Our detailed NCERT Solutions for Class 12 Hindi Unseen Poems अपठित काव्यांश Questions and Answers help students in exams.
CBSE Class 12 Hindi Unseen Poems अपठित काव्यांश
ऐसे काव्यांश जो आपकी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कविताओं में से नहीं हैं, उन्हें प्रश्न-पत्र में अपठित काव्यांश बोध के अंतर्गत पूछा
जाएगा। इनमें प्राय: भाव-बोध से संबंधित प्रश्नों को पूछा जाता है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि दिए गए काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उसके भावों को समझा जाए। काव्यांश के केंद्रीय भाव को समझकर संभावित उत्तरों को लिखना आसान होता है। आपके द्वारा दिए जाने वाले उत्तरों की भाषा सरल, स्पष्ट और सटीक होनी चाहिए।
अपठित काव्यांश को हल करने की विधि —
- काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
- यदि काव्यांश समझने में कठिन हो तो उसे बार-बार तब तक पढ़ना चाहिए। जब तक आपको उसका मूलभाव समझ न आ जाए।
- कविता के नीचे दिए गए प्रश्नों को पढ़िए और फिर से काव्यांश पर ध्यान देकर उन पंक्तियों और स्थलों को चुनिए, जिनमें प्रश्नों के
उत्तर छिपे हुए हों। - जिस-जिस प्रश्न का उत्तर आपको मिलता जाए उसे रेखांकित करते जाइए।
- अस्पष्ट और सांकेतिक प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए काव्यांश के मूल-भावों को आधार बनाइए।
- प्रत्येक उत्तर अपने शब्दों में लिखिए।
- प्रतीकात्मक और लाक्षणिक शब्दों के उत्तर एक से अधिक शब्दों में दीजिए। ऐसा करने से आप स्पष्ट उत्तर लिख पाएँगे।
(अपठित काव्यांश के कुछ उदाहरण )
दिए गए काव्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए
1. तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
सब द्वारों पर भीड़ मची है,
कैसे भीतर जाऊँ मैं ?
द्वारपाल भय दिखलाते हैं,
कुछ ही जन जाने पाते हैं,
शेष सभी धक्के खाते हैं,
क्यों कर घुसने पाऊँ मैं ?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
मुझमें सभी दैन्य दूषण हैं,
नहीं वस्त्र तक, क्या भूषण हैं,
किंतु यहाँ लज्जित पूषण हैं,
अपना क्या दिखलाऊँ मैं ?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
मुझमें तेरा आकर्षण है,
किंतु यहाँ घन संघर्षण है,
इसीलिए दुर्धर घर्षण है,
क्यों कर तुझे बुलाऊँ मैं ?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
तेरी विभव कल्पना करके,
उसके वर्णन के मन भर के,
भूल रहे हैं जन बाहर के
कैसे तुझे भुलाऊँ मैं,
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
बीत चुकी है बेला सारी,
किंतु न आई मेरी बारी,
करूँ कुटी की अब तैयारी,
वहीं बैठ गुन गाऊँ मैं,
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
कुटी खोल भीतर जाता हूँ,
तो वैसा ही रह जाता हूँ,
तुझको यह कहते पाता हूँ–
“अतिथि, कहो क्या लाऊँ मैं ?”
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें होकर आऊँ मैं ?
प्रश्न
(क) कवि ने किसके घर के द्वारों की बात कही है और क्यों ?
(ख) कवि द्वार तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा ?
(ग) कवि कहाँ बैठकर गुणों का गायन करना चाहता है ?
(घ) द्वारों के बाहर की स्थिति क्या है ?
(ङ) कुटिया के भीतर कौन और क्यों कहता है-“अतिथि, कहो क्या लाऊँ मैं ?”
उत्तर
(क) कवि ने ईश्वर के घर के जिन द्वारों की बात की है वे भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्म हैं। भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले अलग-अलग प्रकार से पूजा-उपासना करते हुए ईश्वर को पाना चाहते हैं और वे किसी भी वार से प्रवेश करके ईश्वर की प्राप्ति कर सकते हैं।
(ख) कवि के पास किसी भी प्रकार की साधन-सामग्री और दीनता नहीं है जिस कारण वह द्वार तक पहुँच नहीं पा रहा।
(ग) कवि ईश्वर के द्वार के बाहर कुटिया बनाकर उसी में रहना और गुणों का गायन करना चाहता है।
(घ) द्वारों के बाहर साधकों और भक्तों की भीड़ लगी रहती है, जो ईश्वर के दर्शन करना चाहती है।
(ङ) कुटिया के भीतर स्वयं ईश्वर भक्त से पहले पहुँचकर साधक का आतिथ्य करते हुए यह वाक्य कहता है क्योंकि ईश्वर तो सर्वव्यापक है।
2. गुरुजन-परिजन सब धन्य ध्येय हैं मेरे,
औषधियों के गुण-विगुण ज्ञेय हैं मेरे।
वन-देव-देवियाँ आतिथ्य हैं मेरे,
प्रिय-संग यहाँ सब प्रेय श्रेय हैं मेरे।
मेरे पीछे ध्रुव-धर्म स्वयं ही धाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
नाचो मयूर, नाचो कपोत के जोड़े,
नाचो कुरग, तुम लो उड़ान के तोड़े।
गाओ दिवि, चातक, चटक भंग भय छोड़े,
वैदेही के वनवास-वर्ष हैं थोड़े।
तितली, तूने यह कहाँ चित्रपट पाया ?
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
आओ कलापि, निज चंद्रकला दिखलाओ,
कुछ मुझसे सीखो और मुझे सिखलाओ।
गाओ पिक, मैं अनुकरण करूँ, तुम गाओ,
स्वर खींच तनिक यों उसे घुमाते जाओ।
शुक, पढ़ो,-मधुर फल प्रथम तुम्हीं ने खाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
अयि राजहंसि, तू तरस तरस क्यों रोती,
तू शुक्ति-वंचिता कहीं मैथिली होती।
तो श्यामल तनु के श्रमज-बिंदुमय मोती,
निज व्यंजन-पक्ष से तूं अंकोर सुध खोती….
निज पर मानस ने पद्-रूप मुँह बाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
ओ निर्झर, झरझर नाद सुनाकर झड़ तू,
पथ के रोड़ों से उलझ-सुलझ, बढ़ अड़ तू।
ओ उत्तरीय, उड़, मोद-पयोद, घुमड़ तू,
हम पर गिरि-गद्गद् भाव, सदैव उमड़ तू।
जीवन को तूने गीत बनाया, गाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
ओ भोली कोल-किरात-भिल्ल-बालाओ,
मैं आप तुम्हारे यहाँ आ गई, आओ।
मुझको कुछ करने योग्य काम बतलाओ,
दो अहो ! नव्यता और भव्यता पाओ।
लो, मेरा नागर भाव भेंट जो लाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
सब ओर लाभ ही लाभ बोध-विनिमय में,
उत्साह मुझे है विविध वृत्त-संचय में।
तुम अर्धनग्न क्यों रहो अशेष समय में,
आओ, हम कातें-बुनें गान की लय में।
निकले फूलों का रंग, ढंग से ताया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
प्रश्न
(क) कवि ने सीता के माध्यम से नारी के किस रूप को उद्घाटित किया है ?
(ख) सीता माँ ने पर्ण-कुटी में किस प्रकार के सुख को प्राप्त किया है ?
(ग) सीता ने किन-किन पक्षियों से कुछ समझना और उनको समझाना चाहा है ?
(घ) झरनों से किस प्रकार आगे बढ़ने के लिए आग्रह किया गया है ?
(ङ) स्वावलंबी बनने की प्रेरणा किसे और किस प्रकार दी गई है ?
उत्तर
(क) कवि ने सीता के माध्यम से नारी की संघर्षशीलता और रचनात्मकता को उद्घाटित किया है।
(ख) सीता माँ ने पर्ण-कुटी में ही राज-भवन सा सुख प्राप्त किया है।
(ग) सीता ने मोर, कबूतर, कुरंग, दिवि, चातक, चिड़िया, कोयल, तोते, राजहंस आदि से कुछ सीखना और उन्हें कुछ समझाना चाहा है।
(घ) झरनों से निरंतर ‘झरझर’ की ध्वनि करते हुए राह के पत्थरों से टकराते हुए आगे बढ़ने का आग्रह किया गया है।
(ङ) सीता ने कोल, किरात और भील बालाओं को स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया है। वह उन्हें कातने-बुनने की शिक्षा देती है।
3. निज रक्षा का अधिकार रहे जन-जन को,
सबकी सुविधा का भार किंतु शासन को।
मैं आर्यों का आदर्श बताने आया,
जन-सम्मुख धन को तुच्छ जताने आया।
सुख-शांति-हेतु मैं क्रांति मचाने आया,
विश्वासी का विश्वास बचाने आया,
मैं आया उनके हेतु कि जो तापित हैं,
जो विवश, विकल, बल-हीन, दीन शापित हैं।
हो जाएँ अभय वे जिन्हें कि भय भासित हैं,
जो कौणप-कुल से मूक-सदृश शासित हैं।
मैं आया, जिसमें बनी रहे मर्यादा,
बच जाय प्रबल से, मिटै न जीवन सादा।
सुख देने आया, दुःख झेलने आया।
मैं मनुष्यत्व का नाट्य खेलने आया,
मैं यहाँ एक अवलंब छोड़ने आया,
गढ़ने आया हूँ, नहीं तोड़ने आया।
मैं यहाँ जोड़ने नहीं, बाँटने आया,
जगदुपवन के झंखाड़ छाँटने आया।
मैं राज्य भोगने नहीं, भुगाने आया।
हंसों को मुक्ता-मुक्ति चुगाने आया।
भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया।
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।
अथवा आकर्षण पुण्यभूमि का ऐसा,
अवतरित हुआ मैं, आप उच्च फल जैसा।
प्रश्न
(क) कवि ने शासक का कार्य क्या बताया है ?
