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CBSE Class 12 Hindi Unseen Passages अपठित गद्यांश
विद्यार्थी को किसी अपठित गद्यांश को पढ़कर उसपर आधारित प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इन प्रश्नों का उत्तर देने से पूर्व अपठित 0 को अच्छी प्रकार से पढ़कर समझ लेना चाहिए। जिन प्रश्नों के उत्तर पूछे गए हैं वे उसी में ही छिपे रहते हैं। उन उत्तरों को अपने 10 शब्दों में लिखना चाहिए। अपठित गद्यांश के अंतर्गत यदि कोई कठिन शब्द, वाक्य, उक्तियाँ आदि दिए गए हों, जो आप को समझ न आ रहे हों, तो बिना घबराए उनके अर्थ को अवतरण के भावों से संबंधित करके सोचना चाहिए।
सावधानीपूर्वक सोचने से आपको दिए गए सभी प्रश्नों के उत्तर अवतरण में अवश्य मिल जाएँगे। अपठित गद्यांश का शीर्षक भी पूछा जाता है। शीर्षक अपठित में व्यक्त भावों के अनुरूप होना चाहिए। शीर्षक कम-से-कम शब्दों में लिखना चाहिए। शीर्षक से अपठित का मूल-भाव भी स्पष्ट होना । चाहिए। शीर्षक संक्षिप्त, आकर्षक और सार्थक होना चाहिए। अपठित गद्यांश को हल करते समय आपको जिन आवश्यक तत्वों की आवश्यकता होगी, वे हैं
• एकाग्रता
• मूलभावों की स्पष्टता
• विवेचन-क्षमता
• अभिव्यक्ति की स्पष्टता
• विषय की स्पष्टता
अपठित गद्यांश के कुछ उदाहरण
निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर समझिए —
प्रश्न 1.
हिंदी की वर्तमान दशा पर प्रकाश डालने से पूर्व मैं इसके उद्भव और विकास से आपका परिचय कराना चाहती हूँ। हिंदी के उद्भव की प्रक्रिया बहुत प्राचीन है। संस्कृत दो रूपों में बँटी-वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। संस्कृत के लौकिक रूप से प्राकृत भाषा आई। प्राकृत से अपभ्रंश तथा अपभ्रंश से शौरसैनी भाषा उत्पन्न हुई जिससे आज प्रयुक्त होनेवाली पश्चिमी हिंदी भाषा का आविर्भाव हुआ। तुलसीदास और जायसी ने जिस अवधी भाषा का प्रयोग किया वह अर्ध मागधी प्राकृत से विकसित हुई। सूरदास, नंददास और अष्टछाप के कवियों ने जिस ब्रज भाषा में काव्य-रचना की वह शौरसैनी अथवा नगर अपभ्रंश से विकसित हुई।
भौगोलिक दृष्टि से खड़ी बोली उस बोली को कहते हैं जो रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून, अंबाला और पटियाला के पूर्वी भागों में बोली जाती है। चौदहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने इसे “भारत के मुसलमानों की भाषा” कहकर इसमें काव्य-रचना की थी। तत्पश्चात् भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, पंत आदि ने इसे अपने साहित्य में प्रयुक्त किया और आज देश के लाखों साहित्यकार इसमें साहित्य रचना कर रहे हैं। भाषा विज्ञान की दृष्टि से पश्चिमी हिंदी को ही हिंदी कहा जाता है। यह उस भू-भाग की भाषा थी जिसे प्राचीन काल में अंतर्वेद कहते थे।
इस भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों को भी स्वीकार किया गया। इस भाषा का मानक रूप सीमित करने के लिए पारिभाषिक शब्दावली के कई कोश तैयार किए गए। आज इसे खड़ी बोली हिंदी कहते हैं। इसमें संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इस पश्चिमी हिंदी भाषा में ब्रज भाषा, कन्नौजी, बाँगरू, बुंदेली आदि अनेक उपभाषाएँ हैं और यह संसार के कुल 12 भाषा परिवारों में से “भारोपीय परिवार” की भाषा है। यह सरल, सुबोध एवं नवीन क्षमता से युक्त है। इसकी लिपि वैज्ञानिक एवं सरल है तथा देश की भावनात्मक एकता बनाए रखने की अदम्य क्षमता से युक्त है।
देश की आजादी से पूर्व महात्मा गांधी ने उद्घोष किया था कि “राष्ट्रभाषा हिंदी के बिना सारा राष्ट्र गूंगा है।” देश की स्वतंत्रता प्राप्त होते ही जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “हिंदी का विकास देश का विकास है”। राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का मत था कि हिंदी ही देश की एकता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।” तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने हिंदी को विश्व की महानतम भाषा कहा है। डॉ० चटर्जी ने इसे “सत्य, संस्कृति एवं भारत की अखंडता का प्रतीक” माना है।
हिंदी को लेकर और भी कई बड़ी-बड़ी बातें कही गई हैं। लेकिन आज भी व्यवहार के स्तर पर यह राष्ट्रभाषा होते हुए भी दासी का जीवन जी रही है। हिंदी के नाम पर रोजी-रोटी कमाने वाले लोग आम व्यवहार में इसका प्रयोग करना सामाजिक हीनता का प्रतीक और अपमानजनक समझते हैं। अनेक लोग इस गुलाम मानसिकता के स्पष्ट उदाहरण हैं।
प्रश्न
1. अवतरण के लिए उचित शीर्षक दीजिए।
2. हिंदी के उद्भव से पहले संस्कृत कितने भागों में बँट गई थी?
3. सर्वप्रथम हिंदी में काव्य-रचना किसने और कब की थी?
4. भाषा विज्ञान की दृष्टि से हिंदी का स्वरूप क्या है?
5. नेताओं ने हिंदी के विषय में क्या विचार प्रकट किए थे?
6. हिंदी के प्रति अनेक लोगों की मानसिकता कैसी है?
7. हिंदी के उद्भव की प्रक्रिया कितनी पुरानी है ?
8. प्राकृत भाषा किससे बनी थी ?
9. तुलसी और जायसी की अवधी किससे विकसित हुई थी ?
10. अष्टछाप के दो कवियों के नाम लिखिए।
11. अमीर खुसरो ने खड़ी बोली को क्या कहा था ?
12. राष्ट्रभाषा होते हुए भी हिंदी कैसा जीवन जी रही है ?
13. ‘अदम्य’ में किस उपसर्ग का प्रयोग किया गया है?
14. ‘स्वतंत्रता’ में किस प्रत्यय का प्रयोग है?
उत्तर
1. मेरे देश की भाषा-हिंदी।
2. हिंदी के उद्भव से पहले संस्कृत भाषा वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भागों में बँट गई थी।
3. हिंदी में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने चौदहवीं शताब्दी में काव्य-रचना की थी।
4. भाषा विज्ञान की दृष्टि से पश्चिमी हिंदी को हिंदी कहा गया। इसमें अरबी-फारसी, अंग्रेज़ी आदि शब्दों को स्वीकार कर मानक रूप प्रदान _ किया गया है। यह विश्व के 12 भाषा परिवारों में भारतीय परिवार से संबंधित है। इसकी लिपि वैज्ञानिक और सरल है।
5. नेताओं ने हिंदी के विषय में उच्च विचार प्रकट करते हुए इसे भारत की अखंडता का प्रतीक माना था।
6. अनेक लोगों की हीन मानसिकता हिंदी के प्रति अशोभनीय और निंदनीय है।
7. हिंदी के उद्भव की प्रक्रिया अत्यंत प्राचीन है।
8. प्राकृत भाषा संस्कृत के लौकिक रूप से बनी थी।
9. तुलसी और जायसी की अवधी अर्ध मागधी प्राकृत से विकसित हुई है।
10. सूरदास और नंददास अष्टछाप के कवि हैं।
11. अमीर खुसरो ने खड़ी बोली को भारत के मुसलमानों की भाषा कहा था।
12. हिंदी राष्ट्रभाषा होते हुए भी दासी का जीवन जी रही है।
13. ‘अ’ उपसर्ग।
14. ‘ता’ प्रत्यय।
प्रश्न 2.
व्यापार और वाणिज्य ने यातायात के साधनों को सुलभ बनाने में योग दिया है। यद्यपि यातायात के साधनों में उन्नति युद्धों के कारण भी हुई। है, तथापि युद्ध स्थायी संस्था नहीं हैं। व्यापार से रेलों, जहाज़ों आदि को प्रोत्साहन मिलता है और इनसे व्यापार को। व्यापार के आधार पर हमारे डाक-तार विभाग भी फले-फूले हैं। व्यापार ही देश की सभ्यता का मापदंड है। दूसरे देशों से जो हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, वह व्यापार के बल-भरोसे पर ही होती है।
व्यापार में आयात और निर्यात दोनों ही सम्मिलित हैं। व्यापार और वाणिज्य की समृद्धि के लिए व्यापारी को अच्छा आचरण रखना बहुत आवश्यक है। उसे सत्य से प्रेम करना चाहिए। अकेला यही गुण उसे अनेक सांसारिक झंझटों से बचाने में सफल हो सकेगा और उसे एक चतुर व्यापारी बना सकेगा, क्योंकि जो आदमी सच्चा होता है वह अपने कम होती है और नुकसान उठाने के अवसर बहुत कम आते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उनके अपने रोज़ाना के काम-काज और व्यवहार में उचित-अनुचित और अच्छे-बुरे का ध्यान अवश्य बना रहता है।
व्यापारी को आशावादी और शांत स्वभाव का होना चाहिए। उसे न निराश होने की आवश्यकता है और न क्रोध करने की। यदि आज थोड़ा नुकसान हुआ है तो कल फ़ायदा भी जरूर होगा, यह सोचकर उसे घबराना नहीं चाहिए। सेवा की पतवार के सहारे अपने व्यापार अथवा व्यवसाय की नाव को उत्साह सहित भँवर से निकाल ले जाने में बुद्धिमानी है। हारकर हाथ-पैर छोड़ देने से यश नहीं मिलता। व्यापार ने हमारे सुख-साधनों को बढ़ाकर हमारे जीवन का स्तर ऊँचा किया है। हमारे विशाल भवन, गगनचुंबी अट्टालिकाएँ, स्वच्छ दुग्ध, फेनोज्ज्वल कटे-फटे वस्त्र, विद्युत-प्रकाश, रेडियो, तार, टेलीविज़न, रेल और मोटरें सब हमारे व्यापार पर ही आश्रित हैं।
व्यापार में दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता अभी बढ़ी हुई है। जब तक यह निर्भरता रहेगी तब तक हम सच्चे अर्थ में स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं। हमें अपनी आवश्यकताओं को कम करके जीवन का स्तर नीचे गिराने की आवश्यकता नहीं है, वरन् हमको अपने देश का उत्पादन बढ़ाकर अन्य देशों की भाँति आत्मनिर्भरता प्राप्त कर लेना वांछनीय है। विलास की वस्तुओं के लिए धन बाहर भेजना लक्ष्मी का अपमान है। हम सभ्य तभी कहे जा सकते हैं, जब हम अपनी सभ्यता के प्रसाधनों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर करते रहें।
प्रश्न
1. अवतरण के लिए उचित शीर्षक दीजिए।
2. यातायात के साधनों को प्रोत्साहन किस कारण दिया गया था?
3. किसी व्यापारी का आचरण कैसा होना चाहिए?
4. व्यापारी को आशावादी क्यों होना चाहिए?
5. व्यापार ने सुख-साधनों को कैसे बढ़ाया है?
6. हमें व्यापार के क्षेत्र में क्या करना चाहिए?
7. युद्ध कैसी संस्था नहीं हैं?
8. डाक-तार विभाग किससे फले-फूले हैं ?
9. देश की सभ्यता का मापदंड क्या है ?
10. व्यापार में क्या-क्या सम्मिलित है ?
11. अच्छे-बुरे का ध्यान किसे बना रहता है ?
12. हमारे जीवन को किसने ऊँचा किया है ?
13. डाक-तार में कौन-सा समास है?
14. ‘प्रसाधनों’ में उपसर्ग छाँटिए।
उत्तर
1. व्यापारी की सफलता का रहस्य।
2. यातायात के साधनों को प्रोत्साहन व्यापार और वाणिज्य के साथ-साथ युद्धों ने अधिक दिया था।
3. व्यापार और वाणिज्य की समृद्धि के लिए किसी भी व्यापारी को सत्य प्रेमी, सादगी पसंद, चतुर और व्यवहारकुशल होना चाहिए। उसे उचित-अनुचित में भेद की समझ होनी चाहिए। उसे विवेकी और आशावादी होना चाहिए।
4. किसी भी व्यापार में लाभ-हानि तो लगी रहती है। आशावादी बन कर उसे नुकसान की स्थिति को सहना आना चाहिए। निराशा की भावना उसे और उसके व्यापार को अधिक क्षति पहुँचा सकती है।
5. व्यापार ने सारे समाज के सुख-साधनों को बढ़ाया है। हमारे जीवन-स्तर को ऊँचा किया है। ऊँचे-ऊँचे भवन, वैज्ञानिक उपकरण तथा सभी सुख-सामग्री व्यापार पर ही आश्रित हैं।
6. हमें व्यापार के क्षेत्र में आयात को कम कर निर्यात को बढ़ाना चाहिए। जब तक हम सामग्री के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहेंगे तब तक हम विकसित नहीं होंगे। हमें आत्मनिर्भर बनना चाहिए। वही हमारी सच्ची स्वतंत्रता होगी। …..
7. युद्ध स्थाई संस्था नहीं हैं।
8. डाक-तार विभाग व्यापार के कारण अधिक फले-फूले हैं।
9. व्यापार ही देश की सभ्यता का मापदंड है।
10. व्यापार में आयात और निर्यात दोनों शामिल हैं।
11. अच्छे-बुरे का ध्यान उन्हें बना रहता है जो सत्य से प्रेम करते हैं तथा अपना व्यवहार ठीक रखते हैं।
12. हमारे जीवन-स्तर को व्यापार ने ऊँचा किया है।
13. वंदव समास।
14. ‘प्र’ उपसर्ग।
प्रश्न 3.
