारी को भी शिक्षा की आवश्यकता है। नारी शिक्षित होकर ही बच्चों को शिक्षा प्रदान कर सकती है। बच्चों पर पुरुष की अपेक्षा नारी के व्यक्तित्व का प्रभाव अधिक पड़ता है। अत: उसका शिक्षित होना ज़रूरी है। ‘स्त्री का रूप क्या हो?’ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि नारी और पुरुष के क्षेत्र अलग-अलग हैं। पुरुष को अपना अधिकांश जीवन बाहर के क्षेत्र में बिताना पड़ता है जबकि नारी को घर और बाहर में समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता होती है। सामाजिक कर्तव्य के साथ-साथ उसे घर के प्रति भी अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। अतः नारी को गृह-विज्ञान की शिक्षा में संपन्न होना चाहिए। अध्ययन के क्षेत्र में भी वह सफल भूमिका का निर्वाह कर सकती है। शिक्षा के साथ-साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी उसे योगदान देना चाहिए। सुशिक्षित माताएँ ही देश को अधिक योग्य, स्वस्थ और आदर्श नागरिक दे सकती हैं। स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री-शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार होना चाहिए। नारी को फ़ैशन से दूर रहकर सादगी के जीवन का समर्थन करना चाहिए। उसकी शिक्षा समाजोपयोगी हो।
प्रश्न 90.
कम्प्यूटर : मेरे जीवन में (CBSE 2018)
उत्तर
आज के युग में कम्प्यूटर तो सबके जीवन की आवश्यकता बन चुका है। मेरे जीवन में तो इसका अत्यधिक महत्वपूर्ण उपयोग है। मैं स्कूल के होस्टल में रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा हूँ इसलिए कम्प्यूटर तो मेरे लिए अनिवार्य बन चुका है। मैं इसके माध्यम से अपने घर से जुड़ा रहता हूँ। जब चाहता हूँ तब अपने घर से पलभर में जुड़ जाता हूँ। मुझे इसके माध्यम से केवल मम्मी-पापा और भाई-बहन ही दिखाई नहीं देते बल्कि इसके माध्यम से आपस में बाते भी हो जाती हैं।
कम्प्यूटर ने तो मेरी पढ़ाई मे परिवर्तन कर दिया है। एक समय था जब मुझे छोटी-छोटी बातों को समझने के लिए इधर-उधर से सहायता लेनी पड़ती थी लेकिन अब तो कम्प्यूटर पलभर में उस समस्या को हल कर देता है। अब तो मोटी-मोटी किताबों का बोझ भी इसने कम कर दिया है। इससे सारे संसार के ज्ञान को एक ही जगह पर प्राप्त कर लेने का कार्य पलक झपकते ही हो जाता है। कम्प्यूटर ने । दूर-दूर रहने वाले मित्रों और रिश्तेदारों को एक साथ जोड़ दिया है। मेरा जीवन तो अब मुझे कम्प्यूटर के बिना अधूरा लगता है।
प्रश्न 91.
मधुर-वाणी
उत्तर
वाणी ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ अलंकार है। वाणी के द्वारा ही मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान दूसरे व्यक्तियों से करता है। वाणी का मनुष्य के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। सुमधुर वाणी के प्रयोग से लोगों के साथ आत्मीय संबंध बन जाते हैं, जो व्यक्ति कर्कश वाणी का प्रयोग करते हैं, उनसे लोगों में कटुता की भावना व्याप्त हो जाती है। जो लोग अपनी वाणी का मधुरता से प्रयोग करते हैं उनकी सभी लोग प्रशंसा करते हैं। सभी लोग उनसे संबंध बनाने के इच्छुक रहते हैं। वाणी मनुष्य के चरित्र को भी स्पष्ट करने में सहायक होती है। जो व्यक्ति विनम्र और मधुर
रते हैं, उसके बारे में लोग यही समझते हैं कि इनमें सदभावना विद्यमान है। मधुर-वाणी मित्रों की संख्या में वृद्धि करती है। कोमल और मधुर वाणी से शत्रु के मन पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। वह भी अपनी द्वेष और ईर्ष्या की भावना को विस्तृत करके मधुर संबंध बनाने के इच्छुक हो जाता है। यदि कोई अच्छी बात भी कठोर और कर्कश वाणी में कही जाए तो लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया विपरीत होती है। लोग यही समझते हैं कि यह व्यक्ति अहंकारी है। इसलिए वाणी मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ अलंकार है तथा उसे उसका सदुपयोग करना चाहिए।
प्रश्न 92.