(ख) सुख-शांति की स्थापना के लिए राम क्या करना चाहते हैं ?
(ग) पृथ्वी स्वर्ग-तुल्य कब बन सकती है ?
(घ) राम धरती पर किस प्रयोजन से आए थे ?
(छ) राम ने मनुष्यत्व का नाटक किस प्रकार खेला था ?
उत्तर
(क) कवि के अनुसार शासक का कार्य अपनी प्रजा के लिए सभी प्रकार के सुख-साधन का प्रबंध करना है। उसे उनकी रक्षा करनी चाहिए।
(ख) सुख-शांति की स्थापना के लिए राम क्रांति लाना चाहते हैं, जिससे विश्वासी का विश्वास बचा रहे। वे विवश, विकल, बलहीन और दीन-दुःखियों के दु:ख मिटाना चाहते हैं।
(ग) यदि शासक वास्तव में ही प्रजापालक हों तो यह पृथ्वी स्वर्ग तुल्य बन सकती है।
(घ) राम नर को ईश्वरता प्राप्त कराने और इस धरती को स्वर्ग बनाने के लिए आए थे।
(ङ) राम ने मनुष्यत्व का नाटक स्वयं दुःख झेलकर तथा अन्य सभी को सुख देकर खेला था।
4. अहा ! खेलता कौन यहाँ शिशु सिंह से
आर्यवृंद के सुंदर सुखमय भाग्य-सा
कहता है उसको लेकर निज गोद में’
खोल, खोल, मुख सिंह-बाल, मैं देखकर
गिन लूँगा तेरे दाँतों को हैं भले,
देखू तो कैसे यह कैसे कुटिल कठोर हैं’
देख वीर बालक के इस औद्धत्य को
लगी गरजने भरी सिंहिनी क्रोध से छड़ी तानकर
बोला बालक रोष सेबाधा देगी क्रीड़ा में यदि तू कभी
मार खाएगी, और तुझे दूंगा नहीं
इस बच्चे को; चली जा अरी भाग जा
अहा, कौन यह वीर बालक निर्भीक है
कहो भला भारतवासी ! हो जानते
यही ‘भरत’ वह बालक है, जिस नाम से
‘भारत’ संज्ञा पड़ी इसी वीर भूमि की
कश्यप के गुरुकुल में शिक्षित हो रहा
आश्रम में पलकर कानन में घूमकर
निज माता की गोद मोद भरता रहा
जो पति से भी बिछुड़ रही दुर्देव-वश
जंगल के शिशुसिंह सभी सहचर रहे
रहा घूमता हो निर्भीक प्रवीर यह
जिसने अपने बलशाली भुजदंड से
भारत का साम्राज्य प्रथम स्थापित किया
वही वीर यह बालक है दुष्यंत का,
भारत का शिर-रत्न ‘भरत’ शुभ नाम है।
प्रश्न
(क) कौन किसके दाँत गिनना चाहता है ?
(ख) शेरनी की गर्जन सुन बालक ने क्या कहा था ?
(ग) किसके नाम पर हमारे देश को भारत कहा जाता है ?
(घ) बालक किस ऋषि के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था ?
(ङ) बालक की माँ किस कारण अभागी थी ?
उत्तर
(क) दुष्यंत-पुत्र भरत खेल-खेल में शेर के बच्चे के मुँह को बलपूर्वक खोलकर उसके कुटिल-कठोर दाँतों को गिनना चाहता है।
(ख) शेरनी की क्रोध भरी गर्जन को सुनकर बालक ने छड़ी तानकर उसे धमकाते हुए कहा था कि यदि वह वहाँ से नहीं भागी तो वह उसे छड़ी से पीटेगा और उसके शावक को उसे वापस नहीं करेगा।
(ग) हमारे देश को बालक भरत के नाम पर ही भारत कहा जाता है।
(घ) बालक महर्षि कश्यप के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था।
(ङ) बालक की माँ इस कारण अभागी थी क्योंकि उसे अपने पति का साहचर्य प्राप्त नहीं हुआ था।
5. यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा,
है गर्व-भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा ?
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा ?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं,
स्वयं विसर्जित : यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा,
है गर्व-भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुत :
इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा है गर्व-भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुंधवाते कडुवे तम में,
यह सदा-द्रवित, चिर जागरूक, अनुरक्त-नेत्र, उल्लंब-बाहु,
यह चिर-अखंड अपनापा। जिज्ञासु,
प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा,
है गर्व-भरा मदमाता, पर,
इसको भी पंक्ति को दे दो।
प्रश्न्र
(क) व्यक्ति के प्रतीक रूप में ‘दीप’ कौन है और वह क्या चाहता है ?
(ख) कवि ने स्वयं को पनडुब्बा क्यों माना है ?
(ग) कवि ने किन-किन को असाधारण और अद्वितीय माना है ?
(घ) कवि किस सर्जक को श्रेष्ठ और अर्थवान मानता है ?
(ङ) दीपक किस-किस को झेलकर सदा प्रकाश देता आया है ?
अन्ना
(क) व्यक्ति के प्रतीक रूप में ‘दीप’ स्वयं कवि है जो समाज रूपी पंक्ति में अपना स्थान पाना चाहता है।
(ख) कवि मन की गहराइयों से विचार रूपी मोती बाहर ला कर समाज को कविता के रूप में प्रदान करता है इसलिए उसने स्वयं को पनडुब्बा माना है।
(ग) कवि ने महान गीतकार, कुशल गोताखोर और बलिदानी क्रांतिकारी को असाधारण और अद्वितीय माना है।
(घ) कवि उस सर्जक को श्रेष्ठ और अर्थवान मानता है, जो समाज से सदा जुड़ा रहता है।
(ङ) दीपक पीड़ा और जलन को झेलकर सदा धुएँ से भरे अंधकार में जलता रहा है। वह स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता रहा है।
6. हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरी बाजरे की।
अगर मैं तुझको,
ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँईं,
टटकी कली चंपे की,
वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला
या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही :
ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम
नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप केतुम हो,
निकट हो, इसी जादू के
निजी किस सहज, गहरे बोध से,
किस प्यार से मैं कह रहा हूँ
अगर मैं यह कहूँ
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की ?
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जूही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का-ऐश्वर्य का
औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा
एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर
दोलती कलगी अकेली बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।
शब्द जादू हैं
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है ?
प्रश्न
(क) कवि अपनी प्रेयसी को अब क्या कहकर नहीं पुकारना चाहता ?
(ख) कवि अपनी प्रेयसी को किसकी उपमा देना चाहता है ?
(ग) पुराने उपमानों का प्रयोग कवि को क्यों महत्त्वहीन प्रतीत होता है ?
(घ) शहरी पृष्ठभूमि में कौन-सा प्राकृतिक उपमान सौंदर्य का श्रेष्ठ प्रतीक है ?
(ङ) संसार की निस्सारता से ऊपर किस प्रकार उठा जा सकता है ?
उत्तर
(क) कवि अब अपनी प्रेयसी को संध्या के लालिमा युक्त आकाश में चमकने वाली अकेली तारिका और शरद् ऋतु की भोर की ओस में नहाई हुई कुमुदिनी कहकर नहीं पुकारना चाहता। वह उसे अभी-अभी खिली चंपे की कली भी नहीं कहना चाहता।
(ख) कवि अपनी प्रेयसी को चारों ओर बिछी हरे-भरे घास की चादर और हवा में इधर-उधर लहराती बाजरे की सुंदर कलगी कहकर पुकारना चाहता है।
(ग) कवि अपनी प्रेमिका को पुराने और घिसे-पिटे उपमानों से संबोधित नहीं करना चाहता क्योंकि जैसे बार-बार घिसने से कलई की परत उतर जाती है उसी प्रकार युगों से प्रयुक्त किए जाने वाले उपमानों में भी गहरी भावनाएँ और कल्पनाएँ भी छिपी हुई नहीं रह गई हैं।
(घ) शहरी पृष्ठभूमि में कोमल हरी-भरी घास प्रकृति के श्रेष्ठ सौंदर्य की प्रतीक है। उसमें सृष्टि का विस्तार और औदार्य छिपा हुआ है।
(ङ) संसार की निस्सारता से तब ऊपर उठा जा सकता है जब सुंदरता की उपमा सांसारिक भौतिकता से ऊपर उठकर प्राकृतिक पदार्थों से दी जाए।
7. आज हम अपने युगों के स्वप्न को,
नई आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
आज हम अक्लांत, ध्रुव, अविराम गति से,
बढ़े चलने का कठिन व्रत धर रहे हैं।
आज हम समवाय के हित, स्वेच्छया,
आत्म अनुशासन नया यह वर रहे हैं।
निराशा की दीर्घ तमसा में सजग रह,
तुम्हारे ही रक्त से।
तुम्ही दाता हो, तुम्हीं होता, तुम्ही यजमान हो।
यह तुम्हारा पर्व है।
भूमि-सुत ! इस पुण्य-भू की प्रजा,
स्रष्टा तुम्हीं हो इस नए रूपाकार के,
तुम्हीं से उद्भूत होकर बल तुम्हारा,
साधना का तेज-तप की दीप्ति,
तुमको नया गौरव दे रही है !