काशी में रहते समय भारती बहुधा नौकारूढ़ होकर गंगा की प्राकृतिक छटा देखा करते थे। भारती के अंतर्मन पर इसका भी गहरा प्रभाव पड़ा था। काशीवास का इनके बाद के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। इसने ही उनको व्यापार दृष्टि दी थी, अन्यथा भारती संकचित दायरे में सीमित रहकर आँचलिक बन जाते। भारती को अध्ययन के प्रति, विशेषकर प्राचीन-काव्य-साहित्य के अध्ययन में विशेष रुचि थी। इस संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है।
क्रिसमस तथा प्रथम जनवरी आदि के त्योहार मनाने के लिए एट्टयपुरम के राजा अपने मित्रों के साथ एक बार मद्रास आए। उनके साथ भारती भी थे। घर से चलते समय भारती की पत्नी ने राजा द्वारा दिए गए पुरस्कार से अच्छी साड़ियाँ और कपड़े लाने की प्रार्थना की थी। मद्रास से लौटते समय भारती अपने साथ दो गाड़ी सामान भरकर लाए। दूर से देखकर चेल्लमा अत्यधिक आनंदित हुईं। पास आने पर जो देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। दोनों गाड़ियाँ प्राचीन तमिल साहित्य से संबंधित पुस्तकों से भरी थीं। भारती ने पत्नी के कुछ न कहने पर भी उनकी आंतरिक वेदना को भांपकर कहा, “मुझे खेद है कि तेरे लिए केवल एक ही साड़ी ला सका। ये साहित्यिक कृतियाँ ही वास्तविक स्थायी संपत्ति हैं, शेष सब क्षणभंगुर हैं।”
अपनी व्यथा को दबाते हुए चेल्लमा ने भी इस कथन का समर्थन किया, क्योंकि पति की प्रसन्नता ही उनकी प्रसन्नता थी। सन 1905 ई० के बंग-भंग आंदोलन के बाद तीन ऐतिहासिक घटनाएँ घटी जिनका भारती के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। पहला लाला लाजपतराय को क्रांतिकारी घोषित करके सरकार ने उन्हें देश-निकाला दिया। दूसरा गरम दल और नरम दल में आपसी मतभेद हो जाने के कारण ‘सूरत कांग्रेस’ का अधिवेशन बिना किसी निर्णय के संघर्षमय वातावरण में समाप्त हो गया। तीसरा तमिलनाडु के देशभक्त व० उ० चिदंबरम् पिल्ले को अंग्रेज़ी सरकार द्वारा कठोर कारावास की सजा दी गई। इन घटनाओं से क्षुब्ध होकर भारती बंगाल के क्रांतिकारी नेता विपिनचंद्र पाल, सुरेंद्रनाथ बनर्जी आदि को मद्रास में आमंत्रित करके विशाल जनसभाएँ करने लगे।
प्रश्न
1. अवतरण के लिए उचित शीर्षक दीजिए।
2. गंगा में नौका-विहार ने भारती पर क्या प्रभाव डाला था ?
3. भारती को किसमें अधिक रुचि थी ?
4. भारती मद्रास से दो गाड़ियाँ किससे भरकर लाए थे ?
5. भारती की दृष्टि में वास्तविक स्थाई संपत्ति क्या थी ?
6. भारती को किन तीन घटनाओं ने गहरा प्रभावित किया था ?
7. भारती नौका पर बैठकर क्या देखा करते थे ?
8. भारती के जीवन को कहाँ के वास ने गहरा प्रभावित किया था ?
9. भारती मद्रास एट्टयपुरम के राजा के पास क्यों गए थे ?
10. भारती की पत्नी ने पति से क्या लाने के लिए कहा था ?
11. चेल्लमा क्यों प्रसन्न हुई थी ?
12. भारती अपनी पत्नी के लिए कितनी साड़ियाँ लाए थे ?
13. ‘देश-निकाला’ में कौन-सा समास है ?
14. ‘संबंधित’ में किस प्रत्यय का प्रयोग किया गया है ?
उत्तर
1. महाकवि भारती।
2. भारती काशी में गंगा नदी में प्रायः नौका विहार किया करते थे, जिसने उन्हें व्यापक दृष्टि प्रदान की थी। ऐसा न होने की स्थिति में
3. भारती को प्राचीन काव्य-साहित्य के अध्ययन में विशेष रुचि थी।
4. भारती मद्रास से अपने साथ दो गाड़ियाँ भरकर प्राचीन तमिल साहित्य से संबंधित पुर
5. भारती की दृष्टि में वास्तविक स्थायी संपत्ति तो साहित्यिक कृतियाँ ही थीं। शेष सब कुछ तो क्षण भंगुर था; व्यर्थ था।
6. भारती को बंग-भंग के बाद जिन तीन घटनाओं ने गहरा प्रभावित किया था, वे थीं-
(क) लाला लाजपत राय को क्रांतिकारी घोषित करके अंग्रेज़ सरकार के द्वारा देश निकाला देना
(ख) गरम दल और नरम दल में आपसी मतभेद के कारण ‘सूरत कांग्रेस’ का अधिवेशन का संघर्षमय वातावरण में समाप्त होना
(ग) तमिलनाडु के देशभक्त व० उ० चिदंबरम् पिल्ले को अंग्रेज़ी सरकार द्वारा कठोर कारावास की सज़ा देना।
7. भारती नौका पर सवार होकर प्राकृतिक घटा देखा करते थे।
8. भारती के जीवन को काशीवास ने गहरा प्रभावित किया था।
9. भारती एट्टयपुरम के राजा के पास क्रिसमस तथा पहली जनवरी का त्योहार मनाने गए थे।
10. उन्होंने अपने पति से अच्छी साड़ियाँ और कपड़े लाने के लिए कहा था।
11. चेल्लमा ने सोचा था कि उसके पति दो गाड़ियाँ भरकर साड़ियाँ और कपड़े लाए हैं।
12. भारती अपनी पत्नी के लिए केवल एक साड़ी लाए थे।
13. अपादान कारक।
14. ‘इत’ प्रत्यय।
प्रश्न 4.
स्वाधीनता-संग्राम में संलग्न रहने के साथ-साथ भारती साहित्य-सृजन में भी लगे रहे। वे बहुमुखी प्रतिभासंपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने खंडकाव्य, मुक्तक, गद्यगीत, निबंध, कहानियाँ आदि अनेक विधाओं में श्रेष्ठ रचनाएँ की। इन सभी रचनाओं में उनका प्रगतिशील और राष्ट्रीय दृष्टिकोण झलकता है। उनके खंडकाव्यों में पांचालीशपथम्, कंणन पाटु (कान्हा के गीत) और कुयिल पाटु (कोयल के गीत) विशेष प्रसिद्ध हैं। तमिल में गद्यगीत लिखने का श्रीगणेश भी भारती ने ही किया। उन्होंने लगभग 400 गद्यगीत लिखे हैं। वे एक श्रेष्ठ पत्रकार भी थे। स्वदेशमित्रन के संपादक की प्रार्थना पर भारती ने अविरल रूप से लेख, कविता, कहानी आदि लिखे।
स्वतंत्रता आंदोलन के पचास वर्षों के इतिहास को भी भारती ने धारावाहिक रूप से स्वदेशमित्रन में लिखा था। भारती की संपूर्ण रचनाएँ तमिलनाडु सरकार द्वारा भारती ग्रंथावली के नाम से तीन भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन सभी रचनाओं में भारतीय स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता का स्वर ओजस्वी भाषा में मुखरित हुआ है। ब्रिटिश दासता के विरुद्ध संघर्ष, राष्ट्रीय एकता, स्वतंत्र भारत का अभ्युदय, सामाजिक अन्याय, शोषण और विषमता को दूर कर समतामूलक समाज की स्थापना, भारतीय संस्कृति की गरिमा आदि भावों को उन्होंने अपनी सशक्त वाणी में व्यक्त किया है, इसलिए उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
कहा जाता है कि एक बार वे तिरुवनंतपुरम में अजायबघर देखने गए। विभिन्न प्रकार के पशुओं को देखते हुए जब वे सिंह के समक्ष पहुँचे, तो अकड़कर खड़े हो गए और कहने लगे “सिंह राजा! देखो तुम्हारे सामने कविराजा खड़ा है। तुम अपने समान शारीरिक बल इसे दो। भीतर-बाहर एक समान अपने स्वभाव को भी अगर तुम दे सको तो अच्छा होगा।” ऐसी प्रभावपूर्ण घटनाएँ भारती के पग-पग के जीवन में भरी पड़ी हैं।
भारती तिरुवल्लिक्केणी के मंदिर नित्यप्रति जाते थे और वहाँ के हाथी को गन्ना, नारियल आदि खिलाते थे। एक दिन की घटना है कि हाथी मतवाला हो गया था। लोगों द्वारा उसके पागल होने की बात जानकर और बार-बार मना करने पर भी भारती उसे फल खिलाने के लिए चले गए। पागल हाथी के धक्का मार देने के कारण उनकी हड्डियाँ टूट गईं। सौभाग्यवश उनके मित्र ‘कुवलै’ वहाँ अचानक आ गए। वे मूच्छित अवस्था में उन्हें चिकित्सालय ले गए।
जब भारती चिकित्सालय में थे, उन्हीं दिनों अली बंधु (मुहम्मद अली और शौकत अली) मद्रास आए थे। उनके साथ महात्मा गांधी जी भी थे। भारती को देखने के लिए ये लोग उनके यहाँ गए। उनसे मिलकर भारती को बड़ी प्रसन्नता हुई।
प्रश्न
1. अवतरण को उचित शीर्षक दीजिए।
2. भारती ने किन विधाओं में साहित्य-रचना की थी ?
3. भारती ने धारावाहिक रूप में किसे लिखा था ?
4. भारती ने मुख्य रूप में किन भावों को व्यक्त किया था ?
5. भारती ने सिंह से क्या कहा था ?
6. महात्मा गांधी चिकित्सालय में किससे मिलने आए थे ?
7. स्वतंत्रता-संग्राम के साथ-साथ भारती क्या करने लगे थे ?
8. भारती कैसे साहित्यकार थे ?
9. भारती के कौन-कौन से खंड-काव्य प्रसिद्ध हैं ?
10. तमिल में गद्य-गीत लिखना किसने प्रारंभ किया था ?
11. भारती ग्रंथावली के कितने भाग हैं ?
12. अली बंधुओं के नाम लिखिए।
13. ‘नित्यप्रति’ में प्रयुक्त समास का नाम लिखिए।
14. ‘स्वतंत्रता’ में से प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर
1. भारती की महानता।
2. भारती ने खंड-काव्य, मुक्तक, गद्यगीत, निबंध, कहानियाँ आदि की रचना करने के साथ पत्रकारिता की थी।
3. भारती ने ‘स्वदेश मित्रन’ में स्वतंत्रता-आंदोलन के पचास वर्षों के इतिहास को धारावाहिक के रूप में लिखा था।
4. भारती ने ब्रिटिश दासता के विरुद्ध संघर्ष, राष्ट्रीय एकता, स्वतंत्र भारत का अभ्युदय, सामाजिक अन्याय, शोषण और विषमता को दूर कर समतामूलक समाज की स्थापना, भारतीय संस्कृति की गरिमा आदि भावों को अपने साहित्य में व्यक्त किया था।
5. भारती ने सिंह से कहा था कि वह उन्हें भीतर-बाहर एक समान अपने स्वभाव को दे।
6. महात्मा गांधी महाकवि भारती को देखने और मिलने के लिए चिकित्सालय में आए थे जहाँ वे पागल हाथी के द्वारा टक्कर मार दिए जाने के बाद घायल अवस्था में लाए गए थे। 7. भारती स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के साथ-साथ साहित्य-सृजन भी करने लगे थे।
8. भारती बहमखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे।
9. भारती के प्रसिद्ध खंडकाव्य पांचालीशपथम्, कंणनपा? और कुपिलपाटु हैं।
10. तमिल में गद्य-गीत लिखना भारती ने ही प्रारंभ किया था।
11. भारती ग्रंथावली के तीन भाग हैं।
12. अली बंधुओं के नाम हैं-मुहम्मद अली और शौकत अली।
13. ‘अव्ययीभाव’ समास।
14. ‘ता’ प्रत्यय।
प्रश्न 5.
दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद-वर्ग में उत्साह का है। भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुःखी और कभी-कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान भी होते हैं। उत्साह में हम आने वाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म-सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान होते हैं। उत्साह से कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ-साथ कर्म में प्रवृत्ति होने के आनंद का योग रहता है।
साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है। कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं। जिन कर्मों में किसी प्रकार कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत… लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य-मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर, दया-वीर इत्यादि भेद किए हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा क्या मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं।
केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने से साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिए। बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं। इसी प्रकार चुपचाप, बिना हाथ-पैर हिलाए, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन-से-कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना वीरता कही जाएगी। ऐसे साहस और वीरता को उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं जब कि साहसी या वीर उस काम को आनंद के साथ करता चला जाएगा जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं।
सारांश यह है कि आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा में ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं। वृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है। दानवीर और अर्थ-त्याग का साहस अर्थात उसके कारण होने वाले कष्ट या कठिनता को सहने की क्षमता अंतर्निहित रहती है। दानवीरता तभी कही जाएगी जब दान के कारण दानी को अपने जीवन-निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई देगी। इस कष्ट या कठिनता की मात्रा या संभावना जितनी ही अधिक होगी, दानवीरता उतनी ही ऊँची समझी जाएगी, पर इस अर्थ-त्याग के साहस के साथ ही जब तक पूर्ण तत्परता और आनंद के चिह्न न दिखाई पड़ेंगे तब तक उत्साह का स्वरूप न खड़ा होगा।
प्रश्न
1. अवतरण को उचित शीर्षक दीजिए।
2. उत्साह का स्थान क्या है ?
3. उत्साह में किसका योग रहता है ?
4. उत्साह के भेदों में सबसे प्राचीन किसे माना जाता है ?
5. दानवीरता किसे कहा जा सकता है ?
6. दानवीरता में उत्साह का स्वरूप कब तक प्रकट नहीं होता ?
7. भय का स्थान किस वर्ग में है ?
8. उत्साह के दर्शन कहाँ होते हैं ?
9. उत्साह के बीच किनका संचरण होता है ?
10. मृत्यु तक की परवाह किस प्रकार की वीरता में नहीं होती ?
11. उत्साह के भेद किन्होंने किए हैं ?