नारी शक्ति
उत्तर
नारी त्याग, तपस्या, दया, ममता, प्रेम एवं बलिदान की साक्षात मूर्ति है। नारी तो नर की जन्मदात्री है। वह भगिनी भी और पत्नी भी है। वह सभी रूपों में सुकुमार, सुंदर और कोमल दिखाई देती है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी नारी को पूज्य माना गया है। कहा गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। उसके हृदय में सदैव स्नेह की धारा प्रवाहित होती रहती है। नर की रुक्षता, कठोरता एवं उदंडता को नियंत्रित करने में भी नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वह धात्री, जन्मदात्री और दुखहीं है। नारी के बिना नर अपूर्ण है। नारी को नर से बढ़कर कहने में किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है।
नारी प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक अपनी महत्ता एवं श्रेष्ठता प्रतिपादित करती आई है। नारियाँ ज्ञान, कर्म एवं भाव सभी क्षेत्रों में अग्रणी रही हैं। यहाँ तक कि पुरुष वर्ग के लिए आरक्षित कहे जाने वाले कार्यों में भी उसने अपना प्रभुत्व स्थापित किया है। चाहे एवरेस्ट की चोटी ही क्यों न हो, वहाँ भी नारी के चरण जा पहुंचे हैं। एंटार्कटिका पर भी नारी जा पहुँची है। प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन वह अनेक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कर चुकी है। आधुनिक काल की प्रमुख नारियों में श्रीमती इंदिरा गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजिनी नायडू, बजेंद्री पाल, सानिया मिर्जा आदि का नाम गर्व के साथ लिया जा सकता है।
प्रश्न 93.
जिस दिन समाचार-पत्र नहीं आता
उत्तर
समाचार-पत्र का हमारे आधुनिक जीवन में बहुत महत्त्व है। देश-विदेश के क्रिया-कलापों का परिचय हमें समाचार-पत्र से ही प्राप्त होता है। कुछ लोग तो प्रायः अपना बिस्तर ही तभी छोड़ते हैं जब उन्हें चाय का कप और समाचार-पत्र प्राप्त हो जाता है। जिस दिन समाचार-पत्र नहीं आता उस दिन इस प्रकार के व्यक्तियों को यह प्रतीत होता है कि मानो दिन निकला ही न हो। कुछ लोग अपने घर के छज्जे आदि पर चढ़कर देखने लगते हैं कि कहीं समाचार-पत्र वाले ने समाचार-पत्र इतनी जोर से तो नहीं फेंका कि वह छज्जे पर जा गिरा हो। वहाँ से भी जब निराशा हाथ लगती है तो वह आस-पास के घर वालों से पूछते हैं कि क्या उनका समाचार-पत्र आ गया है?
यदि उनका समाचार-पत्र आ गया हो तो वे अपने समाचार-पत्र वाले को कोसने लगते हैं। उन्हें लगता है आज का उनका दिन अच्छा नहीं व्यतीत होगा। उनका अपने काम पर जाने का मन भी नहीं होता। वे पुराना अखबार उठाकर पढ़ने का प्रयास करते हैं किंतु पढ़ा हुआ होने पर उसे फेंक देते हैं तथा समाचार-पत्र वाहक पर आक्रोश व्यक्त करने लगते हैं। कई लोग तो समाचार-पत्र के अभाव में अपनी नित्य क्रियाओं से भी मुक्त नहीं हो पाते। वास्तव में जिस दिन समाचार-पत्र नहीं आता वह दिन अत्यंत फीका-फीका, उत्साह रहित लगता है।
प्रश्न 94.