यह तुम्हारे कर्म का ही प्रस्फुटन है।
नागरिक, जय ! प्रजा-जन, जय !
राष्ट्र के सच्चे विधायक, जय !
हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं,
और मंजूषा तुम्हारी है।
और यह आलोक,
तुम्हारे ही अडिग विश्वास का आलोक है।
किंतु रूपाकार यह केवल प्रतिज्ञा है,
उत्तरोत्तर लोक का कल्याण ही है साध्य,
अनुशासन उसी के हेतु है।
यह प्रतिज्ञा ही हमारा दाय है लंबे युगों की,
हम हुताशन पालते थे साधना का
आज हम अपने युगों के स्वप्न को,
आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
सुनो हे नागरिक !
अभिनव सभ्य भारत के नए जनराज्य के,
सुनो ! यह मंजूषा तुम्हारी है।
पला है आलोक चिर-दिन यह तुम्हारे स्नेह से,
साधना का, जिसे हमने धर्म जाना।
स्वयं अपनी अस्थियाँ देकर हमी ने असत पर।
सत की विजय का मर्म जाना।
संपुटित कर हाथ, जिसने गोलियाँ निज वक्ष पर,
झेली, शमन कर ज्वार हिंसा का
उसी के नत-शीश धीरज को हमारे स्तिमित चिर-संस्कार,
ने सच्चा कृती का कर्म जाना।
साधना रुकती नहीं,
आलोक जैसे नहीं बँधता।
यह सुघर मंजूष भी,
झर गिरा सुंदर फूल है पथ-कूल का।
माँग पथ की इसी से चुकती नहीं।
फिर भी बीन लो यह फूल, .
स्मरण कर लो इसी पथ पर गिरे सेनानी जयी को,
बढ़ चलो फिर शोध में अपने उसी
धुंधले युगों के स्वप्न की,
जिसे हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
आज हम अपने युगों के स्वप्न को,
यह नई आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
प्रश्न
(क) कवि ने किस प्रकार की गति से आगे बढ़ने का व्रत धारण किया है ?
(ख) कवि ने देश के नागरिकों को कौन-सी आलोक मंजूषा समर्पित की है ?
(ग) कवि ने मंजूषा को किन प्रयत्नों से प्राप्त स्वीकार किया है ?
(घ) असत पर सत की विजय प्राप्ति किस प्रकार की गई ?
(ङ) देशवासियों को इस प्राप्ति के लिए क्या करना पड़ा था ?
(च) किस पथ से क्या बीनने की प्रेरणा दी गई है ?
उत्तर
(क) कवि ने बिना थके हुए, ध्रुव के समक्ष अटल निश्चय पर टिककर और बिना पथ में रुके निरंतर आगे बढ़ने का व्रत धारण किया है।
(ख) कवि ने देश के नागरिकों को गणतंत्रता रूपी आलोक मंजूषा समर्पित की है। देशवासियों ने इसकी प्राप्ति अपना रक्त देकर की है।
(ग) कवि ने माना है कि अमूल्य मंजूषा रूपी गणतंत्र की प्राप्ति देशवासियों के दिन-रात के कठोर परिश्रम और बलिदान का परिणाम है।
वे ही इसके दाता हैं और वही इसके यजमान हैं।
(घ) असत पर सत की विजय-प्राप्ति अपनी अस्थियों को स्वयं समर्पित करके की गई।
(ङ) देशवासियों को इस प्राप्ति के लिए अपनी छाती पर गोलियाँ झेलनी पड़ी थीं और भयंकर हिंसा का सामना करना पड़ा था।
(च) गणतंत्रता-प्राप्ति के संघर्ष भरे पथ से उच्च आदर्शों और जीवन-मूल्यों रूपी उन फूलों को बीनने की प्रेरणा दी गई है। जिस पर चलते हुए न जाने कितने सेनानियों ने अपना जीवन दान किया था।
8. आज जीत की रात,
पहरुए, सावधान रहना।
खुले देश के द्वार,
अचल दीपक समान रहना।
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का,
है मंजिल का छोर।
इस जनमथन से उठ आई,
पहरुए, सावधान रहना।
विषम शृंखलाएँ टूटी हैं,
खुली समस्त दिशाएँ,
आज प्रभंजन बनकर चलती,
युग बंदिनी हवाएँ,
प्रश्न-चिह्न बन खड़ी हो गई,
ये सिमटी सीमाएँ,
आज पुराने सिंहासन की,
टूट रहीं प्रतिमाएँ।
उठता है तूफ़ान, इंदु तुम,
दीप्तिमान रहना।
पहरुए, सावधान रहना !
पहली रत्न हिलोर,
अभी शेष है पूरी होना,
जीवन मुक्ता डोर।
क्योंकि नहीं मिट पाई दुःख की,
विगत साँवली कोर।
ले युग की पतवार,
बने अंबुधि महान रहना।
ऊँची हुई मशाल हमारी,
आगे कठिन डगर है।
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी,
छायाओं का डर है।
शोषण से मृत है समाज,
कमज़ोर हमारा घर है।
किंतु, आ रही नई जिंदगी,
यह विश्वास अमर है।
जनगंगा में ज्वार,
लहर तुम प्रवहमान रहना।
पहरुए, सावधान रहना।
प्रश्न
(क) कवि ने किसे और कब सावधान रहने के लिए कहा है ?
(ख) देश की स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात बदला हुआ वातावरण कैसा है ?
(ग) ‘शत्रु की छाया’ से क्या तात्पर्य है ?
(घ) हमारे देश के भीतर सबसे बड़ा संकट क्या है ?
(ङ) अब भारतवासियों का विश्वास कैसा है ?
उत्तर
(क) कवि ने भारत देश की स्वतंत्रता-प्राप्ति के अवसर पर सभी देशवासियों को सजग और सचेत रहने के लिए कहा है, जिससे हम बहुत कठिनाई से प्राप्त स्वतंत्रता की रक्षा कर सकें।
(ख) देश की स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात अभी हमारे दुःख-क्लेश कम नहीं हुए हैं। अभी पिछले कष्टों की याद शेष है और अनेक प्रकार की नई समस्याएँ अपना सिर उठाने लगी हैं। देश की सिमटी हुई सीमाएँ और उससे संबंधित समस्याएँ प्रश्न-चिहन बनकर खड़ी हो गई हैं।
(ग) ‘शत्रु की छाया’ से तात्पर्य है-हमारे देश का अहित चाहने वाले भीतरी और बाहरी दुश्मन। वे किसी भी अवस्था में हमारे देश में सुख-शांति की स्थापना को सहन नहीं कर पाते।
(घ) हमारे देश के भीतर सबसे बड़ा संकट शोषण का है। इसी के कारण समाज में गरीब और अमीर के बीच अंतर बढ़ता है और भिन्न प्रकार के भेदभाव व्याप्त होते हैं।
(ङ) अब भारतवासियों को अपने पर गहरा विश्वास है। वे सब जनगंगा के ज्वार की भाँति अपनी राह में आने वाले सभी संकटों को मिटा देने के लिए कृतसंकल्प हैं।
9. सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान,
जगती के मन को खींच-खींच,
निज छवि के रस के सींच-सींच,
जल कन्याएँ भोली अजान,
सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान।
प्रात: अभीर से हो अधीर,
छूकर पल-पल उल्लसित तीर,
कुसुमावलि-सी पुलकित महान,
सागर के उर पर नाच-नाच,
करती हैं लहरें मधुरगान।
संध्या-से पाकर रुचिर-रंग,
करती-सी शत सुर-चाप भंग हिलती नव तरु-दल के समान,
सागर के उर पर नाच-नाच,
करती हैं लहरें मधुरगान।
करतल-गत कर नभ की विभूति,
पाकर शशि से सुषमानुभूति
तारावलि-सी मृदु दीप्तिमान,
सागर के उर पर नाच-नाच, करती हैं लहरें मधुरगान।
तन पर शोभित नीला दुकूल,
हैं छिपे हृदय में भाव फूल,
आकर्षित करती हुई ध्यान,
सागर के उर पर नाच-नाच, करती हैं लहरें मधुरगान ।
हैं कभी मुदित, हैं कभी खिन्न,
हैं कभी मिली, हैं कभी भिन्न,
हैं एक सूत्र में बँधे प्राण
सागर के उर पर नाच-नाच, करती हैं लहरें मधुरगान।
प्रश्न
(क) इस कविता में लहरों को किस-किस रूप में चित्रित किया गया है ? किन्हीं दो रूपों का उल्लेख कीजिए।
(ख) ‘करती-सी शत सुरचाप भंग’-पंक्ति का आशय स्पष्ट करो।
(ग) सागर-लहरें किस प्रकार लोगों के मन को अपनी ओर खींचती हैं ?
(घ) प्रातःकाल में लहरों का सौंदर्य कैसा होता है ?