12. सच्चे उत्साही कौन होते हैं ?
13. ‘आनंद वर्ग’ में किस समास का प्रयोग है ?
14. कठिनता का विपरीतार्थक लिखिए।
उत्तर
1. उत्साह।
2. दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है वही स्थान आनंद के वर्ग में उत्साह का है।
3. उत्साह में कष्ट या नुकसान सहने की दृढ़ता के साथ कर्म में प्रवृत्ति होने के आनंद का योग रहता है। कर्म सौंदर्य में उत्साह का योग बना रहता है।
4. उत्साह के भेदों दानवीर, दयावीर, युद्धवीर आदि में सबसे प्राचीन युद्धवीर माना जाता है, जिसमें व्यक्ति मृत्यु-प्राप्ति से भी नहीं डरता। इसमें साहस और प्रयत्न पराकाष्ठा पर होते हैं।
5. दानवीरता उसे कहा जा सकता है जब दान देने वाले को अपने जीवन-निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट दिखाई देगा।
6. दानवीरता में उत्साह का स्वरूप तब तक प्रकट नहीं होता जब तक अर्थ त्याग के साहस के साथ पूर्ण तत्परता और आनंद के चिह्न दिखाई नहीं देते।
7. भय का स्थान दुःख के वर्ग में है।
8. आनंदपूर्ण प्रयत्न अथवा उसकी उत्कंठा में उत्साह के दर्शन होते हैं।
9. उत्साह के बीच वृत्ति और साहस का संचरण होता है।
10. युद्धवीरता में मृत्यु तक की परवाह नहीं होती है।
11. उत्साह के भेद साहित्य-मीमांसकों ने किए हैं।
12. कर्म-सौंदर्य के उपासक सच्चे उत्साही होते हैं।
13. ‘तत्पुरुष’ समास।
14. सरलता
प्रश्न 6.
‘उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है। किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है। वही उत्साह जो कर्तव्य कर्मों के प्रति इतना सुंदर दिखाई पड़ता है। अकर्तव्य कर्मों की ओर होने पर वैसा श्लाघ्य नहीं प्रतीत होता। आत्म-रक्षा, पर-रक्षा, देश-रक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग देखी जाती है, उसके सौंदर्य तक परपीड़न, डकैती आदि व सकता। यह बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस की प्रशंसा संसार में थोड़ी-बहुत होती ही है।
अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य और साहस की कथाएँ भी लोग तारीफ़ करते हुए सुनते हैं। अब तक उत्साह का प्रधान रूप ही हमारे सामने रहा, जिसमें साहस का पूरा योग रहता है। पर कर्ममात्र के संपादन में जो तत्परतापूर्ण आनंद देखा जाता है यह भी उत्साह ही कहा जाता है। सब कामों में साहस अपेक्षित नहीं होता, पर थोड़ा-बहुत आराम, विश्राम, सुभीते इत्यादि का त्याग सबमें करना पड़ता है और कुछ नहीं तो उठकर बैठना, खड़ा होना या दस-पाँच कदम चलना ही पड़ता है।
जब तक आनंद का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे ‘उत्साह’ की संज्ञा प्राप्त नहीं होती। यदि किसी प्रिय मित्र के आने का समाचार पाकर हम चुपचाप ज्यों-के-त्यों आनंदित होकर बैठे रह जाएँ या थोड़ा हँस भी दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जाएगा। हमारा उत्साह तभी कहा जाएगा जब हम अपने मित्र का आगमन सुनते ही उठ खड़े होंगे, उससे मिलने के लिए दौड़ पड़ेंगे और उसके ठहरने आदि के प्रबंध में प्रसन्न-मुख इधर-उधर आते-जाते दिखाई देंगे। प्रयत्न और कर्म-संकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं। प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है।
कुछ कर्मों में तो बुद्धि की तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ-साथ चलती हैं। उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है। ऐसे उत्साह वाले को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर-यह प्रश्न मुद्राराक्षस-नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है। चाणक्य और राक्षस के बीच जो चोटें चली हैं वे नीति की हैं-शस्त्र की नहीं।
प्रश्न
1. अवतरण को उचित शीर्षक दीजिए।
2. किसी भाव का अच्छा या बुरा होना किस पर निर्भर करता है?
3. उत्साह में सबसे अधिक योगदान किसका रहता है?
4. आनंद को कब उत्साह नहीं माना जाता?
5. प्रयत्न और कर्म-संकल्प क्या हैं?
6. उत्साह की उमंग क्या करवाती है?
7. प्रत्येक कर्म में किस का योग रहता है?
8. चाणक्य और राक्षस के बीच किस प्रकार की चोटें चली थीं?
9. उत्साह की गिनती किस प्रकार के गुणों में होती है?
10. लोग क्या करते हुए अत्याचारियों की कथाएँ सुनते हैं?
11. साहस की उमंग किन कार्यों में होती है?
12. परपीड़न, डकैती आदि कार्य कैसे होते हैं?
13. ‘प्रसन्न-मुख’ में किस समास का प्रयोग है?
14. ‘विशुद्ध’ में से उपसर्ग छाँटिए।
उत्तर
1. उत्साह के प्रयोजन।
2. किसी भाव का अच्छा या बुरा होना उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है, जो उत्साह कर्तव्यों-कर्मों के प्रति
सुंदर दिखाई देता है वही अकर्तव्य के कारण वैसा प्रतीत नहीं होता।
3. उत्साह में सबसे अधिक योगदान साहस का रहता है जो आनंद कारक परिणाम का आधार बनता है।
4. जब तक आनंद का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं होता तब तक उसे उत्साह नहीं माना जाता।
5. प्रयत्न और कर्म-संकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं।
6. उत्साह की उमंग मनुष्य के हाथ-पैर चलवाती है तो साथ ही बुद्धि से भी काम करवाती है।
7. प्रत्येक कर्म में बुद्धि का योग रहता है।
8. चाणक्य और राक्षस के बीच नीति की चोटें चली थीं।
9. उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है।
10. अत्याचारियों की कथाएँ लोग तारीफ़ करते हुए सुनते हैं।
11. साहस की उमंग आत्मरक्षा, पर-रक्षा, देश-रक्षा आदि कार्यों में होती है।
12. परपीड़न, डकैती आदि कार्य निंदनीय होते हैं।
13. “कर्मधारय समास।
14. ‘वि’ उपसर्ग।
प्रश्न 7.
कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी, क्योंकि एक तो कर्मकाल में उसका जीवन बीता, वह संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल पहले से कोई बना-बनाया पदार्थ नहीं होता। अनुकूलन प्रयत्न-कर्म के अनुसार, उसके एक-एक अंग की योजना होती है। बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है। किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है।
वह वैद्यों के यहाँ से जब तक औषधि ला-ला कर रोगी को देता जाता है और इधर-उधर दौड़ धूप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो संतोष रहता है-प्रत्येक नए उपचार के साथ जो आनंद का उन्मेष होता रहता है यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता। प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दुःख में कटता। इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दुःख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच-सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न नहीं किया।
कर्म में आनंद अनुभव करने वालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्ता को वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और पुष्टि होती है वही लोकोपकारी कर्म-वीर का सच्चा सुख है। उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाए, बल्कि उसी समय से थोड़ा-थोड़ा करके मिलने लगता है जब से वह कर्म की ओर हाथ बढ़ाता है। कभी-कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है जो बहुत-से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर रहती है।
इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किए जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को भी लोग उत्साह ही कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुख-प्राप्ति की आशा या निश्चय से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं, जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्रायः अपना उत्साह दिखा देते हैं। यह बात उत्साह में नहीं, अन्य मनोविकारों में भी बराबर पाई जाती है।
यदि हम किसी बात पर क्रुद्ध बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उस पर झुंझला उठते हैं। इस झुंझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की स्थिति के व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झंझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में हैं और क्रोध में ही रहना चाहते हैं। क्रोध को बनाए रखने के लिए हम उन बातों से भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम अन्य विषयों में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं।
प्रश्न
1. अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
2. फल क्या है ?
3. कर्मण्य किसे कहते हैं ?
4. मनुष्य को कौन कर्म की ओर अग्रसर कराती है ?
5. हम प्राय: उत्साह कब प्रकट करते हैं ?
6. उत्साह में झुंझलाहट क्या है ?
7. उत्साही मनुष्य किस मार्ग पर चलता है ?
8. किसी फल की प्राप्ति के लिए किसकी योजना की जाती है ?
9. प्रयत्न क्या है ?
10. अप्रयत्न की दशा में जीवन कैसे कटता है ?
11. दिव्य आनंद किसमें भरा रहता है ?
12. क्रोध क्या है ?
13. ‘कर्म-काल’ में समास का भेद छाँटिए।
14. ‘तत्परता’ में प्रयुक्त प्रत्यय कौन-सा है?
उत्तर
1. उत्साह।
2. फल कोई पहले से बना बनाया पदार्थ नहीं होता। वह बुद्धि द्वारा सुविचारित और कर्मों का परिणाम है जो कोई व्यक्ति साहस से प्राप्त करता है।
3. कर्म में आनंद अनुभव करने वालों का नाम ही कर्मण्य है। यह उच्च कर्मों के विधान में निहित रहता है।
4. स्फूर्ति मनुष्य को कर्म क्षेत्र की ओर अग्रसर कराती है और यही हर्ष का कारण बनती है।
5. हम हर्ष तब प्रकट करते हैं जब हमें किसी काम में सुख या लाभ की आशा हो।
6. उत्साह में झंझलाहट क्रोध की स्थिति है, जो हमारे उत्साह को ही प्रकट करती है और यह बताती है कि हमारा उत्साह किसी के द्वारा कम न किया जाए।
7. उत्साही मनुष्य कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता है।
8. किसी फल की प्राप्ति के लिए अनुकूलन प्रयत्न कर्म के अनुसार उसके एक-एक अंग की योजना की जाती है।
9. बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ‘प्रयत्न’ है।
10. अप्रयत्न की दशा में जीवन शोक और दुःख में कटता है।
11. दिव्य आनंद धर्म और उदारता के उच्च कार्यों में भरा रहता है।
12. क्रोध एक मनोविकार है, जो झंझलाहट को उत्पन्न करता है।
13. ‘संबंध तत्पुरुष’ समास।
14. ‘ता’ प्रत्यय।
प्रश्न 8.
जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही हैं, फिर प्रेमपूर्वक बस भी गई हैं। सभ्यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना ओर मुख करके चलने वाली इन जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी। भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक प्रकार से अनेक ओर से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी पर एक बात उन्होंने लक्ष्य की थी। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है।
वह है अपने ही बंधनों से अपने को बाँधना। मनुष्य पशु से किस बात में भिन्न है ? आहार-निद्रा आदि पशु सुलभ स्वभाव उसके ठीक वैसे ही हैं, जैसे अन्य प्राणियों के लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है। उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुःख के प्रति संवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। यह मनुष्य के स्वयं के उद्भावित बंधन हैं। इसीलिए मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़ दौड़ने वाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी खास जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। वह मनुष्य-मात्र का धर्म है।
महाभारत में इसीलिए सत्य और अक्रोध को सब वर्णों का सामान्य धर्म कहा है एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत। निर्वेरत महाराज सत्यमक्रोध एव च॥ अन्यत्र इसमें निरंतर दानशीलता को भी गिनाया गया है। गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि यह सब के दुःख-सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्म-निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है। मुझे आश्चर्य होता है कि अनजाने में भी हमारी भाषा से यह भाव कैसे रह गया है। लेकिन मुझे नाखून के बढ़ने पर आश्चर्य हुआ था अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है। और आदमी है कि सदा उससे लोहा लेने को कमर कसे है।
मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा ? बड़े-बड़े नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, और उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो, और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा था। उसने कहा था-बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो। आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, आत्म-पोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। उसने कहा-प्रेम ही बड़ी चीज़ है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई। आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान हो कर सोचता हूँ-बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठ कर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था।
प्रश्न
1. अवतरण को उचित शीर्षक दीजिए।
2. ऋषियों ने क्या किया था ?
3. मनुष्य में पशु से भिन्न क्या है ?
4. मनुष्य किसे गलत आचरण मानता है ?
5. मनुष्य की मनुष्यता क्या है ?
6. पशु की मूल प्रवृत्ति क्या है ?
7. विभिन्न जातियाँ पहले क्या कर रहीं थीं ?
8. तरह-तरह की जातियों के लिए क्या खोजना कठिन था ?
9. सभी वर्गों और सभी जातियों का सामान्य आदर्श क्या है ?
10. मनुष्य किसे अपना आदर्श नहीं मानता ?
11. महाभारत में सब वर्गों का सामान्य धर्म किसे माना गया है ?
12. ‘स्व’ का बंधन किसका स्वभाव है ?
13. ‘लड़ती-झगड़ती’ में समास का नाम बताइए।
14. ‘उच्छृखलता’ में प्रत्यय कौन-सा है ?
उत्तर
1. मनुष्य जीवन में सुख के आधार।
2. प्राचीन काल में ऋषियों ने समस्याओं को सुलझाने की अनेक प्रकार से कोशिश की थी और सभी के लिए आदर्श स्थापित किया था।
3. मनुष्य में पशुओं से संयम, सुख-दुःख के प्रति संवेदना, श्रद्धा, तप और त्याग की भावनाएँ भिन्न हैं। यही उन्हें पशुओं से श्रेष्ठ बनाती हैं।
4. मनुष्य मन, वचन और कर्म के द्वारा किए गए असत्याचरण को गलत मानता है।
5. मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह सब के सुख-दुःख को सहानुभूति से देखता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोध मूलकता ही उस के आधार हैं।
6. पशु की मूल प्रवृत्ति उच्छृखलता है जो उसे केवल अपने ही बारे में क्रिया करने को प्रेरित करती है।
7. विभिन्न जातियाँ पहले आपस में लड़ती-झगड़ती रही थीं।
8. तरह-तरह की जातियों के द्वारा एक सामान्य धर्म को खोज निकालना बहुत कठिन था।
9. अपने ही बंधनों में स्वयं को बाँधना सभी वर्गों और सभी जातियों का आदर्श है।
10. मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता।
11. महाभारत में सत्य और अक्रोध को सब वर्गों का सामान्य धर्म कहा गया है।
12. ‘स्व’ का बंधन मानव का स्वभाव है।
13. ‘वंदव’ समास।
14. ‘ता’ प्रत्यय।
प्रश्न 9.