वर्षा ऋतु की पहली बरसात
उत्तर
गरमी का महीना था। सूर्य आग बरसा रहा था। धरती तप रही थी। पशु-पक्षी तक गरमी के कारण परेशान थे। मजदूर, किसान, रेहड़ी-खोमचे वाले और रिक्शा चालक तो इस तपती गरमी को झेलने के लिए विवश होते हैं। पंखों, कूलरों और एयर कंडीशनरों में बैठे लोगों को इस गरमी की तपन का अनुमान नहीं हो सकता। जुलाई महीना शुरू हुआ इस महीने में ही वर्षा ऋतु की पहली वर्षा होती है। सबकी दृष्टि आकाश की ओर उठती है। किसान लोग तो ईश्वर से प्रार्थना के लिए अपने हाथ ऊपर उठा देते हैं। अचानक एक दिन आकाश में बादल छा गए। बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मोर पिऊ-पिऊ मधुर आवाज़ में बोलने लगे।
हवा में भी थोड़ी ठंडक आ गई। धीरे-धीरे हल्की-हल्की बूंदा-बाँदी शुरू हो गई। मैं अपने साथियों के साथ गाँव की गलियों में निकल पड़ा। साथ ही हम नारे लगाते जा रहे थे, ‘बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई फाके से’। किसान भी खुश थे। उनका कहना था-‘बरसे सावन तो पाँच के हों बावन’ नववधुएँ भी कह उठीं ‘बरसात वर के साथ’ और विरहिणी स्त्रियाँ भी कह उठी कि ‘छुट्टी लेके आजा बालमा, मेरा लाखों का सावन जाए।’ वर्षा तेज़ हो गई थी। खुले में वर्षा में भीगने, नहाने का मज़ा ही कुछ और है। वर्षा भी उस दिन कड़ाके से बरसी। मैं उन क्षणों को कभी भूल नहीं सकता। मैं उसे छू सकता था, देख सकता था और पी सकता था। मुझे अनुभव हुआ कि कवि लोग क्योंकर ऐसे दृश्यों से प्रेरणा पाकर अमर काव्य का सृजन करते हैं।
प्रश्न 95.
बस अड्डे का दृश्य
उत्तर
हमारे शहर का बस अड्डा राज्य के अन्य उन बस अड्डों में से एक है जिसका प्रबंध हर दृष्टि से बेकार है। इस बस अड्डे के निर्माण से पहले बसें अलग-अलग स्थानों से अलग-अलग अड्डों से चला करती थीं। सरकार ने यात्रियों की असुविधा को ध्यान में रखते हुए सभी बस अड्डे एक स्थान पर कर दिए। आरंभ में तो ऐसा लगा कि सरकार का यह कदम बड़ा सराहनीय है किंतु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया जनता की परेशानियाँ बढ़ने लगीं। बस अड्डे पर अनेक दुकानें बनाई गई हैं जिनमें खान-पान, फल-सब्जियों, पुस्तकों आदि की अनेक दुकानें हैं। खानपान की दुकान से उठने वाला धुआँ सारे यात्रियों की परेशानी का कारण बनता है। दुकानों की साफ़-सफ़ाई की तरफ़ कोई ध्यान नहीं देता। वहाँ माल बहुत महँगा मिलता है और गंदा भी।
बस अड्डे में कई रेहड़ी वालों को भी फल बेचने की आज्ञा दी गई है। ये लोग पोलीथीन के काले लिफ़ाफ़े रखते हैं जिनमें वे सड़े गले फल पहले से ही तोल कर रखते हैं और लिफ़ाफ़ा इस चालाकी से बदलते हैं कि यात्री को पता नहीं चलता। घर पहुँचकर ही पता चलता है कि उन्होंने जो फल चुने थे वे बदल दिए गए हैं। बस अड्डे की शौचालय की साफ़-सफ़ाई न होने के बराबर है। यात्रियों को टिकट देने के लिए लाइन नहीं लगवाई जाती। लोग भाग-दौड़ कर बस में सवार होते हैं। औरतों, बच्चों और वृद्ध लोगों का बस में सवार होना ही कठिन होता है। अनेक बार देखा गया है कि जितने लोग बस के अंदर होते हैं उतने ही बस के ऊपर चढ़े होते हैं। अनेक बस अड्डों का हाल तो उनसे भी गया-बीता है। जगह-जगह गंदा पानी, कीचड़, मक्खियाँ, मच्छर और न जाने किस-किस गंदगी की भरमार है। सभी बस अड्डे जेबकतरों के अड्डे बने हुए हैं। हर यात्री को अपने-अपने घर पहुँचने की जल्दी होती है इसलिए कोई भी बस अड्डे की इस बुरी हालत की ओर ध्यान नहीं देता।
प्रश्न 96.