(ङ) कवि ने किन पंक्तियों में लहरों को युवती के रूप में चित्रित किया है उन्हें छाँटकर लिखिए।
(च) ‘हैं एक सूत्र में बँधे प्राण’-इस पंक्ति से कवि ने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर
(क) इस कविता में कवि के द्वारा लहरों को मस्ती में भरकर नृत्य करती बालाओं/जल कन्याओं/कुसुमावलि/तारावलि और एक युवती के रूप में चित्रित किया गया है।
(ख) सागर की लहरों पर सूर्य-किरणों की लालिमा पड़ने से सौ-सौ इंद्रधनुषों की शोभा भी उसके सम्मुख फीकी पड़ जाती है। इंद्रधनुषों के सात रंग भी इनके सामने व्यर्थ प्रतीत होते हैं। (ग) सागर की लहरें अपनी नृत्य कला, उल्लास, मधुर ध्वनि, चंचलता और अद्भुत सौंदर्य के कारण सभी को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
(घ) प्रात:काल के समय उल्लसित होकर लहरें किनारों का स्पर्श करती हैं। वे पुष्पों के समान शोभा देती हैं और अपनी शोभा से खिल उठती हैं।
(ङ) जिन पंक्तियों में लहरों को युवती के रूप में चित्रित किया है, वे पंक्तियाँ हैं तन पर शोभित नीला दुकूल हैं छिपे हृदय में भाव फूल
(च) कवि ने इस पंक्ति से संदेश दिया है कि अनेक लहरें समुद्र से भिन्न होते हुए भी उससे अभिन्न हैं। इसी प्रकार इस संसार के सभी प्राणी भिन्न होते हुए भी उसी विराट का ही एक अंश हैं। वे उससे किसी भी प्रकार अलग हो ही नहीं सकते।
10. आज सवेरे
जब बसंत आया उपवन में चुपके-चुपके
कानों ही कानों मैंने उससे पूछा,
“मित्र ! पा गए तुम तो अपने यौवन का उल्लास दुबारा
गमक उठे फिर प्राण तुम्हारे,
फूलों-सा मन फिर मुसकाया पर साथी क्या दोगे मुझको ?
मेरा यौवन मुझे दुबारा मिल न सकेगा ?”
सरसों की उँगलियाँ हिलाकर संकेतों में वह यों बोला,
मेरे भाई ! व्यर्थ प्रकृति के नियमों की यों दो न दुहाई,
होड़ न बाँधों तुम यों मुझसे।
जब मेरे जीवन का पहला पहर झुलसता था लपटों में,
तुम बैठे थे बंद उशीर पटों से घिरकर।
मैं जब वर्षा की बाढ़ों में डूब-डूब कर उतराया था
तुम हँसते थे वाटर-प्रूफ़ कवच को ओढ़े।
और शीत के पाले में जब गलकर मेरी देह जम गई।
तुम बिजली के हीटर से
तुम सेंक रहे थे अपना तन-मन
जिसने झेला नहीं, खेल क्या उसने खेला ?
जो कष्टों से भागा, दूर हो गया सहज जीवन के क्रम से,
उसको दे क्या दान प्रकृति की यह गतिमयता यह नवबेला।
पीड़ा के माथे पर ही आनंद तिलक चढ़ता आया है
मुझे देखकर आज तुम्हारा मन यदि सचमुच ललचाया है
तो कृत्रिम दीवारें तोड़ो
बाहर जाओ, खुलो, भीगो, गल जाओ
आँधी तूफ़ानों को सिर लेना सीखो
जीवन का हर दर्द सहे जो
स्वीकारो हर चोट समय की जितनी भी हलचल मचनी हो,
मच जाने दो रस-विष दोनों को गहरे में पच जाने दो.
तभी तुम्हें भी धरती का आशीष मिलेगा
तभी तुम्हारे प्राणों में भी यह
पलाश का फूल खिलेगा।
प्रश्न
(क) उपवन से कवि ने क्या माँगा ?
(ख) धरती का आशीष मानव को कब सुलभ हो सकता है ?
(ग) प्रकृति की गतिमयता और नवीनता पाने का अधिकारी कौन है ?
(घ) मानव ने अपने को किन कृत्रिम दीवारों में कैद कर रखा है ?
(ङ) “पीड़ा के माथे पर ही आनंद तिलक चढ़ता आया है”-पंक्ति में ‘आनंद तिलक’ से कवि का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर
(क) उपवन से कवि ने अपने यौवन का उल्लास, मुस्कान और उत्साह माँगा।
(ख) धरती का आशीष मानव को तब सुलभ हो सकता है, जब सुख और दुःख दोनों को ही वह समान दृष्टि से देखता और अनुभव करता है। वह दोनों का सामना करता है और जीवन से हार नहीं मानता।
(ग) प्रकृति की गतिमयता और नवीनता पाने का अधिकारी वही है, जो जीवन को सहजता से जीता है, उसका सामना करता है।
(घ) कवि के अनुसार समस्त सुख-सुविधा प्रदान करने के साधन, बिजली के हीटर, ठंडी वायु प्रदान करने वाले आधुनिक उपकरण आदि कृत्रिम दीवारें हैं। मनुष्य ने स्वयं को इनमें कैद कर रखा है।
(ङ) ‘आनंद तिलक’ से तात्पर्य है-विजय-अभिनंदन का आनंद। जीवन में संघर्ष करने वाला व्यक्ति ही विजयी होता है और वही सदा आनंद प्राप्त करता है।
11. नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर हैं,
सूर्य चंद्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं,
बंदीजन खग-वृंद, शेषफन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं,
बलिहारी इस वेश की, हे मातृभूमि !
तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की;
जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब, सुख पाए,
जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे कहलाए’
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि ! तुझको निरख, मग्न क्यों न हो मोद में।
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है।
षट्ऋतुओं का विविध दृश्य युत अद्भुत क्रम है,
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है।
शुचि-सुधा सींचता रात में,
तुझ पर चंद्रप्रकाश है, हे मातृभूमि !
दिन में तरणि, करता तम का नाश है।
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान ! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जाएँगे
होकर भव-बंधन-मुक्त हम, आत्मरूप बन जाएंगे।
प्रश्न
(क) कवि अपने देश पर क्यों बलिहारी जाता है ?
(ख) कवि अपनी मातृभूमि के जल और वायु की क्या-क्या विशेषता बताता है ?
(ग) कविता की जिन पंक्तियों में कवि का अतीत के प्रति प्रेम प्रकट हुआ है उन्हें छाँटकर लिखिए।
(घ) मातृभूमि को ईश्वर का साकार रूप किस आधार पर बताया गया है ?
(ङ) प्रस्तुत कविता का मूल भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
(क) कवि भारत भूमि के अनुपम अतुलनीय सौंदर्य, हरे-भरे वातावरण और नदियों के द्वारा प्रदान की जाने वाली अमूल्य संपदा के कारण अपने देश पर बलिहारी जाता है।
(ख) कवि बताता है कि हमारी मातृभूमि का जल अत्यंत शीतल एवं स्वच्छ है तथा इसकी वायु मंद, सुगंधित तथा शीतलता प्रदान करने वाली है। ये जीवन प्रदान करने वाले हैं।
(ग) अतीत के प्रति प्रेम प्रकट करने वाली पंक्ति है-‘जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे’।
(घ) हमारी मातृभूमि ईश्वर का साकार रूप है। सूर्य और चाँद इसके मुकुट के समान और शेषनाग का फन इसके सिंहासन की तरह है। बादल इसका अभिषेक करते हैं। पक्षियों का समूह निरंतर इसका गुणगान करता रहता है। अनेक नदियाँ इसका सिंचन करती हैं। यह ईश्वर का ही रूप है।
(ङ) प्रस्तुत कविता का मूल भाव यह है कि हमारी मातृभूमि के अनुपम और अतुलनीय सौंदर्य पर हम बार-बार बलिहारी जाते हैं। यह हमें जीवन प्रदान करती है। यह हमारे लिए परम पूज्यनीय है।
12. तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए !
मेरे वर्ण-वर्ण विशृंखल,
चरण-चरण भरमाए।
गूंज-गूंजकर मिटने वाले,
मैंने गीत बनाए।
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर,
जगती ने क्या पाया !
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊँ,
पर तुम सब कुछ पाओ।
तुम ले लो,
मेरा दान अमर हो जाए !
तुम गा दो,
मेरा गान अमर हो जाए !
सुंदर और असुंदर जग में मैंने क्या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में मैं केवल अनचाहा;
देखें अब किसकी रुकती है
कूक हो गई हूक गगन की,
कोकिल के कंठों पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए।
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैंने कोष लुटाया।
आ मुझ पर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए !
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए !
दुःख से जीवन बीता फिर भी शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घड़ियों में भी तुमसे यह कहता,
सुख की एक साँस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए !
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए !
प्रश्न
(क) कवि की दृष्टि में उसके गीत कैसे हैं ?
(ख) दूसरों के द्वारा हाथ फैलाने पर कवि ने क्या किया ?
(ग) कवि ने किन स्थितियों में स्वयं को दूसरों के द्वारा अनचाहा माना है ?
(घ) अमृत्व को किस पर न्योछावर किया जा सकता है ?
(ङ) कवि कब मानता है कि उसका गान अमृत हो जाएगा?
उत्तर
(क) कवि की दृष्टि में उसके गीतों के वर्ण विशृंखलित हैं। उनके चरण स्थिरता से रहित हैं। वे गूंज-गूंज कर मिट जाने वाले हैं। उनका प्रभाव व्यापक नहीं है।
(ख) दूसरों ने जब-जब हाथ फैलाए तब-तब कवि ने अपना कोष उनकी सहायता के लिए लटा दिया। वह अपना धन लुटाकर स्वयं भिखारी-सा हो गया।
(ग) कवि ने इस संसार के सभी सुंदर और असुंदर की सराहना की, उनकी प्रशंसा की और उनके प्रति अपनी ममता बाँटी लेकिन उसने स्वयं किसी से प्रेम की प्राप्ति नहीं की। वह हर स्थिति में दूसरों के लिए अनचाहा ही बना रहा।
(घ) कवि की दृष्टि में अमृत्व को जीवन में प्राप्त की जाने वाली एक भी साँस पर न्योछावर किया जा सकता है।
(ङ) जब कवि का प्रियतम एक बार उसके लिए गान को गा देगा तब उसका गान अमर हो जाएगा।
13. रात यों कहने लगा मुझ से गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का,
आज बनता और कल फिर फूट जाता है;
किंतु, तो भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो !
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है !
मैं न बोला, किंतु, मेरी रागिनी बोली,
चाँद ! फिर से देख, मुझको जानता है तू ?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?
मैं न वह, जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ;
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह, दीवार फौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने,
जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है;
बाण ही होते-विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
“रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं ये;
रोकिए, जैसे बने, इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं ये।”
प्रश्न
(क) चाँद ने कवि से इनसान को अनोखा क्यों कहा ?
(ख) चाँद ने पागल किसे और क्यों कहा?
(ग) चाँद की दृष्टि में आदमी का स्वप्न कैसा है ?
(घ) कवि अपनी कल्पना की सार्थकता किस प्रकार सिद्ध करता है ?
(ङ) मानव की क्या विशिष्टता है ?
उत्तर
(क) चाँद ने कवि से इनसान को अनोखा जीव कहा है क्योंकि वह अपने लिए स्वयं उलझनें बनाता है और फिर स्वयं ही उन उलझनों में – फँस जाता है। वह न रात को सोता है और न दिन में।
(ख) चाँद ने कवि को पागल कहा है क्योंकि कवि तरह-तरह की कल्पनाएँ करते हैं। चाँदनी में बैठकर स्वप्नों के संसार को सही मानते हैं।
(ग) चाँद की दृष्टि में आदमी का स्वप्न जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर और अस्थिर है। वह पल भर में फूट जाता है पर फिर भी आदमी उसी से खेलना चाहता है।
(घ) कवि अपनी कल्पना की सार्थकता सिद्ध करते हुए कहता है कि उसकी कल्पना केवल सपना नहीं है। उसकी कल्पना यथार्थ पर टिकी हुई है। वह कल्पनाओं को आग पर गला कर लोहा बनाता है और उस पर नए घर की नींव रखी जाती है।
(ङ) मानव की विशिष्टता यह है कि वह कोरी कल्पना नहीं करता। उसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है। उसके पास विचारों के बाण होते हैं और उसके सपनों के हाथ में तलवार होती है।
14. सृजन की थकन भूल जा देवता !
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी।
अभी तो पलक में नहीं खिल सकी,
नवल कल्पना की मधुर चाँदनी।
अभी अधखिली ज्योत्स्ना की कली
नहीं जिंदगी की सुरभि में सनी
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अधूरी धरा पर नहीं है कहीं।
अभी स्वर्ग की नींव का भी पता !
सृजन की थकन भूल जा देवता !
रुका तू गया रुक जगत का सृजन,
तिमिरमय नयन में डगर भूलकर
कहीं खो गई रोशनी की किरन,
घने बादलों में कहीं सो गया।
नई सृष्टि का सप्तरंगी सपन,
रुका तू, गया रुक जगत का सृजन
अधूरे सृजन से निराशा भली,
किसलिए; जब अधूरी स्वयं पूर्णता।
सृजन की थकन भूल जा देवता !
प्रलय से निराशा तुझे हो गई।
सिसकती हुई साँस की जालियों में,
सबल प्राण की अर्चना खो गई।
थके बाहुओं में अधूरी प्रलय,
औ’ अधूरी सृजन योजना खो गई।
प्रलय से निराशा तुझे हो गई,
इसी ध्वंस में मूर्च्छिता हो कहीं।
पड़ी हो, नई जिंदगी; क्या पता ?
सृजन की थकन भूल जा देवता।
प्रश्न
(क) कवि किसे क्या भूलने को कहता है ?
(ख) देवता के रुकते ही क्या रुक गया ?
(ग) सृजन की अधूरी योजना कहाँ खो गई है ?
(घ) संभवत: नई जिंदगी कहाँ पड़ी है ?
(ङ) जिंदगी अभी अधूरी बनी क्यों प्रतीत होती है ?
उत्तर
(क) कवि देवता को सृजन की थकान भूल जाने के लिए कहता है क्योंकि अभी धरती पूरी तरह से बनी नहीं है। उसका निर्माण पूरा होने में समय शेष है।
(ख) देवता के रुकते ही जगत का सृजन भी रुक गया। रोशनी की किरण खो गई और नई सृष्टि के लिए आवश्यक सप्तरंगी सपने कहीं घने बादलों में खो गए।
(ग) सृजन की अधूरी योजना निराशा और पीड़ा में खो गई है।
(घ) संभवत: नई और सुखद जिंदगी निराशा और पीड़ा के ध्वंस में कहीं पड़ी है।
(ङ) अभी जिंदगी का विकास पूरी तरह नहीं हुआ। अभी जिंदगी नई कल्पनाओं की मधुर चाँद की पलकों पर प्रकट नहीं हुई है। अभी आशा रूपी ज्योत्स्ना की कली अधखिली है और उसमें जिंदगी की सुगंध महसूस नहीं होती।
15. अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।
देखो, मैंने कंधे चौड़े कर लिए हैं।
मुट्ठियाँ मज़बूत कर ली हैं।
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर।
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।
घबराओ मतमैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा।
मैं कंधे अड़ा दूंगा। देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।
मैंने सुना है, उसके रथ में तुम हो।
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता
हूँतुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो,
तुम जो साहस की मूर्ति हो।
तुम जो धरती का सुख हो।
तुम जो कालातीत प्यार हो।
तुम जो मेरी धमनियों का प्रवाह हो।
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो,
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूँ।
रथ के घोड़े, आग उगलते रहें,
अब पहिए टस से मस नहीं होंगे।
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं।
कौन रोकेगा तुम्हें ? मैंने धरती बड़ी कर ली है।
अन्न की सुनहरी बालियों से मैं तुम्हें सजाऊँगा,
मैंने सीना खोल लिया है,
प्यार के गीतों में मैं तुम्हें गाऊँगा।
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है,
हर आँखों में तुम्हें सपनों-सा फहराऊँगा।
सूरज जाएगा भी तो कहाँ ?
उसे यहीं रहना होगा। यहीं-हमारी साँसों में,
हमारी रगों में, हमारे संकल्पों में,
हमारे रतजगों में। तुम उदास मत होओ,
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूंगा।
प्रश्न
(क) कवि ने सूरज को डूबने से रोकने के लिए क्या कर लिया है ?
(ख) कवि सूरज को डूबने से रोकने के लिए कहाँ जा रहा था ?
(ग) कवि सूरज को डूबने से रोकने का प्रयत्न कब करेगा ?
(घ) कवि रथ से किसे उतार लाना चाहता है ?
(ङ) कवि की दृष्टि में सूरज कहाँ रहेगा ?
उत्तर
(क) कवि ने सूरज को डूबने से रोकने के लिए अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं, मुट्ठियाँ मज़बूत कर ली हैं और ढलान पर अपनी एड़ियाँ जमाकर खड़ा होना सीख लिया है।
(ख) कवि सूरज को डूबने से रोकने के लिए क्षितिज पर जा रहा था
(ग) जब सूरज पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा तब कवि अपने कंधे अड़ाकर उसे रोकने का प्रयत्न करेगा।
(घ) कवि रथ से स्वाधीनता की प्रतिमा को उतार लाना चाहता है, जो साहस की मूर्ति है, धरती का सुख है, कालातीत प्यार है, धमनियों का प्रवाह है और कवि की चेतना का विस्तार है।
(ङ) कवि की दृष्टि में सूरज उसकी साँसों, रंगों, संकल्पों और रतजगों में रहेगा।
16. आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,
अब सवेरा हो गया है,
कब सवेरा हो गया है,
ठीक से मैंने न जाना,
बहुत सोकर सिर्फ मानाक्योंकि बादल की अँधेरी,
है अभी तक भी घनेरी,
अभी तक चुपचाप है सब,
रातवाली छाप है सब,
गिर रहा पानी झरा-झर,
हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सरसर,
काँपते हैं प्राण थर-थर,
बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,
घर खुशी का पूर है जो,
घर कि घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर !
आज का दिन-दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,
घर कि घर में सब जुड़े हैं,
सब कि इतने कब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,
और माँ बिन-पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी माँ कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुःख नहीं फिर,
माँ कि जिसकी स्नेह धारा,
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना नहीं आता,
जोकि उसका पत्र पाता।
और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक घिर रहा है,
पिता जी भोले बहादुर,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिता जी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलाएँ।
प्रश्न
(क) कवि रात-दिन की वर्षा में कैसा अनुभव कर रहा था ?
(ख) कवि को क्यों पता नहीं लगा कि सुबह हो गई थी ?
(ग) कवि को सुबह-सवेरे क्या याद आ रहा था ?
(घ) कवि के लिए बहन-भाई कैसे थे ?
(ङ) माता-पिता का स्वभाव कैसा था ?