हमारा हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला हुआ देश, आकार और आत्मा दोनों दृष्टियों से महान और सुंदर है। उसका बाह्य सौंदर्य विविधता की सामंजस्यपूर्ण स्थिति है और आत्मा का सौंदर्य विविधता में छिपी हुई एकता की अनुभूति है। चाहे कभी न गलने वाला हिम का प्राचीर हो, चाहे कभी न जमने वाला अतल समुद्र हो, चाहे किरणों की रेखाओं से खचित हरीतिमा हो, चाहे एकरस शून्यता ओढ़े हुए मरु हो, चाहे साँवले भरे मेघ हों, चाहे लपटों में साँस लेता हुआ बवंडर हो, सब अपनी भिन्नता में भी एक ही देवता के विग्रह को पूर्णता देते हैं।
जैसे मूर्ति के एक अंग का टूट जाना संपूर्ण देव-विग्रह को खंडित कर देता है, वैसे ही हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति है। यदि इस भौगोलिक विविधता में व्याप्त सांस्कृतिक एकता न होती, तो यह विविध नदी, पर्वत, वनों का संग्रह-मात्र रह जाता। परंतु इस महादेश की प्रतिभा ने इसकी अंतरात्मा को एक रसमयता में प्लावित करके इसे विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान किया है, जिससे यह आसमुद्र एक नाम की परिधि में बँध जाता है।
हर देश अपनी सीमा में विकास पाने वाले जीवन के साथ एक भौतिक इकाई है, जिससे वह समस्त विश्व की भौतिक और भौगोलिक इकाई से जुड़ा हुआ है। विकास की दृष्टि से उसकी दूसरी स्थिति आत्म-रक्षात्मक तथा व्यवस्थापरक राजनीतिक सत्ता में है। तीसरी सबसे गहरी तथा व्यापक स्थिति उसकी सांस्कृतिक गतिशीलता में है, जिससे वह अपने विशेष व्यक्तित्व की रक्षा और विकास करता हुआ विश्व-जीवन के विकास में योग देता है। यह सभी बाह्य और स्थूल तथा आंतरिक और सूक्ष्म स्थितियाँ एक-दूसरे पर प्रभाव डालती और एक-दूसरी से संयमित होती चलती हैं। … एक विशेष भूखंड में रहने वाले मानव का प्रथम परिचय, संपर्क और संघर्ष अपने वातावरण से ही होता है और उससे प्राप्त जय, पराजय, समन्वय आदि से उसका कर्म-जगत ही संचालित नहीं होता, प्रत्युत अंतर्जगत और मानसिक संस्कार भी प्रभावित होते हैं।
प्रश्न
1. अवतरण को उचित शीर्षक दीजिए।
2. हमारे देश की सुंदरता किसमें निहित है ?
3. कौन एक ही देवता के विग्रह को पूर्णता प्रदान करते हैं ?
4. हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति कैसी है ?
5. विकास की दृष्टि से किसी देश की स्थिति किसमें है ?
6. किसी स्थान पर रहने वाले मानव का सबसे पहला परिचय किससे होता है ?
7. हमारा देश कहाँ से कहाँ तक फैला हुआ है ?
8. हमारे देश की भौगोलिक विविधता में क्या व्याप्त है ?
9. प्रत्येक देश अपनी सीमा में विकास पाने वाले जीवन के साथ क्या है ?
10. कोई देश अपने विशेष व्यक्तित्व की रक्षा कैसे करता है ?
11. हमारे देश की अंतरात्मा किसमें डूबी हुई है ?
12. हमारे देश का बाह्य सौंदर्य किसमें समाहित है ?
13. ‘आंतरिक’ में प्रत्यय छाँटिए।
14. “विश्व-जीवन’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर
1. देश की सांस्कृतिक एकता।
2. हमारे देश की बाह्य सुंदरता विविधता के सामंजस्य और आत्मा की सुंदरता विविधता में छिपी एकता में निहित है।
3. ऊँचे-ऊँचे बर्फ से ढके पर्वत, अतल गहराई वाले सागर, रेगिस्तान, घने-काले बादल, बवंडर आदि देवता के विग्रह को पूर्णता प्रदान करते हैं।
4. हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति वैसी ही है जैसे किसी मूर्ति की पूर्णता। मूर्ति का एक अंग भी टूट जाना देव-विग्रह को जैसे खंडित कर देता है, वैसे ही हमारे देश की अखंडता है।
5. विकास की दृष्टि से किसी देश की स्थिति आत्मरक्षात्मक और व्यवस्थात्मक राजनीतिक सत्ता में है। वह उसकी सांस्कृतिक गतिशीलता में है।
6. किसी स्थान पर रहने वाले मानव का सबसे पहला परिचय अपने वातावरण से होता है जिससे जूझकर वह अपना मानसिक संस्कार करता है।
7. हमारा देश हिमालय से कन्याकमारी तक फैला हआ है। 8. हमारे देश की भौगोलिक विविधता में सांस्कृतिक एकता व्याप्त है।
9. प्रत्येक देश अपनी सीमा में विकास पाने वाले जीवन के साथ एक भौतिक इकाई है।
10. प्रत्येक देश अपने विशेष व्यक्तित्व की रक्षा अपनी सांस्कृतिक गतिशीलता से करता है।
11. हमारे देश की अंतरात्मा एक रसमयता में डूबी हुई है।
12. हमारे देश का बाह्य सौंदर्य विविधता की सामंजस्यपूर्ण स्थिति में है।
13. ‘इक’ प्रत्यय।
14. संबंध तत्पुरुष समास।
प्रश्न 10.
हमारे देश ने आलोक और अंधकार के अनेक युग पार किए हैं, परंतु अपने सांस्कृतिक उत्तराधिकार के प्रति वह नितांत सावधान रहा है। उसमें अनेक विचारधाराएँ समाहित हो गईं, अनेक मान्यताओं ने स्थान पाया, पर उसका व्यक्तित्व सार्वभौम होकर भी उसी का रहा। उसके अंतर्गत आलोक ने उसकी वाणी के हर स्वर को उसी प्रकार उद्भासित कर दिया, जैसे आलोक हर तरंग पर प्रतिबिंबित होकर उसे आलोक की रेखा बना देता है।
एक ही उत्स से जल पाने वाली नदियों के समान भारतीय भाषाओं के बाह्य और आंतरिक रूपों में उत्सगत विशेषताओं का सीमित हो जाना ही स्वाभाविक था। कूप अपने अस्तित्व में भिन्न हो सकते हैं, परंतु धरती के तल का जल तो एक ही रहेगा। इसी से हमारे चिंतन और भावजगत में ऐसा कुछ नहीं है, जिसमें सब प्रदेशों के हृदय और बुद्धि का योगदान और समान अधिकार नहीं है। आज हम एक स्वतंत्र राष्ट्र की स्थिति पा चुके हैं, राष्ट्र की अनिवार्य विशेषताओं में दो हमारे पास हैं-भौगोलिक अखंडता और सांस्कृतिक एकता परंतु अब तक हम उस वाणी को प्राप्त नहीं कर सके हैं, जिसमें एक स्वतंत्र राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के निकट अपना परिचय देता है।
जहाँ तक बहुभाषा-भाषी होने का प्रश्न है, ऐसे देशों की संख्या कम नहीं है जिनके भिन्न भागों में भिन्न भाषाओं की स्थिति है। पर उनकी अविच्छिन्न स्वतंत्रता की परंपरा ने उन्हें सम-विषम स्वरों से एक राग रच लेने की क्षमता दे दी है। हमारे देश की कथा कुछ दूसरी है। हमारी परतंत्रता आँधी-तूफ़ान के समान नहीं आई, जिसका आकस्मिक संपर्क तीव्र अनुभूति से अस्तित्व को कंपित कर देता है। वह तो रोग के कीटाणु लाने वाले मंद समीर के समान साँस में समाकर शरीर में व्याप्त हो गई है। हमने अपने संपूर्ण अस्तित्व से उसके भार को दुर्वह नहीं अनुभव किया और हमें यह ऐतिहासिक सत्य भी विस्मृत हो गया कि कोई भी विजेता विजित कर राजनीतिक प्रभुत्व पाकर ही संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि सांस्कृतिक प्रभुत्व के बिना राजनीतिक विजय न पूर्ण है, न स्थायी। घटनाएँ संस्कारों में चिर जीवन पाती हैं और संस्कार के अक्षयवाहक, शिक्षा, साहित्य, कला आदि हैं।
दीर्घकाल से विदेशी भाषा हमारे विचार-विनिमय और शिक्षा का माध्यम ही नहीं रही, वह हमारे विद्वान और संस्कृत होने का प्रमाण भी मानी जाती रही है। ऐसी स्थिति में यदि हममें से अनेक उसके अभाव में जीवित रहने की कल्पना से सिहर उठते हैं, तो आश्चर्य की बात नहीं। परलोक की स्थिति को स्थायी मानकर तो चिकित्सा संभव नहीं होती। राष्ट्र-जीवन की पूर्णता के लिए उसके मनोजगत को मुक्त करना होगा और यह कार्य विशेष प्रयत्न-साध्य है, क्योंकि शरीर को बाँधने वाली श्रृंखला से आत्मा को जकड़ने वाली श्रृंखला अधिक दृढ़ होती है। आज राष्ट्रभाषा की स्थिति के संबंध में विवाद नहीं है, पर उसे प्रतिष्ठित करने के साधनों को लेकर ऐसी विवादैषणा जागी है कि साध्य ही दूर से दूरतम होता जा रहा है। विवाद जब तर्क की सीधी रेखा पर चलता है, तब लक्ष्य निकट आ जाता है, पर जब उसके मूल में आशंका, अविश्वास और अनिच्छा रहती है, तब कहीं न पहुँचना ही उसका लक्ष्य बन जाता है।
प्रश्न
1. अवतरण को उचित शीर्षक दीजिए।
2. हमारा देश प्रमुख रूप से किसके प्रति सावधान रहा है ?
3. राष्ट्र की कौन-सी दो अनिवार्य विशेषताएँ हमारे पास हैं ?
4. अब तक हम भारतवासी किसे प्राप्त नहीं कर पाए हैं ?
5. हमारे देश की परतंत्रता किस प्रकार आई थी ?
6. हमारी राष्ट्रभाषा की वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या क्या है ?
7. अनेक विचारधाराएँ किसमें समाहित हो गई हैं ?
8. हमें आँधी-तूफ़ान की तरह क्या प्राप्त नहीं हुआ ?
9. कोई स्वतंत्र राष्ट्र किस माध्यम से अपना परिचय दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों को देता है ?
10. राजनीतिक विजय किसके बिना अधूरी रहती है ?
11. घटनाएँ किसमें चिरजीवन प्राप्त करती हैं ?
12. कौन-सी श्रृंखला किससे दृढ़ होती है ?
13. ‘व्यक्तित्व’ में किस प्रत्यय का प्रयोग है ?
14. ‘राष्ट्र-जीवन’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर
1. राष्ट्रभाषा की स्थिति।
2. हमारे देश ने अनेक संकटों को झेला है। उसे अनेक विचारधाराएँ और मान्यताएँ मिली हैं पर फिर भी वह सदा अपने सांस्कृतिक उत्तराधिकार की रक्षा के प्रति सावधान रहता है।
3. हमारे पास भौगोलिक अखंडता और सांस्कृतिक एकता है।
4. अब तक हम भारतवासी उस एक भाषा को प्राप्त नहीं कर पाए हैं जिसके द्वारा एक स्वतंत्र राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को अपना परिचय दे पाता है।
5. हमारे देश की परतंत्रता आँधी-तूफ़ान की तरह एकदम से नहीं आई थी बल्कि उसने धीरे-धीरे हमारे अस्तित्व को अपने बस में कर लिया था।
6. हमारी समस्या राष्ट्र-भाषा चुनने की नहीं है। वह तो चुनी जा चुकी है। समस्या तो प्रतिष्ठित करने की है। इसके प्रतिष्ठित होने के मूल
में छिपे अविश्वास, अनिच्छा और आशंका की समस्या है।
7. हमारी संस्कृति में अनेक विचारधाराएँ समाहित हो गई हैं।
8. हमें आँधी-तूफ़ान की तरह स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हुई।
9. कोई स्वतंत्र राष्ट्र अपनी मातृभाषा से अपना परिचय किसी दूसरे स्वतंत्र राष्ट्र को देता है।
10. राजनीतिक विजय सांस्कृतिक प्रभुत्व के बिना अधूरी रहती है।
11. घटनाएँ संस्कारों में चिरजीवन प्राप्त करती हैं।
12. शरीर को बाँधने वाली श्रृंखला से आत्मा को जकड़ने वाली श्रृंखला दृढ़ होती है।
13. ‘त्व’ प्रत्यय।
14. ‘संबंध तत्पुरुष’ समास।
प्रश्न 10.