शक्ति अधिकार की जननी है
उत्तर
शक्ति का लोहा कौन नहीं मानता है? इसी के कारण मनुष्य अपने अधिकार प्राप्त करता है। प्रायः यह दो प्रकार की मानी जाती है-शारीरिक और मानसिक। दोनों का संयोग हो जाने से बड़ी-से-बड़ी शक्ति को घुटने टेकने पर विवश किया जा सकता है। अधिकारों को प्राप्त करने के लिए… संघर्ष की आवश्यकता होती है। इतिहास इस बात का गवाह है कि अधिकार सरलता, विनम्रता और गिड़गिड़ाने से प्राप्त नहीं होते।
भगवान् कृष्ण ने पांडवों को अधिकार दिलाने की कितनी कोशिश की पर कौरव उन्हें पाँच गाँव तक देने के लिए सहमत नहीं हुए थे। तब पांडवों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए युद्ध का रास्ता अपनाना पड़ा। भारत को अपनी आज़ादी तब तक नहीं मिली थी जब तक उसने शक्ति का प्रयोग नहीं किया। देशवासियों ने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेज़ सरकार से टक्कर ली थी। तभी उन्हें सफलता प्राप्त हुई थी और देश को आजादी प्राप्त हो गयी।
कहावत है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र उसे शक्ति का प्रयोग करना ही पड़ता है। तभी अधिकारों की प्राप्ति होती है। शक्ति से ही अहिंसा का पालन किया जा सकता है, सत्य का अनुसरण किया जा सकता है, अत्याचार और अनाचार को रोका जा सकता है। इसी से अपने अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में ही शक्ति अधिकार की जननी है।
प्रश्न 97.
भाषण नहीं राशन चाहिए
उत्तर
हर सरकार का यह पहला काम है कि वह आम आदमी की सुविधा का पूरा ध्यान रखे। सरकार की कथनी तथा करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। केवल भाषणों से किसी का पेट नहीं भरता। यदि बातों से पेट भर जाता तो संसार का कोई भी व्यक्ति भूख-प्यास से परेशान न होता। भखे पेट से तो भजन भी नहीं होता। भारत एक प्रजातंत्र देश है। यहाँ के शासन की बागडोर प्रजा के हाथ में है, यह केवल कहने की बात है। इस देश में जो भी नेता कुरसी पर बैठता है, वह देश के उद्धार की बड़ी-बड़ी बातें करता है पर रचनात्मक रूप से कुछ भी नहीं होता। जब मंच पर आकर नेता भाषण देते हैं तो जनता उनके द्वारा दिखाए गए सब्जबाग से खुशी का अनुभव करती है। उसे लगता है कि नेता जिस कार्यक्रम की घोषणा कर रहे हैं, उससे निश्चित रूप से गरीबी सदा के लिए दूर हो जाएगी, लेकिन होता सब कुछ विपरीत है। अमीरों की अमीरी बढ़ती जाती है और आम जनता की गरीबी बढ़ती जाती है।
यह व्यवस्था का दोष है। इन नेताओं पर हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और वाली कहावत चरितार्थ होती है। जनता को भाषण की नहीं राशन की आवश्यकता है। सरकार की ओर से ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जनता को ज़रूरत की वस्तुएँ प्राप्त करने में कठिनाई का अनुभव न हो। उसे रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या का सामना न करना पड़े। सरकार को अपनी कथनी के अनुरूप व्यवहार भी करना चाहिए। उसे यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि जनता को भाषण नहीं राशन चाहिए। भाषणों की झूठी खुराक से जनता को बहुत लंबे समय तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।
प्रश्न 98.