उत्तर
(क) कवि रात-दिन की निरंतर वर्षा के कारण परेशान था क्योंकि उसे अपने घर की याद आ रही थी।
(ख) रात-भर वर्षा होती रही थी। सारा आकाश घने बादलों से घिरा हुआ था। सवेरा होने पर भी बाहर रात-सा अँधेरा था इसलिए कवि को पता नहीं लगा कि सुबह हो गई थी।
(ग) कवि को सुबह-सवेरे अपने घर की याद आ रही थी, जहाँ उसके माता-पिता, चार भाई और मायके से आई बहन उसकी अनुपस्थिति में परेशान थे।
(घ) कवि के लिए बहनें प्यार की प्रतीक थीं और चारों भाई भुजाओं के समान सहारा थे।
(ङ) माता-पिता का स्वभाव अत्यंत विनम्र था। वे भोले-भाले एवं सीधे-सादे थे। वे अपने बच्चों से बहुत स्नेह करते थे।
17. पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे; लुढ़कती आ रही है,
सूरज की लाल गेंद। उठ मेरी बेटी,
सुबह हो गई। तूने जो छोड़े थे,
गैस-गुब्बारे : तारे अब दिखाई नहीं देते।
(जाने कितने ऊपर चले गए।) तूने जो नचाई थी
फिरकी : चाँद, देख अब गिरा, अब गिरा।
उठ मेरी बेटी, सुबह हो गई।
तूने थपकियाँ देकर
जिन गुड्डे-गुड़ियों को सुला दिया था टीले,
मुँहरंगे आँख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की जरतारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है : छोटी तलैया;
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की झिलमिल नदी।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ चलकर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहाकर आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तसवीरों की किताब
देख तो, कितना रंग फैल गया।
उठ, घंटियों की आवाज़ धीमी होती जा रही है;
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं
उसकी लाठी में बाँधे रंग-बिरंगे गुब्बारे,
कागज़-पन्नी की हवा चर्खियाँ,
लाल हरी ऐनकें, दफनी के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज़ दे, सुबह हो गई
उठ देख
बंदर बिस्कुट का तेरा डिब्बा लिए
छत की मुंडेर पर बैठा है :
धूप आ गई।
प्रश्न
(क) बेटी को कवयित्री ने क्या कहकर प्रातःकाल में जगाया था?
(ख) चाँद कैसा दिखाई दे रहा था?
(ग) छोटी तलैया कवयित्री को कैसी प्रतीत होती है ?
(घ) बेटी की सहेली कौन है और वह कहाँ से आई है ?
(ङ) बूढ़ा कौन है और उसके पास क्या है ?
उत्तर
(क) पेड़ों के झुनझुने बजने लगे हैं और सूरज रूपी लाल गेंद लुढ़कती हुई उसकी ओर आने लगी है। यह कहकर बेटी को कवयित्री ने प्रातःकाल में जगाया था।
(ख) चाँद बेटी की गोल-गोल घूमती फिरकी की तरह दिखाई दे रहा था। वह सुबह हो जाने के बाद आकाश के उजाले में लुप्त होने ही लगा था।
(ग) छोटी तलैया बेटी के गुड्डे की जरतारी टोपी जैसी प्रतीत होती है।
(घ) बेटी की सहेली हवा है, जो झरने से अभी-अभी नहा कर आई है।
(ङ) बूढ़ा आसमान है। उसके पास तरह-तरह के रंग हैं। वे रंग-बिरंगे गुब्बारों, कागज़ की चर्खियों, लाल-हरी ऐनकों और दफनी के भोंपुओं की तरह प्रतीत होते हैं।
18. मैं उनके धूप अँधियारों में,
सूरज की किरणें भर दूंगा।
जिनकी बुझी हुई आँखों में शबन हैं,
शृंगार नहीं है।
आज सत्य के गोरे मुख पर,
राजनीति की चेचक फूटी।
लक्ष्मी का दर्शन करते ही,
पंडित से रामायण छूटी।
मैं तो अपने मन-मंदिर में उनकी चरण-धूल पूलूंगा,
मानवता की सेवा जिनका मजहब है,व्यापार नहीं है।
आज जिंदगी डूब रही है,
स्वार्थों की गहरी दलदल में।
मानवता की लाश रखी है,
आदर्शों के ताजमहल में।
मैं उनकी जिंदगी के लिए स्वयं मृत्यु से जूझ पड़ेंगा,
जिनको साँस मिली है, लेकिन जीने का अधिकार नहीं है।
श्रम की दुल्हन भटक रही है
नंगे तन पर चिथड़े पहने।
पर बदचलन तिजोरी ने हैं
सजा रखे कंचन के गहने।
मैं उनके गुमनाम लहू से यश का रामायण लिख दूँगा,
जिन्हें भूख से मरना प्रिय है, भीख मगर स्वीकार नहीं है।
अगर कहीं कवि जन्म न लेता,
धरती पर स्याही रह जाती।
हर आँसू अनाथ कहलाता,
पीड़ा अन-ब्याही रह जाती।
मैं उनकी स्मृति में कविता का अनुपम ताजमहल रच दूंगा,
जिनकी लाश उठा चलने को कोई भी तैयार नहीं है।
आज स्वार्थ की स्वर्ण तुला पर,
तुलती है हर प्रेम-कहानी।
काँटों के बदले बिकती है,
कलियों की मजबूर जवानी।
मैं उन विधवा आशाओं को अमर-प्रेम के वर दे दूंगा,
जिनके चरणों में सपनों की पायल है, झंकार नहीं है।
प्रश्न
(क) कवि किनके जीवन में सूर्य की किरणें भरना चाहता है ?
(ख) धर्म और जाति के प्रति समर्पित लोग भी किससे प्रभावित होकर अपने कर्म से दूर हो गए हैं ?
(ग) मानव-जीवन की दशा आज कैसी हो गई है ?
(घ) परिश्रमी लोगों की अब क्या हालत है ?
(ङ) हर प्रेम कहानी का परिणाम क्या हो रहा है?
उत्तर
(क) कवि उन दीन-हीन और असहाय लोगों के जीवन में सूर्य की किरणों रूपी आशा और खुशियों को भरना चाहता है जो समाज के द्वारा दी जाने वाली पीड़ाओं से त्रस्त हैं।
(ख) धर्म और जाति के प्रति समर्पित धार्मिक, शिक्षित और विद्वान लोग भी धन के लालच से अपने धर्म से दूर हो गए हैं।
(ग) मानव-जीवन हताशा और निराशा से भरा हुआ है। वह स्वार्थी तत्वों ने प्रभावित है। उसके आदर्श मिट गए हैं। वह धन और पद के लालच में अपने आपको भी भुला चुका है।
(घ) परिश्रमी लोग भूखे मर रहे हैं। बेईमानी और बदचलनी ने जीवन-मूल्य बदल दिए हैं और वे उन विघटनकारी मूल्यों की पीड़ा से परेशान हैं।
(ङ) आज हर प्रेम कहानी स्वार्थ और धन की तुला पर तुल रही है। कलियाँ काँटों के बदले बिक रही हैं। हर प्रेम कहानी असहाय-सी है।
19. कह दे माँ क्या अब देखू!
देखू खिलती कलियाँ या,
प्यासे सूखे अधरों को।
तेरी चिर यौवन-सुषमा,
या जर्जर जीवन देखू!
देखू हिम-हीरक हँसते,
हिलते नीले कमलों पर।
या मुरझाई पलकों से,
झरते आँसू-कण देखू!
सौरभ पी-पीकर बहता,
देखू यह मंद समीरण।
दुख की घुटे पीती या,
ठंडी साँसों को देखू!
खेलूँ परागमय मधुमय,
तेरी वसंत-छाया में।
या झुलसे संतापों से,
प्राणों का पतझर देखू।
मकरंद-पगी केसर पर,
जीती मधु-परियाँ ढूँढ़।
या उर-पंजर में कण को,
तरसे जीवन-शुक देखू !
कलियों की घन जाली में,
छिपती देखू लतिकाएँ
या दुर्दिन के हाथों में,
लज्जा की करुणा देखू।
बहलाऊँ नव किसलय के,
झूले में अलि-शिशु तेरे।
पाषाणों में मसले या,
फूलों से शैशव देखू !
तेरे असीम आँगन की,
देखू जगमग दीवाली।
या इस निर्जन कोने के,
बुझते दीपक को देखू !
देखू विहगों का कलरव,
घुलता जल की कलकल में।
निस्पंद पड़ी वीणा से,
या बिखरे मानस देखू।
मृदु रजत-रश्मियाँ देखू,
उलझी निद्रा-पंखों में।
या निर्निमेष पलकों में,
चिंता का अभिनय देखू !
तुझमें अम्लान हँसी है,
इसमें अजस्र आँसू-जल।
तेरा वैभव देखू या,
जीवन का क्रंदन देखू !
प्रश्न
(क) कवयित्री की प्रमुख दुविधा क्या है ?
(ख) कवयित्री नील-कमल के फूलों पर ओस की मोती-सी बूंदों को देखने की बजाय क्या देखना पसंद करती है ?
(ग) केसर की मोहक क्यारियों की अपेक्षा कवयित्री किसे महत्त्व देना चाहती है ?
(घ) ‘बुझते दीपक’ के माध्यम से कवयित्री किस ओर संकेत करना चाहती है ?