हमारा से दान में नहीं चाहती। वह तो उसकी गति का स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए। जिस नियम से नदी-नदी की गति रोकने के लिए शिला नहीं बन सकती, उसी नियम से हिंदी भी किसी सहयोगिनी का पथ अवरुद्ध नहीं कर सकती। यह आकस्मिक संयोग न होकर भारतीय आत्मा की सहज चेतना ही है, जिसके कारण हिंदी के भावी कर्तव्य को जिन्होंने पहले पहचाना, वे हिंदी-भाषी नहीं थे। राजा राममोहन राय से महात्मा गांधी तक प्रत्येक सुधारक, साहित्यकार, धर्म-संस्थापक, साधक और चिंतक हिंदी के जिस उत्तरदायित्व की ओर संकेत करता आ रहा है, उसे नतशिर स्वीकार कर लेने पर ही हिंदी लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाएगी, क्योंकि स्वीकृतिमात्र न गति है, न गंतव्य।
वस्तुत: संपूर्ण भारत संघ को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए उसे दोहरे संबल की आवश्यकता है। एक तो आंतरिक, जो मन के द्वारों को उन्मुक्त कर सके और दूसरा बाह्य, जो आकार को सबल और परिचित बना सके। अन्य प्रदेशों के लोकहृदय के लिए तो वह अपरिचित नहीं है, क्योंकि दीर्घकाल से संत-साधकों की मर्मबानी बनकर ही नहीं, हाट-बाजार की व्यवहार बोली के रूप में भी देश का कोना-कोना घूम चुकी है। यदि आज उसे अन्य प्रदेशों से अविश्वास मिले, तो उसका वर्तमान खंडित और अतीत मिथ्या हो जाएगा। उसकी लिपि का स्वरूप भी मतभेदों का केंद्र बना हुआ है।
सुदूर अतीत की ब्राह्मी से नागरी लिपि तक आते-आते उसके बाह्य रूप को समय के प्रवाह ने इतना माँजा और खरादा है कि उसे किसी बड़ी शल्य-चिकित्सा की आवश्यकता नहीं है। नाममात्र के परिवर्तन से ही वह आधुनिक युग के मुद्रण-लेखन यंत्रों के साथ अपनी संगति बैठा लेगी, परंतु तत्संबंधी विवादों ने उसका पथ प्रशस्त न करके उसके नैसर्गिक सौष्ठव को भी कुंठित कर दिया है। यदि चीनी जैसी चित्रमयी दुरूह लिपि अपने राष्ट्र-जीवन का संदेश वहन करने में समर्थ है, तो हमारी लिपि के मार्ग की बाधाएँ दुर्लंघ्य कैसे मानी जा सकती हैं। स्वतंत्रता ने हमें राजनीतिक मुक्ति देकर भी न मानसिक मुक्ति दी है और न हमारी दृष्टि को नया क्षितिज।
हमारा शासन तंत्र और उसके संचालक भी उसके अपवाद नहीं हो सकते, परंतु हमारे पथ की सबसे बड़ी बाधा यह हमारी स्वतंत्र कार्य-क्षमता राज्यमुखापेक्षी होती जा रही है। पर अंधकार आलोक का त्योहार भी तो होता है। दीपक की लौ के हृदय में बैठ सके ऐसा कोई बाण अँधेरे के तूणीर में नहीं होता है। यदि हमारी आत्मा में विश्वास की निष्पक्ष लौ है, तो मार्ग उज्ज्वल रहेगा ही।
भाषा को सीखना उसके साहित्य को जानना है, और साहित्य को जानना मानव-एकता की स्वानुभूति है। हम जब साहित्य के स्वर में बोलते हैं, तब वे स्वर दुस्तर समुद्रों पर सेतु बाँधकर, दुर्लंघ्य पर्वतों को राजपथ बनाकर मनुष्य की सुख-दुःख की कथा मनुष्य तक अनायास पहुँचा देते हैं। अस्त्रों की छाया में चलने वाले अभियान निष्फल हुए हैं, चक्रवर्तियों के राजनीतिक स्वप्न टूटे हैं, पर मानव-एकता के पथ पर खड़ा कोई चरण-चिह्न अब तक नहीं मिटा है। मनुष्य को मनुष्य के निकट लाने का कोई स्वप्न अब तक भंग नहीं हुआ है। भारत के लोक-हृदय और चेतना ने अनंत युगों में जो मातृभूमि गढ़ी है, वह अथर्व के पृथ्वीसूक्त से वंदेमातरम् तक एक, अखंड और अक्षत
रही है। उस पर कोई खरोंच हमारे अपने अस्तित्व पर चोट है।
प्रश्न
1. अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
2. हिंदी का भविष्य कैसा होना चाहिए ?
3. हिंदी की भारतीय आत्मा को किसने पहचाना था ?
4. हिंदी की व्यापकता कैसी है ?
5. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमें क्या प्राप्त नहीं हुआ ?
6. अब तक पूरी तरह से क्या नहीं मिटा है ?
7. हिंदी अपनी सहयोगिनी के साथ क्या नहीं कर सकती ?
8. हिंदी का कौन-सा स्वरूप मतभेदों का केंद्र बना हुआ है ?
9. चीन की लिपि क्या है ?
10. भाषा को सीखने से क्या लाभ हैं ?
11. मानव-एकता की स्वानुभति क्या है ?
12. पृथ्वीसूक्त किस ग्रंथ में मिलता है ?
13. ‘फर्म-संस्थापक’ में कौन-सा समास है ?
14. ‘अविश्वास’ में प्रयुक्त उपसर्ग लिखिए।
उत्तर
1. मातृभाषा हिंदी।
2. हिंदी का भविष्य उसकी गति का स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए। उसे किसी दूसरी भाषा का विरोध किए बिना अपना स्थान मिलना चाहिए।
3. हिंदी की भारतीय आत्मा को जिन महापुरुषों ने पहचाना था वे स्वयं अहिंदी भाषी थे। राजा राममोहन राय से महात्मा गांधी तक ने इसे नतशिर स्वीकार किया था।
4. हिंदी युगों से संत-साधकों की वाणी से जनता को शिक्षा देने के साथ हाट-बाजार के व्यवहार की बोली के रूप में देश के कोने-कोने में व्याप्त हो चुकी है।
5. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमें न तो मानसिक मुक्ति प्राप्त हुई है और न ही हमारी दृष्टि को नया क्षितिज मिला है। हमें अपनी भाषा पूरी तरह से प्राप्त नहीं हुई।
6. अब तक मानव एकता के पथ पर पड़ा कोई चरण-चिह्न नहीं मिटा है।
7. हिंदी अपनी सहयोगिनी भाषाओं का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर सकती है।
8. हिंदी की लिपि का स्वरूप मतभेदों का केंद्र बना हुआ है।
9. चीन की लिपि चित्रमयी है।
10. भाषा को सीखने से उस भाषा के साहित्य को जाना जा सकता है।
11. साहित्य को जानना मानव-एकता की स्वानुभूति है।
12. पृथ्वीसूक्त अथर्ववेद में मिलता है।
13. ‘संबंध तत्पुरुष’ समास।
14. ‘अ’ उपसर्ग।
प्रश्न 12.
मैं घहरते हुए सावन-भादों में भी वहाँ गया हूँ और मैंने इस प्रपात के उद्गम यौवन के उस महावेग को भी देखा है जो सौ-डेढ़-सौ फीट की अपनी चौड़ी धारा की प्रबल भुजाओं में धरती के चटकीले धानी आँचर में उफनाते सावन को कस लेने के लिए व्याकुल हो जाता है और मैंने देखा है कि जब अंबर के महलों में घनालिंगन करने वाली सौदामिनी धरती के इस सौभाग्य की ईर्ष्या में तड़प उठती है, तब उस तड़पन की कौंध में इस प्रपात का उमड़ाव फूलकर दुगुना हो जाता है।
शरद की शुभ्र ज्योत्स्ना में जब यामिनी पुलकित हो गई है और जब इस प्रपात के यौवन का मद खुमार पर आ गया है और उस खुमारी में इसका सौंदर्य मुग्धा के वदनमंडल की भाँति और अधिक मोहक बन गया है, तब भी मैंने इसे देखा है और तभी जाकर मैंने शरदिंदु को इस प्रपात की शांत तरल स्फटिक-धारा पर बिछलते हुए देखा है।
पहली बार जब मैं गया था तो वहाँ ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं बना था और इसलिए खड़ी दुपहरी में चट्टानों की ओट में ही छाँह मिल सकी थी। ये भूरी-भूरी चट्टानें पानी के आघात से घिस-घिसकर काफ़ी समतल बन गई हैं और इनका ढाल बिल्कुल खड़ा है। इन चट्टानों के कगारों पर बैठकर लगभग सात-आठ हाथ दूर प्रपात के सीकरों का छिड़काव रोम-रोम से पिया जा सकता है। इन शिलाओं से ही कुंड में छलाँग मारने वाले धवल जल-बादल पेंग मारते से दिखाई देते हैं और उनके मंद गर्जन का स्वर भी जाने किस मल्हार के राग में चढ़ता-उतरता रहता है कि मन उसमें खो-सा जाता है।
एक शिला की शीतल छाया में कगार के नीचे पैर डाले मैं बड़ी देर तक बैठे-बैठे सोचता रहा कि मृत्यु के गहन कूप की जगत पर पैर लटकाए भले ही कोई बैठा हो, किंतु यदि उसे किसी ऐसे सौंदर्य के उद्रेक का दर्शन मिलता रहे तो वह मृत्यु की भयावह गहराई भूल जाएगा। मृत्यु स्वयं ऐसे उन्मादी सौंदर्य के आगे हार मान लेती है, नहीं तो समय की कसौटी पर यौवन का गान अमिट स्वर्ण-रेखा नहीं खींच सकता था। मिट्टी में खिले हुए गुलाब की पंखुड़ियाँ भर जाती हैं और उनको झरते देख मृत्यु हँसना चाहती है, पर उस मिट्टी में से जब गुलाब की गंध ओस पड़ने पर उसाँस की भाँति निकल पड़ती है, तब मृत्यु गलकर पानी हो जाती है।
मैं सोचता रहा कि यहाँ जो अजर-अमर सौंदर्य उमड़ा चला जा रहा है, वह स्वयं विलय का सौंदर्य है–विलय मटमैली धारा का शुभ्र जल-कणों में, शुभ्र जल-कणों की राशि का शुभ्रतर वाण में और वाष्प का सौंदर्य के रस-भरे जूही-लदे धुंघराले और लहरीले चूड़ापाश में। यह चूड़ापाश जूहियों से इस तरह सज जाता है कि उसके निचले छोर की श्यामलता भर दिखाई पड़ सकती है।
एक अद्वितीय चाँदनी उसे ऊपर से छाप लेती है। मैंने देखा कि साँझ हो आई है। सूर्य की तिरछी किरणें जाते-जाते इस सौंदर्य का रहस्य-भेदन करते जाना चाहती हैं। पर जैसे प्रपात जाने कितने कवच-मंत्र-उच्चारण करता हुआ और मुखर हो रहा है और अपने को इस प्रकार समेट रहा है कि रवि-रश्मियों का प्रयत्न आप से आप विफल हो रहा है।
प्रश्न
1. अवतरण के लिए उचित शीर्षक दीजिए।
2. जल-प्रपात का फैलाव वर्षा ऋतु में कैसा हो जाता है ?
3. शरद की चाँदनी में जल-प्रपात लेखक को कैसा प्रतीत हुआ था ?
4. जब लेखक पहली बार वहाँ गया था तो कहाँ रुका था ?
5. लेखक की दृष्टि में मृत्यु किसके आगे हार मान लेती है ?
6. सूर्य की किरणें जल-प्रपात को क्या प्रदान करती हैं ? ।
7. लेखक जल-प्रपात को देखने किन महीनों में गया था ?
8. लेखक का मन किसके शोर में खो जाता है ?
9. मृत्यु गलकर पानी कब हो जाती है ?
10. लेखक कहाँ बैठकर सोच रहा था ?
11. ‘शरदिंदु’ और ‘सौदामिनी’ का क्या अर्थ है ?
12. चट्टानों के कगारों से प्रपात के सीकरों की दूरी कितनी है ?
13. ‘स्वर्ण-रेखा’ में कौन-सा समास है ?
14. ‘श्यामलता’ में प्रत्यय छाँटिए।
उत्तर
1. जल-प्रपात का सौंदर्य।
2. जल-प्रपात का फैलाव वर्षा ऋतु में बढ़कर दुगुना हो जाता है और वह उफनते सावन को कस लेने के लिए व्याकुल-सा हो उठता है।
3. लेखक को शरद की चाँदनी में जल-प्रपात ऐसा लगा था जैसे वह शांत रूप में स्फटिक धारा पर फैला हुआ हो। वह चाँदनी में जगमगा रहा था।
4. जब लेखक पहली बार जल-प्रपात देखने गया था तो वहाँ ठहरने का कोई स्थान नहीं था। उसने दोपहर की धूप चट्टानों की ओट में झेली थी।
5. लेखक की दृष्टि में मृत्यु स्वयं ऐसे जल-प्रपात के उन्मादी सौंदर्य के सामने हार मान लेती है।
6. सूर्य की किरणें जल-प्रपात को अपार सुंदरता प्रदान करती हैं और वह उन्हें प्राप्त कर कवच मंत्र उच्चारण करता हुआ सा प्रतीत होता है।
7. लेखक जल प्राप्त को देखने सावन-भादों में वहाँ गया था।
8. लेखक का मन शिलाओं से कुंड में गिरते हुए प्रपात की मंद गर्जन में खो जाता है।
9. जब मिट्टी में से गुलाब की गंध ओस पड़ने पर उसाँस की भाँति निकलती है, तब मृत्यु गलकर पानी हो जाती है।
10. लेखक एक शिला की शीतल छाया में कगार के नीचे पैर डालकर सोच रहा था।
11. शरदिंदु का अर्थ ‘शरद ऋतु का चंद्रमा’ तथा सौदामिनी का अर्थ ‘बिजली’ है।
12. लगभग सात-आठ हाथ।
13. ‘संबंध तत्पुरुष’ समास।
14. ‘ता’ प्रत्यय।
प्रश्न 13.