हमारे पड़ोसी
उत्तर
अच्छे पड़ोसी तो रिश्तेदारों से अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे हमारे सुख-दुख के भागीदार होते हैं। जीवन के हर सुख-दुख में पड़ोसी पहले आते हैं और दूर रहने वाले सगे-संबंधी तो सदा ही देर से पहुँचते हैं। आज के स्वार्थी युग में ऐसे पड़ोसी मिलना बहुत कठिन है। जो सदा कंधे-से-कंधा मिलाकर सुख-दुख में एक साथ चलें। हमारे पड़ोस में एक अवकाश प्राप्त अध्यापक रहते हैं। वे सारे मुहल्ले के बच्चों को मुफ्त पढ़ाते हैं। एक दूसरे सज्जन हैं जो सभी पड़ोसियों के छोटे-छोटे काम बड़ी प्रसन्नता से करते हैं।
हमारे पड़ोस में एक प्रौढ़ महिला भी रहती है जिन्हें सारे मुहल्ले वाले मौसी कहकर पुकारते हैं। यह मौसी मुहल्ले भर के लड़के-लड़कियों की खोज-खबर रखती है। यहाँ तक कि किसकी लड़की अधिक फ़ैशन करती है, किसका लड़का अवारागर्द है। मौसी को सारे मुहल्ले की ही नहीं, सारे शहर की खबर रहती है। हम मौसी को चलता-फिरता अखबार कहते हैं। वह कई बार झठी चुगली करके कुछ पडोसियों को आपस में लडवाने की कोशिश भी कर चकी है। परंत सब उसकी चाल को समझ सारे पड़ोसी बहुत अच्छे हैं। एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं और समय पड़ने पर उचित सहायता भी करते हैं।
प्रश्न 99.
सपने में चाँद पर यात्रा
उत्तर
आज के समाचार-पत्र में पढ़ा कि भारत भी चंद्रमा पर अपना यान भेज रहा है। सारा दिन यही समाचार मेरे अंतर में घूमता रहा। सोया तो स्वप्न. में लगा कि मैं चंद्रयान से चंद्रमा पर जाने वाला भारत का प्रथम नार । जब मैं चंद्रमा के तल पर उतरा तो चारों ओर उज्ज्वल प्रकाश फैला हुआ था। वहाँ की धरती चाँदी से ढकी हुई-सी लग रही थी। तभी एकदम सफ़ेद वस्त्र पहने हुए परियों जैसी सुंदरियों ने मुझे पकड़ लिया और चंद्रलोक के महाराज के पास ले गईं। वहाँ भी सभी सफ़ेद उज्ज्वल वस्त्र पहने हुए थे।
उनसे वार्तालाप में मैंने स्वयं को जब भारत का नागरिक बताया तो उन्होंने मेरा सफ़ेद रसगुल्लों जैसी मिठाई से स्वागत किया। वहाँ सभी कुछ अत्यंत निर्मल और पवित्र था। मैंने मिठाई खानी शुरू ही की थी कि मेरी मम्मी ने मेरी बाँह पकड़कर मुझे उठा दिया और डाँट पड़ी कि चादर क्यों खा रहा है ? मैं हैरान था कि यह क्या हो गया? कहाँ तो मैं चंद्रलोक का आनंद ले रहा था और यहाँ चादर खाने पर डाँट पड़ रही है। मेरा स्वप्न भंग हो गया था और मैं भाग कर बाहर की ओर चला गया।
प्रश्न 100.
मेट्रो रेल : महानगरीय जीवन का सुखद सपना
उत्तर
मेट्रो रेल वास्तव में ही महानगरीय जीवन का एक सुखद सपना है। भाग-दौड़ की जिंदगी में भीड़-भाड़ से भरी सड़कों पर लगते हुए गतिरोधों से मुक्त दिला रही है मेट्रो रेल। जहाँ किसी निश्चित स्थान पर पहुँचने में घंटों लग जाते थे वहीं मेट्रो रेल मिनटों में पहुँचा देती है। यह यातायात का तीव्रतम एवं सस्ता साधन है। यह एक सुव्यवस्थित क्रम से चलती है। इससे यात्रा सुखद एवं आरामदेह हो गई है। बसों की धक्का-मुक्की, भीड़-भाड़ से मुक्ति मिल गई है। समय पर अपने काम पर पहुँचा जा सकता है। एक निश्चित समय पर इसका आवागमन होता है इसलिए समय की बचत भी होती है। व्यर्थ में इंतजार नहीं करना पड़ता है। महानगर के जीवन में यातायात क्रांति लाने में मेट्रो रेल का महत्त्वपूर्ण योगदान है।