(ङ) ‘निस्पंद पड़ी वीणा’ किसकी असहायावस्था प्रकट करती है ? तर
उत्तर
(क) कवयित्री की प्रमुख दुविधा यह है कि वह इस बात का निर्णय नहीं कर पाती कि इस दुःख भरे संसार में प्रकृति के सुंदर-मोहक रूप को चुने या दीन-दुखियों और असहायों के प्रति अपने हृदय की सहानुभूति को व्यक्त करे।
(ख) कवयित्री नील-कमल के सुंदर फूलों पर ठहरी मोती जैसी जल की बूंदों को देखने की अपेक्षा किसी दीन-दुःखी और परेशान व्यक्ति की मुरझाई हुई पलकों से गिरती आँसू की बूंदों को देखना चाहती है।
(ग) केसर की मोहक क्यारियों की अपेक्षा कवयित्री भूख-प्यास से परेशान और सूखे अस्थि-पिंजर वाले मानवों को महत्त्व देना चाहती है।
(घ) ‘बुझते दीपक’ के माध्यम से कवयित्री दीन-हीन, निर्धन, लाचार और व्यथित बचपन की ओर संकेत करना चाहती है। वह उनकी पीड़ा से व्यथित होकर अपने जीवन को उनकी सेवा में अर्पित करना चाहती है।
(ङ) ‘निस्पंद पड़ी वीणा’ दुःखी और असहाय व्यक्तियों के जीवन को प्रकट करती है। इस प्रतीकात्मकता के द्वारा वह व्यक्त करती है कि उनके मन में छिपे भाव किसी भी तरह ठीक से व्यक्त नहीं हो पाते। वे अपनी पीड़ा कहना चाहते हैं पर किसी से कह नहीं पाते।
20. जब कभी मछेरे को फेंका हुआ,
फैला जाल,
समेटते हुए, देखता हूँ।
तो अपना सिमटता हुआ,
‘स्व’ याद हो आता है
जो कभी समाज, गाँव और
परिवार के बृहत्तर रकबे में,
समाहित था।
‘सर्व’ की परिभाषा बनकर,
और अब केंद्रित हो,
गया हूँ, मात्र बिंदु में।
जब कभी अनेक फूलों पर,
बैठी, पराग को समेटती,
मधुमक्खियों को देखता हूँ।
तो मुझे अपने पूर्वजों की,
याद हो आती है।
जो कभी फूलों को रंग, जाति, वर्ग,
अथवा कबीलों में नहीं बाँटते थे।
और समझते रहे थे कि,
देश एक बाग है,
और मधु-मनुष्यता,
जिससे जीने की अपेक्षा होती है।
किंतु अब,
बाग और मनुष्यता,
शिलालेखों में जकड़ गई है,
मात्र संग्रहालय की जड़ वस्तुएँ। (AI. C.B.S.E 2008)
प्रश्न
(क) कविता में प्रयुक्त ‘स्व’ शब्द से कवि का क्या अभिप्राय है ? उसकी जाल से तुलना क्यों की गई है ?
(ख) कवि का ‘स्व’ पहले कैसा था और अब कैसा हो गया है और क्यों ?
(ग) कवि को अपने पूर्वजों की याद कब और क्यों आती है ?
(घ) कवि के पूर्वजों की विचारधारा पर टिप्पणी लिखिए।
(ङ) निम्नलिखित काव्य-पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। ‘और मनुष्यता शिलालेखों में जकड़ गई है।’
उत्तर
(क) कविता में प्रयुक्त ‘स्व’ शब्द से कवि का अभिप्राय मनुष्य के अपनेपन से है। उसकी जाल से तुलना इसलिए की गई है क्योंकि मनुष्य का अपनापन केवल अपने तक सीमित हो गया है उसमें व्यापकता नहीं है। जैसे जाल सिमटा हुआ होता है वैसे ही आज के मनुष्य का ‘स्व’ भी सिमट गया है।
(ख) कवि का ‘स्व’ पहले बहुत व्यापक था, जिसमें समाज, गाँव, परिवार आदि के हित समाहित थे परंतु अब आधुनिकता की चकाचौंध, भौतिकतावाद, स्वार्थलिप्सा आदि के कारण यह बहुत संकुचित हो गया है तथा केवल अपने तक ही सीमित हो गया है।
(ग) कवि जब विभिन्न फूलों पर बैठ कर पराग समेटती हुई मधुमक्खियों को देखता है तो उसे पूर्वजों की याद आ जाती है क्योंकि उसके । पूर्वज भी मधुमक्खियों के समान बिना किसी भेदभाव के मानवता के कल्याण में विश्वास रखते थे।
(घ) कवि के पूर्वज मानवतावादी थे। वे किसी प्रकार के भेदभाव में विश्वास नहीं रखते थे। वे सब के साथ समान व्यवहार करते थे। वे सब का सदा कल्याण चाहते थे।
(ङ) इन पंक्तियों के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि आज के युग में मनुष्यता जड़ होकर रह गई है। मनुष्य संवेदन शून्य हो गया है। उसे किसी के सुख-दुःख से कोई लेना-देना नहीं है। वह केवल अपने हित साधन में ही लगा रहता है।
21. तू हिमालय नहीं,
तू न गंगा-यमुना,
तू त्रिवेणी नहीं,
तू न रामेश्वरम।
तू महाशील की है अमर कल्पना, देश !
मेरे लिए तू परम वंदना।
मेघ करते नमन, सिंधु धोता चरण,
लहलहाते सहस्त्रों यहाँ खेत-वन।
नर्मदा-ताप्ती, सिंधु, गोदावरी,
है कराती युगों से तुझे आचमन ।
तू पुरातन बहुत, तू नए से नया,
तू महाशील की है अमर कल्पना।
देश ! मेरे लिए तू महा अर्चना,
शक्ति-बल का समर्थक रहा सर्वदा।
तू परम तत्व का नित विचारक रहा,
शांति-संदेश देता रहा विश्व को।
प्रेम-सद्भाव का नित प्रचारक रहा। .
सत्य औ’ प्रेम की है परम प्रेरणा,
देश ! मेरे लिए तू महा अर्चना।
प्रश्न
(क) कवि ने देश को ‘महाशील की अमर कल्पना’ कहा है। इससे कवि का क्या तात्पर्य है ?
(ख) भारत देश पुरातन होते हुए भी नित नूतन कैसे है ?
(ग) “तू परम तत्व का नित विचारक रहा’ पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
(घ) देश का सत्कार प्रकृति कैसे करती है ? काव्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘शांति-संदेश ……..रहा’ काव्य-पंक्तियों का अर्थ बताते हुए इस कथन की पुष्टि में इतिहास से कोई एक प्रमाण दीजिए।
उत्तर
(क) कवि ने देश को ‘महाशील की अमर कल्पना’ इसलिए कहा है क्योंकि हमारे देश में सदा दया, क्षमा, उच्च चरित्र, करुणा आदि को सर्वोपरि माना जाता रहा है।
(ख) भारतवर्ष में प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता के साथ-साथ आधुनिक प्रगतिवादी विचारधारा को भी अपनाया गया है। इसलिए हमारा देश पुरातनता एवं नवीनता का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है।
(ग) इस पंक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि भारतवर्ष के लोग सदा शक्ति-बल के समर्थक होते हुए भी निरंतर उस परम तत्वं सर्वशक्तिमान ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रयास करते रहे हैं। उसी के विचारों में लीन रहते हैं।
(घ) देश का सत्कार प्रकृति देश में भरपूर वर्षा कर के लहलहाते खेतों में अन्न उत्पन्न करके, शुद्ध वायु-जल देकर करती है।
(ङ) इस पंक्ति का अर्थ यह है कि भारतवर्ष के विद्वानों ने ही संसार को शांति का संदेश देकर परस्पर प्रेमपूर्वक रहना सिखाया है। गौतम बुद्ध ने अपने अहिंसा के संदेश द्वारा विश्व में शांति का प्रसार किया था।
22. जब-जब बाहें झुकी मेघ की, धरती का तन-मन ललका है।
जब-जब मैं गुजरा पनघट से, पनिहारिन का घट छलका है।
सुन बाँसुरिया सदा-सदा से हर बेसुध राधा बहकी है,
मेघदूत को देख यक्ष की सुधियों में केसर महकी है।
क्या अपराध किसी का है फिर, क्या कमजोरी कहूँ किसी की,
जब-जब रंग जमा महफिल में, जोश रुका कब पायल का है
जब-जब मन में भाव उमड़ते, प्रणय श्लोक अवतीर्ण हुए हैं,
जब-जब प्यास जगी पत्थर में, निर्झर स्रोत विकीर्ण हुए हैं।
जब-जब गूंजी लोकगीत की धुन अथवा आल्हा की कड़ियाँ,
खेतों पर यौवन लहराया, रूप गुजरिया का दमका है।
प्रश्न
(क) मेघों के झुकने से धरती पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(ख) राधा को बेसुध क्यों कहा गया है ?
(ग) मन के भावों तथा प्रेम-गीतों का क्या संबंध है ?
(घ) काव्यांश में झरने के अनायास फूटने का क्या कारण बताया गया है ?