निराला जी के त्याग की कहानियाँ तो अनंत हैं। उनकी डायरी लिखी जा सकती है। मतवाला प्रति शनिवार को निकलता था। उस दिन प्रात:काल को कई बंगाली स्नातक युवक अपनी साइकिल लेकर पहुँच जाते थे। वे प्रति सप्ताह अख़बार बेचकर अपना कमीशन ले लेते थे। मतवाला की काफ़ी धूम और धाक थी। गरीब छात्रों को उसकी बिक्री से पर्याप्त सहायता मिल जाती थी। एक दिन एक अत्यंत दीन-मलीन छात्र से निराला जी हाल-चाल पूछने लगे।
उसे फटेहाल देख ऐसे द्रवित हुए कि डेढ़ सौ रुपए की नई साइकिल तो खरीद ही दी, उसके लिए डबल सूट भी बनवा दिया और कहा कि स्वावलंबन का सहारा मत छोड़ो तथा पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे मुझसे लेते जाओ। मतवाला कार्यालय का दरबान गोरखपुर-बस्ती की ओर का रहने वाला एक नौजवान था। वह निराला जी को ‘गुरु जी’ कहा करता था। उसकी शादी तय हुई, तब निराला जी ने रेशमी साड़ी, मखमली कुर्ती, सोने का इयर-रिंग (कर्णाभूषण) इत्र-फुलेल आदि खरीदकर दस रुपए नेवते के साथ भेज दिया। यह काम उन्होंने बिल्कुल गुपचुप किया।
उनकी कमाई के अधिकांश पैसे मौन भाव से परोपकार में ही खर्च होते। सुहृद-संघ (मुजफ्फरपुर) के वार्षिकोत्सव से लखनऊ लौटते समय मुझसे मिलने के लिए बीच में छपरा उतरे, तो रिक्शे वाले की फटी गंजी देख उससे हाल-चाल पूछने लगे और एक नई गंजी तथा एक नया अंगोछा खरीदकर अपने सामने ही फटी. गंजी निकलवाई और नई पहनाई। वह बेचारा रोता हुए उनके चरणों में लोटने लगा। निराला जी वास्तव में निराला ही थे। अंगूर का गुच्छा या मीठे खजूर की पुड़िया किसी भिखारी के हाथ में देते समय हँसकर कह भी देते थे कि इसे मेरे सामने चखकर देखो तो कैसा है। एक दिन एक कंगले को लाल सेब देकर उसे सीख देने लगे कि इसे तू खाएगा तो तेरा चेहरा ऐसा ही सुर्ख हो जाएगा, जिसपर उसने दीनतापूर्वक हँसकर कहा कि एक दिन आप की मर्जी से यह खाने को मिल ही गया तो क्या इतने र ही मेरे सूखे बदन में खून आ जाएगा, मालिक !
यह सुनकर निराला जी ने सेठ जी से कहा कि इसे दो रुपए दे दीजिए, यह और भी खरीद कर खाएगा। सेठ जी ने भी बिना हिचक वैसा ही किया और जब मुंशी जी ने ठहाके के साथ यह कह दिया कि इतने पैसे से भी नया खून लाने भर सेब नहीं खा सकता, तब अपनी जेब से झट निकाल कर एक रुपया फिर दिया। निराला जी संसार से ऐसे निस्संग रहे कि जीवन भर फक्कड़शाह बने रहे। उनके पास न अपना कोई संदूक था, न ताला-कुंजी था, कपड़े-लत्ते और रुपए-पैसे की मोह ममता तो थी ही नहीं। अपनी धुन में मस्त रहने से फुरसत ही कहाँ थी। रुपए-पैसे का हिसाब-किताब रखने का अभ्यास ही नहीं था। तकिए के नीचे नंबरी नोट पड़े रहते, पर इन नोटों को उनके पास पड़े रहने का अवकाश कहाँ मिलता था।
पूरे चौबीस घंटे तक उनके पास जो द्रव्य ठहर जाए, उसका अहोभाग्य! निराला जी की ये कहानियाँ आज के युग में उपन्यास की मनगढंत बातें भले ही समझी जाएँ, पर आज जो निराला की पूजा-प्रतिष्ठा हो रही है, उससे उनकी साधना स्वतः सिद्ध हो रही है। पुण्यबल के बिना कीर्ति-प्रसार कदापि नहीं होता। निस्पृह त्याग से बढ़कर कोई पुण्य भी नहीं। व्यास वचनानुसार “परोपकाराय पुण्याय” तभी मनुष्य कर पाता है जब उसकी प्रकृति में त्याग-वृत्ति की प्रधानता रहती है।
प्रश्न
1. अवतरण के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
2. निराला जी के त्याग की कहानियाँ कितनी हैं ?
3. निराला जी की किस पत्रिका की धूम थी ?
4. निराला जी अपनी कमाई का अधिकांश भाग किस पर खर्च कर देते थे ?
5. निराला जी जीवन भर कैसे बने रहे थे ?
6. निराला जी के स्वभाव में किस वृत्ति की प्रधानता थी ?
7. मतवाला कब निकला करता था ?
8. बंगाली युवक मतवाला बेचकर क्या प्राप्त करते थे ?
9. गरीब छात्रों को किसकी बिक्री से आर्थिक सहायता मिल जाया करती थी ?
10. मतवाला का दरबान कहाँ का रहने वाला था ?
11. निराला लेखक से मिलने के लिए कहाँ गए थे ?
12. निराला को किसके प्रति ममता नहीं थी ?
13. ‘सुहृद’ में किस उपसर्ग का प्रयोग है ?
14. ‘ताला-कुंजी’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर
1. महाप्राण निराला।
2. निराला जी के त्याग की कहानियाँ अनंत हैं। उनकी तो डायरी लिखी जा सकती है।
3. निराला जी की पत्रिका ‘मतवाला’ की धूम थी।
4. निराला जी अपनी कमाई का अधिकांश भाग मौन-भाव से परोपकार में खर्च कर देते थे।
5. निराला जी जीवन भर फक्कड़शाह बने रहे थे। कमाते थे और बाँट देते थे।
6. निराला जी के स्वभाव में त्याग वृत्ति की प्रधानता थी। वे अपने पास कुछ नहीं रखते थे। जो कमाते थे, सब बाँट देते थे।
7. मतवाला प्रत्येक शनिवार को निकलता था।
8. बंगाली युवक मतवाला बेचकर अपना कमीशन प्राप्त करते थे।
9. गरीब छात्रों को मतवाला को बेचने से मिलने वाले कमीशन से आर्थिक सहायता मिल जाया करती थी।
10. मतवाला का दरबान गोरखपुर बस्ती की ओर का रहने वाला था।
11. निराला लेखक से मिलने के लिए छपरा गए थे।
12. निराला को कपड़े-लत्ते और रुपए-पैसे के प्रति ममता नहीं थी।
13. ‘सु’ उपसर्ग।
14. ‘वंद्व’ समास।
प्रश्न 14.
भारत के संविधान में सभी को उन्नति के बराबर अवसर देने की बात कही गई है। बाद में आपातकाल में संविधान में समाजवाद लाने की बात भी जोड़ी गई। समाजवाद की बात को फिलहाल भूल भी जाएँ तो भी समान अवसर की बात तो भूली नहीं जा सकती जिस पर देश के संविधान-निर्माताओं ने अपनी मोहर लगाई थी लेकिन इस समय जो राजनीतिक और आर्थिक माहौल है उसमें संविधान की इस बुनियादी बात को लोग भूले हुए हैं और उन्हें आज कोई इसकी याद दिलाने वाला भी नहीं है।
अत: विश्व बैंक या कोई और संस्था अगर आर्थिक असमानता बढ़ने की बात करती है तो इसे इस तरह दरगुजर कर दिया जाता है, जैसे यह बात कही ही नहीं गई हो या गलती से कह दी गई हो। वैसे यह सच भी है कि विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं को किसी भी देश में आर्थिक असमानता बढ़ने की वास्तविक चिंता नहीं है। ऐसी बातें अकसर क्षेपक या प्रसंग के रूप में ही आती हैं। इस देश में अभी भी लगभग चालीस करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी की हालत में जी रहे हैं।
यानी जिनके पास खाने-कपड़े रहने का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। भारत में आज सत्तर हजार से ज्यादा परिवार ऐसे ज़रूर हो गए हैं जिनके पास दस लाख रुपये से ज्यादा की दौलत है लेकिन इसी के साथ यह भी एक सच्चाई है कि आज औसत भारतीय परिवार 1991 के मुकाबले साल में सौ किलोग्राम अनाज कम खा रहा है। आँकड़ों के अनुसार 2002-03 में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत उस समय से भी कम रही, जब आजादी से पहले बंगाल का सबसे भीषण अकाल पड़ा था। इस सच्चाई से भी हम वाकिफ हैं कि यही भारत जो विश्व अर्थव्यवस्था को चुनौती देता बताया जाता है, संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार 124वें स्थान से भी पिछड़कर 127वें स्थान पर चला गया है।
यहाँ पिछले दस वर्षों में बाल-मृत्यु दर में गिरावट इतनी धीमी रही है कि आज बाँग्लादेश भी-जो हमसे इस मामले में पीछे रहा करता था–आगे बढ़ चुका है। भारत विश्व के उन कुछ देशों में से है जहाँ बच्चों के पोषण का स्तर सबसे अधिक गिरा हुआ है। इस मामले में भारत की बदनामी इतनी ज्यादा है कि उसकी तुलना अफ्रीका के कुछ बेहद ही गरीब देशों से की जाती है।
कुल मिलाकर हम एक ऐसे देश के निवासी बनते जा रहे हैं जिसमें अर्थव्यवस्था तो प्रगति कर रही है मगर लोग पिछड़ते जा रहे हैं जबकि दिलचस्प यह है कि इंदिरा गांधी के जमाने में जब अर्थव्यवस्था की गति तेज़ नहीं थी, जब अर्थव्यवस्था आज के मुहावरों में जंजीरों में जकड़ी हुई थी तब लोग ज्यादा तेजी से प्रगति कर रहे थे। आज थोड़ी-सी जगमगाहट ने घने अंधेरे को इस तरह ढक दिया है कि अच्छे अच्छों को अँधेरे का आभास तक नहीं होता।
वास्तव में आर्थिक असमानता, सामाजिक असमानता को भी बरकरार रखने में मदद करती है क्योंकि आर्थिक समानता ही वह पहली सीढ़ी है जोकि व्यक्ति को सामाजिक समानता की ओर ले जा सकती है। इसके बगैर सामाजिक असमानता मिटाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता लेकिन हमारे यहाँ पिछले वर्षों में सामाजिक असमानता को खत्म करने के आधे-अधूरे राजनीतिक प्रयास ही हुए हैं। इसलिए इसका बहुत असर हमारे आर्थिक ढाँचे पर नहीं पड़ा है। इसी का असर है कि आज लगभग सर्वसम्मति से यह मान लिया गया है कि बिहार-जैसे राज्य का कुछ नहीं किया जा सकता और वहाँ जो आज स्थिति है, उसे खुदा भी ठीक नहीं कर सकता यानी वहाँ की सरकार पर भी यह नैतिक दायित्व
अब नहीं रहा कि वह बिहार को फिर से आर्थिक और सामाजिक रूप से खड़ा करे। अगर वह मात्र इतना भी कर लेती है कि जो स्थिति इस .. समय वहाँ है उसे और बिगड़ने न दे तो इससे भी हमारे देश का आला वर्ग प्रसन्न हो जाएगा और इसे भी एक उपलब्धि माना जाएगा।
प्रश्न
1. अवतरण के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
2. आपातकाल में हमारे संविधान में किस बात को जोड़ा गया ?
3. विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष को किसकी चिंता नहीं है ?
4. हमारे देश के लगभग कितने लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं ?
5. भारत की गरीबी की तुलना किससे की जाती है ?
6. आर्थिक असमानता किसे मदद कर रही है ?
7. भारत के संविधान में क्या बात कही गई है ?
8. वर्तमान में लोग क्या भूले हुए हैं ?
9. किसी भी देश में आर्थिक असमानता संबंधी बात किस रूप में कही जाती है ?
10. आज औसत भारतीय परिवार सन 1991 के मुकाबले कितना अनाज कम खा रहा है ?
11. देश की आज़ादी से पहले कहाँ अकाल पड़ा था ?
12. संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में भारत किस स्थान पर है ?
13. ‘विश्व बैंक’ में कौन-सा समास है ?
14. ‘बेहद’ में कौन-सा उपसर्ग है ?
उत्तर
1. भारत की अर्थव्यवस्था।
2. आपातकाल में हमारे संविधान में समाजवाद लाने की बात जोड़ी गई थी।
3. विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष को किसी भी देश में आर्थिक असमानता बढ़ने की कोई चिंता नहीं है, ऐसी बातें तो कभी-कभी प्रसंग के रूप में कही जाती है।
4. हमारे देश के लगभग चालीस करोड़ लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे हैं जिनके पास खाने-पीने, रहने की कोई व्यवस्था नहीं है।
5. भारत की गरीबी की तुलना अफ्रीका के अति निर्धन देशों से की जाती है जिसकी अर्थव्यवस्था तो प्रगति कर रही है पर लोग पिछड़ते जा रहे हैं।
6. हमारे देश की आर्थिक असमानता सामाजिक असमानता को बरकरार रखने में मदद कर रही है। अच्छी आर्थिक स्थिति से सामाजिक असमानता मिटाई ही नहीं जा सकती।
7. भारत के संविधान में सभी को उन्नति के बराबर अवसर देने की बात कही गई है।
8. वर्तमान में लोग संविधान की बुनियादी बातों को ही भूले हुए हैं।
9. क्षेपक या प्रसंग में ही किसी देश में आर्थिक असमानता संबंधी बात कही जाती है।
10. आज औसत भारतीय परिवार सन 1991 के मुकाबले 100 किलोग्राम अनाज कम खा रहा है।
11. देश की आजादी से पहले बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था।
12. संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में भारत 127वें स्थान पर है।
13. संबंध तत्पुरुष समास।
14. ‘बे’ उपसर्ग।
प्रश्न 15.
सिने जगत के अनेक नायक-नायिकाओं, गीतकारों, कहानीकारों और निर्देशकों को हिंदी के माध्यम से पहचान मिली है। यही कारण है कि गैर-हिंदी भाषी कलाकार भी हिंदी की ओर आए हैं। समय और समाज के उभरते सच को परदे पर पूरी अर्थवत्ता में धारण करने वाले ये लोग दिखावे के लिए भले ही अंग्रेजी के आग्रही हों, लेकिन बुनियादी और ज़मीनी हकीकत यही है कि इनकी पूँजी, इनकी प्रतिष्ठा का एकमात्र निमित्त हिंदी ही है। लाखों-करोड़ों दिलों की धड़कनों पर राज करने वाले ये सितारे हिंदी फ़िल्म और भाषा के सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं। .. ‘छोटा परदा’ ने आम जनता के घरों में अपना मुकाम बनाया तो लगा हिंदी आम भारतीय की जीवन-शैली बन गई।
हमारे आद्यग्रंथों-रामायण और महाभारत को जब हिंदी में प्रस्तुत किया गया तो सड़कों का कोलाहल सन्नाटे में बदल गया। ‘बुनियाद’ और ‘हम लोग’ से शुरू हुआ सोप ऑपेरा का दौर हो या सास-बहू धारावाहिकों का, ये सभी हिंदी की रचनात्मकता और उर्वरता के प्रमाण हैं। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से करोड़पति चाहे जो बने हों, पर सदी के महानायक की हिंदी हर दिल की धड़कन और हर धड़कन की भाषा बन गई।
सुर और संगीत की प्रतियोगिताओं में कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, असम, सिक्किम जैसे गैर-हिंदी क्षेत्रों के कलाकारों ने हिंदी गीतों के माध्यम से पहचान बनाई। ज्ञान गंभीर ‘डिस्कवरी’ चैनल हो या बच्चों को रिझाने-लुभाने वाला ‘टॉम ऐंड जेरी’-इनकी हिंदी उच्चारण की मिठास और गुणवत्ता अद्भुत, प्रभावी और ग्राह्य है। धर्म-संस्कृति, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान भी कार्यक्रम हिंदी की संप्रेषणीयता के प्रमाण हैं। (C.B.S.E Delhi 2009)
प्रश्न
1. उपर्युक्त अवतरण के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. गैर-हिंदी भाषी कलाकारों के हिंदी सिनेमा में आने के दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
3. छोटा परदा से क्या तात्पर्य है? इसका आम जन-जीवन की भाषा पर क्या प्रभाव पड़ा?
4. आशय स्पष्ट कीजिए-सड़कों का कोलाहल सन्नाटे में बदल गया।
5. कुछ बहुप्रचलित और लोकप्रिय धारावाहिकों के उल्लेख से लेखक क्या सिद्ध करना चाहता है?
6. ‘सदी का महानायक’ से लेखक का संकेत किस फ़िल्मी सितारे की ओर है?
7. फ़िल्म और टी० वी० ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में क्या भूमिका निभाई है ? संक्षेप में लिखिए।
8. ‘सन्नाटा’ और ‘ज्ञान’ शब्दों के विलोम लिखिए।
उत्तर
1. हिंदी की लोकप्रियता।
2. गैर-हिंदी भाषी कलाकार हिंदी सिनेमा में इसलिए आते हैं क्योंकि हिंदी सिनेमा से इन्हें लोकप्रियता और प्रतिष्ठा मिलती है तथा आर्थिक लाभ भी होता है।
3. छोटा परदा से तात्पर्य दूरदर्शन है। इस पर प्रसारित हिंदी भाषी कार्यक्रमों ने हिंदी को आम जन-जीवन की भाषा बना दिया है, जिसे हर कोई समझ और बोल सकता है।
4. इस कथन से यह आशय है कि जब दूरदर्शन पर हिंदी भाषा में रामायण और महाभारत जैसे कार्यक्रम प्रसारित होते थे तो लोग घरों में
दूरदर्शन पर इन कार्यक्रमों को देखते थे तथा सड़कें सुनसान हो जाती थीं।
5. इन धारावाहिकों के उल्लेख से लेखक यह सिद्ध करना चाहता है कि किस प्रकार हिंदी में प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों को आम लोग पसंद करते थे तथा हिंदी हर दिल की धड़कन और हर दिल की भाषा बन गई थी।
6. इस कथन के माध्यम से लेखक ने अभिताभ बच्चन की ओर संकेत किया है।
7. फ़िल्म और टी० वी० ने हिंदी में प्रसिद्ध कथानकों को फिल्माकर तथा प्रसारित करके लोगों को हिंदी भाषा का प्रेमी, प्रशंसक तथा समर्थक बना दिया है क्योंकि हिंदी उच्चारण की मिठास और गुणवत्ता अत्यंत प्रभावशाली तथा गाह्य है।
8. सन्नाटा x कोलाहल, ज्ञान x अज्ञान
प्रश्न 16.
बाज़ार ने, विज्ञापन ने हिंदी को एक क्रांतिकारी रूप दिया, जिसमें रवानगी है, स्वाद है, रोमांच है, आज की सबसे बड़ी चाहत का अकूत संसार है। इस तरह हिंदी भविष्य की भाषा, समय का तकाजा और रोजगार की ज़रूरत बनती जा रही है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता है। सूचना-क्रांति ने विश्व को ग्राम बना दिया है। मीडिया की जागरूकता ने समाज में एक क्रांति ला दी है और इस क्रांति की भाषा हिंदी है।
इतने सारे समाचार चैनल हैं और सभी चैनलों पर हिंदी अपने हर रूप में नए कलेवर, तेवर में निखरकर, सँवरकर, लहरकर, ‘बोले तो बिंदास बनकर छाई रहती है।’ तुलनात्मक अर्थों में आज अंग्रेजी-पत्रकारिता का मूल्य, बाज़ार, उत्पादन, उपभोग और वितरण बहुत बड़ा है। प्रिंट मीडिया की स्थिति ज्यादा बेहतर है, पत्र-पत्रिकाओं की लाखों प्रतियाँ रोज़ाना बिकती हैं। चीन के बाद सबसे अधिक अखबार हमारे यहाँ पढ़े जाते हैं, हिंदी के संत्रेक्षण की यह मानवीय, रचनात्मक और सारगर्भित उपलब्धि है।
पत्र-पत्रिकाएँ हिंदी की गुणवत्ता और प्रचार-प्रसार के लिए कृतसंकल्प हैं। यह भ्रम फैलाया गया था कि हिंदी रोज़गारोन्मुखी नहीं है। आज सरकारी, गैर-सरकारी क्षेत्रों में करोड़ों हिंदी पढ़े-लिखे लोग आजीविका कमा रहे हैं। भविष्य में हिंदी का बाज़ार-माँग और अधिक होगी। पसीनों में, प्रार्थनाओं में, सिरहानों की सिसकियों में और हमारे सपनों में जब तक हिंदी रहेगी तब तक वह बिना किसी पीड़ा या रोग के सप्राण, सवाक् और सस्वर रहेगी। (A.I.C.B.S.E., 2009)
प्रश्न
1. उपर्युक्त अवतरण के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. लोकतंत्र का चौथा स्तंभ किसे कहा गया है और क्यों ?
3. तुलनात्मक दृष्टि से हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में लेखक ने किसे व्यापक माना है और क्यों ?
4. हिंदी पर रोज़गारपरक न होने का आक्षेप क्यों ठीक नहीं है ?
5. बाज़ार ने हिंदी के स्वरूप को क्या विशेषताएँ दी जिनसे वह रोजगार की ज़रूरत बनती जा रही है ?
6. ‘प्रिंट मीडिया’ से क्या तात्पर्य है ? हिंदी के लिए उसकी पत्र-पत्रिकाएँ क्या कर रही हैं ?
7. विश्व को ग्राम बना देने का आशय समझाइए।
8. ‘सरकारी’ और ‘अतीत’ शब्दों के विलोम लिखिए।
9. निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची बताइए-‘समय’ तथा ‘प्रार्थना’।
10. ‘जागरूकता’ एवं ‘संप्रेषण’ शब्दों में से उपसर्ग और प्रत्यय अलग-अलग कीजिए।
उत्तर
1. ‘हिंदी’ सब की भाषा।
2. लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता को कहा गया है क्योंकि लोकतंत्रीय शासन-प्रणाली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त है तथा इसकी अभिव्यक्ति पत्रकारिता के माध्यम से संभव है।
3. लेखक ने तुलनात्मक दृष्टि से हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक माना है। क्योंकि अंग्रेजी की तुलना में हिंदी के पाठक अधिक हैं क्योंकि हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की लाखों प्रतियाँ रोजाना बिकती हैं।
4. हिंदी पर रोजगारपरक न होने का यह आरोप सही नहीं है क्योंकि आज सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्रों में करोड़ों हिंदी पढ़े-लिखे लोग आजीविका कमा रहे हैं। भविष्य में हिंदी की बाज़ार माँग और अधिक होने की संभावना है।
5. बाज़ार ने मीडिया के माध्यम से हिंदी को एक क्रांतिकारी रूप दिया। सभी चैनलों पर हिंदी के प्रयोग ने इसके रोजगार के अवसरों में बहुत वृद्धि की है।
6. प्रिंट मीडिया से तात्पर्य मुद्रित माध्यम जैसे अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ आदि हैं। हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं की लाखों प्रतियाँ रोज़ बिकती हैं। इससे हिंदी का प्रचार-प्रसार निरंतर बढ़ रहा है।
7. विश्व को ग्राम बना देने से तात्पर्य यह है कि आज जनसंचार के साधनों द्वारा विश्व के किसी कोने में होने वाली घटना का पता समस्तसंसार को ऐसे लग जाता है जैसे यह घटना किसी एक गाँव में घटी हो।
8. सरकारी = निजी, अतीत = वर्तमान।
9. समय-काल, प्रार्थना-वंदना।
10. जागरूकता-‘ता’ प्रत्यय, ‘संप्रेषण–’सम्’
प्रश्न 17.
यह संतोष और गर्व की बात है कि देश वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षेत्र में आशातीत प्रगति कर रहा है। विश्व के समृद्ध अर्थव्यवस्था वाले देशों से टक्कर ले रहा है और उनसे आगे निकल जाना चाहता है। किंतु इस प्रगति के उजले पहलू के साथ एक धुंधला हलू भी है, जिससे हम छुटकारा चाहते हैं। वह है नैतिकता का पहलू। यदि हमारे हृदय में सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय भावनाएँ नहीं हैं; देश के मान-सम्मान का ध्यान नहीं है; तो सारी प्रगति निरर्थक होगी।
आज यह आम धारणा है कि बिना हथेली गर्म किए साधारण-सा काम भी नहीं हो सकता। भ्रष्ट अधिकारियों और भ्रष्ट जनसेवकों में अपना घर भरने की होड़ लगी है। उन्हें न समाज की चिंता है, न देश की। समाचार-पत्रों में अब ये रोजमर्रा की घटनाएँ हो गई हैं। लोग मान बैठे हैं कि यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है, जबकि यह सच नहीं है। नैतिकता मरी नहीं है, पर प्रचार अनैतिकता का हो रहा है। लोगों में यह धारणा घर करती जा रही है कि जब बड़े लोग ही ऐसा कर रहे हैं तो हम क्या करें? सबसे पहले तो इस सोच से मुक्ति पाना. ज़रूरी है और उसके बाद यह संकल्प कि भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाएँगे। उन्हें बेनकाब करेंगे जो देश के नैतिक चरित्र को बिगाड़ रहे हैं।
प्रश्न
(क) देशवासियों के लिए गर्व की बात क्या है? (C.B.S.E., 2011)
(ख) देश की आशातीत प्रगति से जुड़ा धुंधला पक्ष क्या है?
(ग) नैतिक चरित्र से लेखक का क्या आशय है?
(घ) देश की प्रगति कब निरर्थक हो सकती है?
(ङ) ‘नैतिकता मरी नहीं है’-पक्ष या विपक्ष में अपने विचार 4-5 वाक्यों में लिखिए।
(च) समाज अनैतिक पहलू से कैसे मुक्ति पा सकता है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ज) गद्यांश में प्रयुक्त किसी मुहावरे का वाक्य-प्रयोग कीजिए।
(झ) प्रत्यय अलग कीजिए-नैतिकता, ईमानदारी।
(ञ) उपसर्ग अलग कीजिए-निरर्थक, अधिकारी।
(ट) सरल वाक्य में बदलिए-लोग मान बैठे हैं कि यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है।
उत्तर
(क) देश वैज्ञानिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति कर रहा है और विश्व के समृद्ध देशों से टक्कर लेकर उनसे आगे निकल जाना चाहता है।
(ख) धुंधला पक्ष हमारी नैतिकता से जुड़ा है। बिना रिश्वत से हमारा कोई काम नहीं होता। सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सभी अपना-अपना घर भरने की होड़ में लगे हुए हैं। नैतिक चरित्र से लेखक का आशय देशवासियों में अपने देश के मान-सम्मान का ध्यान होना चाहिए। वे सत्य, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से अपना कार्य करें तथा उनमें मानवीय संवेदना होनी चाहिए।
(घ) देश की प्रगति तब निरर्थक हो जाती है जब हमारे हृदय में सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय भावनाएँ नहीं होतीं तथा हम अपने देश के मान-सम्मान का ध्यान नहीं रखते।
(ङ) इस कथन के पक्ष में हमारा यह कहना है कि हमारे देश में अभी भी नैतिकता जीवित है। भारतीय संस्कार मनुष्य को सत्य, अहिंसा और ईमानदारी से जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करते हैं।
हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी, कर्ण जैसे दानी, दधीचि जैसे त्यागी इसी भारत भूमि पर पैदा हुए थे। महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा के बल पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि नैतिक मूल्य मरे नहीं हैं।
(च) समाज को मीडिया के भ्रमित प्रचारों से स्वयं को मुक्त रखना होगा तथा ऐसे लोगों को बेनकाब करना होगा जो देश में भ्रष्टाचार फैलाकर हमारा नैतिक चरित्र बिगाड़ रहे हैं।
(छ) भ्रष्टाचार मुक्त समाज।
(ज) टक्कर लेना-भारतीय सेना शत्रु सेना से टक्कर लेने के लिए तैयार है।
(झ) ता, दारी।
(ञ) निर्, अधि।
(ट) लोगों ने इसे ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र मान लिया है।
प्रश्न 18.
कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मन:स्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों को उजागर करना मीडिया का दायित्व है, पर उसे सनसनीखेज़ बनाकर चैनलों में बार-बार प्रसारित कर उनकी चाहे दर्शक-संख्या बढती हो, पर आम आदमी इससे अधिक शंकाल हो जाता है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं।
आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। ऐसे अधिकारी हैं जो अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं। ऐसे नेता भी हैं जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं। वे मीडिया-प्रचार के आकांक्षी नहीं हैं। उन्हें कोई इनाम या प्रशंसा के सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे, बस कर्तव्यपालन कर रहे हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों से समाज बहुत-कुछ सीखता है।
आज विश्व में भारतीय बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए कम, अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों-जैसे क्यों नहीं बन सकते। और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं! यदि यह सच है कि नागरिकों के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी सोच को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग़ बनाए रखने की आदत डालें।
प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) लेखक ने क्यों कहा है कि कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत है?
(ग) लोगों की सोच को बनाने-बदलने में मीडिया की क्या भूमिका है?
(घ) अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल क्या करते हैं? उसका आम नागरिक पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(ङ) ‘आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है’-पक्ष या विपक्ष में अपनी ओर से दो तर्क दीजिए।
(च) आज दुनिया में भारतीय किन गुणों के लिए जाने जाते हैं?
(छ) किसी संपन्न देश के राष्ट्रपति को अपने नागरिकों से भारतीयों जैसा बनने के लिए कहना क्या सिद्ध करता है?
(ज) लेखक भारतीय नागरिकों से क्या अपेक्षा करता है?
(झ) प्रत्यय अलग कीजिए-नागरिक, ईमानदारी।
(ञ) उपसर्ग अलग कीजिए-बेदाग़, अधिकारी।
(ट) सरल वाक्य में बदलिए ऐसे अधिकारी हैं जो अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं।
उत्तर
(क) सकारात्मक सोच।
(ख) क्योंकि उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ तथा हर आदमी चोर दिखाई देता है। उनकी सोच नकारात्मक होती है, वे अच्छाई में भी बुराई देखते हैं।
(ग) लोगों की सोच को बनाने-बदलने में मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है, वे जैसा दिखाते हैं लोगों पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है।
(घ) अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल बुराइयों को उजागर करने के लिए उन्हें सनसनीखेज बनाकर अपने चैनल पर बार-बार प्रसारित करते हैं जिससे आम नागरिक यही सोचता है कि सभी बुरे ही हैं।
(ङ) हम इस कथन का समर्थन करते हैं क्योंकि कुछ अधिकारी अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से भी बड़ा मानकर ईमानदारी से काम करते हैं तथा विदेशी भी भारतीयों की निष्ठा एवं लगन की प्रशंसा करते हैं।
(च) आज दुनिया में भारतीय अपनी निष्ठा, लगन, बुद्धि और पराक्रम के लिए जाने जाते हैं।
(छ) यह सिद्ध करता है कि भारतीय श्रेष्ठ एवं सकारात्मक चरित्र वाले होते हैं।
(ज) लेखक भारतीय नागरिकों से अपेक्षा करता है कि वे अपनी सोच को सकारात्मक बनाते हुए अपने चरित्र को उज्ज्वल बनाएँ।
(झ) इक, दारी।
(ञ) बे, अधि।
(ट) कुछ अधिकारी अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं।
प्रश्न 19.
आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं .. को समझें; उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।
स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज और स्वाभाविक मानते थे। स्वामीजी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी – को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे।
वे कहा करते थे-यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी। क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा। (C.B.S.E., 2009)
प्रश्न
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। कहते हैं हैं? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(ग) ‘भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है। क्या ज़रूरी है और क्यों?
(घ) स्वामी विवेकानंद को अपने समय से बहुत आगे’ क्यों कहा गया है?
(ङ) स्वामीजी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी और क्यों?
(च) भारत में साथ-साथ रह रहे किन्हीं चार धर्मों और मतों के नाम लिखिए।
(छ) गद्यांश से ‘अनु-‘ और ‘सम्-‘ उपसर्ग वाले दो शब्द चुनकर लिखिए।
(ज) मूल शब्द और प्रत्यय अलग कीजिए-स्थापित, नैतिक।
(झ) यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है। संयुक्त वाक्य में बदलिए।
(ञ) समास का नाम लिखिए-पूजा-पद्धति, मत-मतांतर।
(ट) अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-प्राणघातक, अनुष्ठान।
उत्तर
(क) सर्वधर्म-समभाव।
(ख) टापू वह भूखंड होता है, जो चारों ओर से पानी से घिरा होता है तथा जिसका मुख्य धरती से कोई संपर्क नहीं होता। ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का आशय समाज के सब लोगों से अलग रहकर जीने से है। दुनियावालों से कोई संपर्क नहीं रख कर जीना टापू की तरह जीना है।
(ग) भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है कि लोग एक-दूसरे को जानें, समझें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों एवं अनुष्ठानों को सम्मान दें क्योंकि भारत विभिन्न धर्मों, मतों एवं विचारधाराओं का देश है।
(घ) स्वामी विवेकानंद को अपने समय से बहुत आगे इसलिए कहा गया था क्योंकि वे इस बात को समझते थे कि विभिन्न धर्म-संप्रदायों .. के बीच ताल-मेल होना चाहिए, जिससे इनमें सामंजस्य स्थापित किया जा सके।
(ङ) स्वामीजी के अनुसार यदि सभी मनुष्य एक ही धर्म, पूजा-पद्धति को अपना कर एक-सी नैतिकता का पालन करने लगें तो यह सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी।
(च) भारत में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि धर्मों तथा मतों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं।
(छ) अनु = अनुष्ठानों, अनुपालन । सम् = संभव, संप्रदाय।
(ज) स्थापित = स्थापना + इत, नैतिक = नीति + इक।
(झ) यह देश किसी एक धर्म का नहीं है और किसी एक मत या विचारधारा का भी नहीं है।
(ब) पूजा-पद्धति-तत्पुरुष समास, मत-मतांतर = द्वंद्व समास।
(ट) प्राणघातक-मिलावटी खाद्य-पदार्थों का सेवन प्राणघातक हो सकता है। अनुष्ठान-सीमा आजकल देवी-पूजा का नौ दिनों का अनुष्ठान कर रही है।
प्रश्न 20.
जर्मनी के सुप्रसिद्ध विचारक नीत्शे ने, जो विवेकानंद का समकालीन था, घोषणा की कि ‘ईश्वर मर चुका है’ नीत्शे के प्रभाव में यह बात चल पड़ी कि अब लोगों को ईश्वर में दिलचस्पी नहीं रही। मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं-यह स्वामी विवेकानंद को स्वीकार नहीं था। उन्होंने धर्म का बिलकुल नया अर्थ दिया। स्वामी जी ने माना कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ ग़रीबों की सेवा है।
उन्होंने साधुओं-पंडितों, मंदिर-मस्जिद, गिरिजाघरों-गोंपाओं की इस परंपरागत सोच को नकार दिया . कि धार्मिक जीवन का उद्देश्य संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष-प्राप्ति की कामना है। उनका कहना था कि ईश्वर का निवास निर्धन-दरिद्र-असहाय लोगों में होता है क्योंकि वे ‘दरिद्र-नारायण’ हैं। ‘दरिद्र नारायण’ शब्द ने सभी आस्थावान स्त्री-पुरुषों में कर्तव्य-भावना जगाई कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा है।
अन्य किसी भी संत-महात्मा की तुलना में स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर ज्यादा बल दिया कि प्रत्येक धर्म ग़रीबों की सेवा करे और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे। ऐसा करने में स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय से भेदभाव न करे। परस्पर वैमनस्य या शत्रुता का भाव मिटाने के लिए हमें घृणा का परित्याग करना होगा और सबके प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव जगाना होगा। (A.I.C.B.S.E., 2009)
प्रश्न
(क) नीत्शे कौन था? उसने क्या घोषणा की थी?
(ख) नीशे की घोषणा के पीछे क्या सोच थी?
(ग) धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद ने क्या विचार दिया? इसका क्या आशय था?
(घ) पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य क्या माना गया था?
(ङ) ‘दरिद्र-नारायण’ से क्या आशय है? इस शब्द से लोगों में क्या भावना जाग्रत हुई?
(च) स्वामी विवेकानंद ने किस बात पर बल दिया और क्यों?
(छ) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपुयक्त शीर्षक दीजिए।
(झ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए-संचालित अथवा निर्धनता।
(ञ) सरल वाक्य में बदलिए-स्वामी जी ने माना कि ईश्वर सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है।
उत्तर
(क) नीत्शे जर्मनी का सुप्रसिद्ध विचारक था। उसने घोषणा की कि ईश्वर मर चुका है।
(ख) नीत्शे की घोषणा के पीछे यह सोच थी कि मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में विज्ञान और बुद्धि का योगदान है।
(ग) धर्म के संबंध में स्वामी विवेकानंद का विचार था कि नीत्शे का मत सही नहीं है। उन्होंने ग़रीबों की सेवा को ही ईश्वर की सेवा माना था।
(घ) पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य संन्यास के उच्चतर मूल्यों अथवा मोक्ष प्राप्त करना है।
(ङ) दरिद्र नारायण से तात्पर्य निर्धन, दरिद्र, असहाय लोग हैं। इससे लोगों में यह भावना जाग्रत हुई कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा करना है।
(च) स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक धर्म को मानने वाला दरिद्रों की सेवा करते हुए उन्हें शिक्षित करे तथा उन्हें दरिद्रता और रोगों से मुक्त करे क्योंकि दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।
(छ) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए हमें आपसी वैमनस्य, शत्रुता, घृणा आदि को त्यागकर सबके प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव अपनाना होगा।
(ज) धर्म का सत्य स्वरूप।
(झ) संचालित = सम् उपसर्ग, निर्धनता = ता प्रत्यय।
(ज) स्वामी जी ईश्वर सेवा का वास्तविक अर्थ ग़रीबों की सेवा मानते हैं।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक 20-30 शब्दों में लिखिए : (C.B.S.E. 2018)
प्रश्न 21.
हिंदी के बारे में या उसके विरोध के बारे में जब भी कोई हलचल होती है, तो राजनीति का मुखौटा ओढ़े रहने वाले भाषा व्यवसायी बेनकाब होने लगते हैं। उनकी बेचैनी समझ में नहीं आती। संविधान में स्पष्ट प्रावधानों के बाद भी यह अविश्वास का माहौल बनता क्यों है? यहाँ हम केवल एक ही प्रावधान को याद करें। संविधान के अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश देते हुए स्पष्ट कहा गया है-‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करें, जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य – भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात् करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः
संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।’ यही सब देखकर हिंदी के विषय में अक्सर यह लगने लगता है जैसे संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है और हम निर्माताओं के आशय से कहीं दूर भटक गए हैं। सहज ही मन में ये प्रश्न उठते हैं कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? क्यों नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे अंग्रेजी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी युवा एवं किशोर पीढ़ी पर इतनी हावी हो चुकी है कि इसी मिट्टी से जन्मी हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में प्रतीत होता है। शिक्षा में, व्यापार और व्यवहार में, संसदीय, शासकीय एवं न्यायिक प्रक्रियाओं में हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं को वर्चस्व क्यों नहीं मिल पा रहा? (C.B.S.E., 2018)
(क) भाषा व्यवसायी से क्या अभिप्राय है? उनकी पोल कब खुलने लगती है?
(ख) संविधान में ‘संघ’ से आप क्या समझते हैं? हिंदी भाषा को लेकर संघ का क्या कर्तव्य बताया गया है?
(ग) हिंदी भाषा के विकास की आवश्यकता क्यों है?
(घ) भारत की अन्य भाषाओं से लेखक का क्या तात्पर्य है? यहाँ उनका उल्लेख क्यों हुआ है?
(ङ) ‘अंग्रेज़ी भाषा की मानसिकता’ से क्या तात्पर्य है? उसका क्या परिणाम हो रहा है?
(च) यह कैसे कह सकते हैं कि हमारी अपनी भाषा का भविष्य संकट में है? (छ) हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं के वर्चस्व से आप क्या समझते हैं? यह कैसे संभव हो सकता है?
(ज) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर
(क) भाषा-व्यवसायी से अभिप्राय उन लोगों से है जो भाषा के मुद्दों को अपने लालच और स्वार्थ के लिए प्रयुक्त करना चाहते हैं। उनका उद्देश्य केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति करना होता है। ऐसे लोगों की पोल तब खुलती है जब वे हिंदी को अपने स्वार्थ का आधार बनाकर उसका या तो पक्ष लेने लगते हैं या डटकर विरोध करने लगते हैं।
(ख) संविधान में ‘संघ’ से तात्पर्य भारत गणतंत्र अथवा भारत सरकार है। हिंदी भाषा को लेकर संध का कर्त्तव्य बताया गया है कि सरकार हिंदीभाषा को विकसित करें। वह उसे देश में प्रसारित करवाए और उसके उपयोग को आधार बनाकर जन-जन तक फैलाएँ।
(ग) हिंदी भाषा के विकास की परम आवश्यकता है। हमारा देश लंबे समय तक अंग्रेजों का गुलाम रहा था जिस कारण भारतवासियों के बड़े हिस्से में उसकी मानसिकता में परिवर्तन आ चुका है। अंग्रेजी भाषा की मानसिकता से उबरने की परम आवश्यकता है। हिंदी भाषा की अस्मिता को बचाने की आवश्यकता है। विदेशी भाषा के कारण देश में जो भाषा संबंधी संकट उत्पन्न हो सकता है उससे अभी उभर जाना चाहिए।
(घ) भारत के विभिन्न राज्यो में भिन्न-भिन्न भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। हिंदी के अतिरिक्त अनेक अन्य भाषाओं का संविधान में उल्लिखित है। अन्य भाषाओं के लेखकों का उल्लेख इसलिए किया गया है कि वे सभी अन्य भाषाओं की सहायता से हिंदी को सम्पन्न करें। वे अपनी भाषा की शैली, शब्द भंडार आदि को हिंदी में जोड़ें जिससे हिंदी भाषा सम्पन्नता की प्राप्ति करे।
(ङ) अंग्रेजी भाषा की मानसिकता से तात्पर्य उसे प्रयुक्त करने वाले की सोच, विचारधारा और प्रयोग करने की क्षमता से है। यदि कोई मानसिक
गुलाम हो और वह हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग न करें तो भारत की अन्य सभी भाषाएँ भविष्य में खतरे में पड़ सकती है।
(च) यदि हमारी भाषा हिंदी को शिक्षा, व्यापार, आपसी बातचीत, कार्यालयों आदि में प्रयुक्त नहीं की जाती तो उसका महत्व धीरे-धीरे स्वयं ही मिट जाएगा। वर्तमान में हमारे देश की युवा पीढ़ी अंग्रेजी मानसिकता की गुलाम बनती जा रही है। अंग्रेजी ही उनके मन-मस्तिष्क
पर हावी हो चुकी है।
(छ) हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं के वर्चस्व से तात्पर्य उन सबका विभिन्न क्षेत्रों में अधिकता से प्रयोग में लाना है। इन सभी को बढ़ावा दिया. ही जाना चाहिए। इनका प्रयोग आपसी बोलचाल, व्यापार, शिक्षा आदि मे किया जाना चाहिए।
(ज) ‘हिंदी भाषा’, हिंदी प्रसार की आवश्यकता, युवावर्ग और हिंदी भाषा, हिंदी का भविष्य।