(ङ) ‘खेतों पर यौवन लहराया, रूप गुजरिया का दमका है’ कथन के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर
(क) मेघों के झुकने से धरती प्रसन्न हो जाती है। वर्षा होने से सर्वत्र हरियाली छा जाती है। पेड़-पौधों में नवजीवन का संचार हो जाता है।
(ख) राधा श्रीकृष्ण की प्रेमिका थी। वह श्रीकृष्ण की बाँसुरी का स्वर सुन कर मोहित हो जाती थी, इसलिए उसे बेसुध कहा गया है।
वह श्रीकृष्ण की बाँसुरी का स्वर सुन कर अपनी सुध-बुध खो बैठती थी।
(ग) मन के भावों और प्रेम-गीतों का परस्पर गहरा संबंध है क्योंकि जब मन में भाव उत्पन्न होते हैं तो प्रेम-गीतों की रचना होती है। इस – प्रकार प्रेम-गीत मन के भावों पर आश्रित हैं।
(घ) इस काव्यांश में झरने के अनायास फूट पड़ने का यह कारण बताया गया है कि जब-जब पत्थरों को प्यास लगती है तो झरने
23. क्या रोकेंगे प्रलय मेघ ये, क्या विद्युत-घन के नर्तन,
मुझे न साथी रोक सकेंगे, सागर के गर्जन-तर्जन।
मैं अविराम पथिक अलबेला रुके न मेरे कभी चरण,
शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने मित्र चयन।
“मैं विपदाओं में मुसकाता नव आशा के दीप लिए
फिर मुझको क्या रोक सकेंगे जीवन के उत्थान-पतन।
मैं अटका कब, कब विचलित मैं, सतत डगर मेरी संबल,
रोक सकी पगले कब मुझको यह युग की प्राचीर निबल।
आँधी हो, ओले-वर्षा हों, राह सुपरिचित है मेरी,
फिर मुझको क्या डरा सकेंगे ये जग के खंडन-मंडन।
प्रश्न
(क) उपर्युक्त पंक्तियों के आधार पर कवि के स्वभाव की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(ख) कविता में आए मेघ, विद्युत, सागर की गर्जना और ज्वालामुखी किनके प्रतीक हैं ? कवि ने उनका संयोजन यहाँ क्यों किया है?
(ग) ‘शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने कभी चयन’-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
(घ) ‘युग की प्राचीर’ से क्या तात्पर्य है ? उसे कमजोर क्यों बताया गया है ?
(ङ) किन पंक्तियों का आशय है-तन-मन में दृढ़ निश्चय का नशा हो तो जीवन मार्ग में बढ़ते रहने से कोई नहीं रोक सकता?
उत्तर
(क) कवि किसी प्रकार की कठिनाइयों से घबराता नहीं है। वह मुसीबतों में भी मुस्कुराता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। वह – निडर, दृढनिश्चयी तथा उत्साही व्यक्ति है।
(ख) कविता में आए मेघ, विद्युत, सागर का गर्जन और ज्वालामुखी शब्द जीवन में आने वाली बाधाओं एवं विपत्तियों के प्रतीक हैं। कवि ने इन शब्दों का यहाँ संयोजन विपदाओं के विभिन्न रूपों को दर्शाने के लिए किया है।
(ग) इस पंक्ति के माध्यम से कवि यह कह रहा है कि वह सदा कठिनाइयों का प्रसन्नतापूर्वक सामना करता रहा है। दुःखों से घबराकर उसने कभी भी सुखों की कामना नहीं की है।
(घ) ‘युग की प्राचीर’ से कवि का तात्पर्य संसार के संबंधों से है। वह इन बंधनों से मुक्त है, इसलिए उसने इसे कमज़ोर बताया है।
(ङ) मैं बढ़ता अविराम निरंतर तन-मन में उन्माद लिए, फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये बादल-विद्युत गर्जन।
24. स्नायु तुम्हारे हों इस्पाती।
देह तुम्हारी लोहे की हो, स्नायु तुम्हारे हों इस्पाती,
युवको, सुनो जवानी तुममें आए आँधी-सी अर्राती।
जब तुम चलो चलो ऐसे,
जैसे गति में तूफान समेटे।
हो संकल्प तुम्हारे मन में,
युग-युग के अरमान समेटे।
अंतर हिंद महासागर-सा,
हिमगिरि जैसी चौड़ी छाती।
जग जीवन के आसमान में,
तुम मध्याह्न सूर्य-से चमको
तुम अपने पावन चरित्र से,
उज्ज्वल दर्पण जैसे दमको।
साँस-साँस हो झंझा जैसी
रहे कर्म ज्वाला भड़काती।
जनमंगल की नई दिशा में,
तुम जीवन की धार मोड़ दो।
यदि व्यवधान चुनौती दे तो,
तुम उसकी गरदन मरोड़ दो।
ऐसे सबक सिखाओ जिसको
याद करे युग-युग संघाती।
स्नायु तुम्हारे हों इस्पाती।
प्रश्न
(क) युवकों के लिए फ़ौलादी शरीर की कामना क्यों की गई है?
(ख) किसकी गरदन मरोड़ने को कहा गया है और क्यों?
(ग) बलिष्ठ युवकों की चाल-ढाल के बारे में क्या कहा गया है?
(घ) युवकों की तेजस्विता के बारे में क्या कल्पना की गई है?
(ङ) उस पंक्ति को उद्धृत कीजिए जिसमें कहा गया है कि युवक अपने जीवन को लोक-कल्याण में लगा दें।
उत्तर
(क) जिससे वे देश पर आक्रमण करनेवालों को सबक सिखा सकें।
(ख) कवि ने व्यवधान की गरदन मरोड़ने के लिए कहा है, जिससे जीवन में आने वाली बाधाएँ समाप्त हो जाएँ।
(ग) बलिष्ठ युवकों की चाल-ढाल ऐसी हो कि जब वे चलें तो उनकी गति तूफ़ान को भी समेटने वाली हो तथा मन में दृढ़ संकल्प हो।
(घ) युवक मध्याह्न के सूर्य के समान तेजस्वी हों तथा अपने पवित्र चरित्र से उज्ज्वल दर्पण के समान चमकते रहें।
(ङ) जनमंगल की नई दिशा में, तुम जीवन की धार मोड़ दो।
25. नए युग में विचारों की नई गंगा बहाओ तुम,
कि सब कुछ जो बदल दे, ऐसे तूफ़ाँ में नहाओ तुम।।
अगर तुम ठान लो तो आँधियों को मोड़ सकते हो,
अगर तुम ठान लो तारे गगन के तोड़ सकते हो,
अगर तुम ठान लो तो विश्व के इतिहास में अपने
सुयश का एक नव अध्याय भी तुम जोड़ सकते हो,
तुम्हारे बाहुबल पर विश्व को भारी भरोसा है
उसी विश्वास को फिर आज जन-जन में जगाओ तुम।
पसीना तुम अगर इस भूमि में अपना मिला दोगे,
करोड़ों दीन-हीनों को नया जीवन दिला दोगे।
तुम्हारी देह के श्रम-सीकरों में शक्ति है इतनी
कहीं भी धूल में तुम फूल सोने के खिला दोगे।
नया जीवन तुम्हारे हाथ का हलका इशारा है
इशारा कर वही इस देश को फिर लहलहाओ तुम।
प्रश्न
(क) यदि भारतीय नवयुवक दृढ़ निश्चय कर लें तो क्या-क्या कर सकते हैं?
(ख) नवयुवकों से क्या-क्या करने का आग्रह किया जा रहा है?
(ग) युवक यदि परिश्रम करें तो क्या लाभ होगा?
(घ) आशय स्पष्ट कीजिए : कहीं भी धूल में तुम फूल सोने के खिला दोगे।
(ङ) काव्यांश में से कोई एक मुहावरा चुनकर उसका वाक्य-प्रयोग कीजिए।
उत्तर
(क) भारतीय नवयुवक दृढ़ निश्चय कर लें तो वे आँधियों की दिशा मोड़ सकते हैं, आकाश से तारे तोड़ सकते हैं तथा विश्व इतिहास में अपने सुयश का एक नया अध्याय जोड़ सकते हैं।
(ख) नवयुवकों से कठिन परिश्रम तथा करोड़ों दीन-हीनों को नया जीवन दिलाने के लिए कहा जा रहा है।
(ग) यदि युवक परिश्रम करें तो मिट्टी को भी सोना बना सकते हैं।
(घ) इस कथन के द्वारा कवि यह कहना चाहता है कि परिश्रम करने से धूल में भी सोने के फूल खिलाए जा सकते हैं अर्थात परिश्रम से कुछ भी कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है।
(ङ) पसीना बहाना-किसान दिन-रात अपना पसीना बहाकर फ़सल तैयार करते हैं।
26. सहता प्रहार कोई विवश, कदर्य जीव
जिसकी नसों में नहीं पौरुष की धार है।
करुणा, क्षमा है वीर जाति के कलंक घोर
क्षमता क्षमा की शूरवीरों का श्रृंगार है।
प्रतिशोध से हैं होती शौर्य की शिखाएँ दीप्त
प्रतिशोध-हीनता नरों में महापाप है,
छोड़ प्रीति-वैर पीते मूक अपमान वे ही
जिनमें न शेष शूरता का वहि-ताप है
जेता के विभूषण सहिष्णुता-क्षमा हैं किन्तु
हारी हुई जाति की सहिष्णुता अभिशाप है।
सेना साजहीन है परस्व हरने की वृत्ति
लोभ की लड़ाई क्षात्र धर्म के विरुद्ध है
चोट खा परंतु जब सिंह उठता है
जाग उठता कराल प्रतिशोध हो
प्रबुद्ध है पुण्य खिलतास है
चंद्रहास की विभा में तब
पौरुष की जागृति कहाती धर्मयुद्ध है। (C.B.S.E 2018)
प्रश्न
(क) क्षमा कब कलंक और कब श्रृंगार हो जाती है?
(ख) प्रतिशोध किसे कहते हैं ? वह कब आवश्यक होता है?
(ग) सहिष्णुता को विभूषण और अभिशाप दोनों क्यों माना गया?
(घ) कैसा युद्ध धर्म के विरुद्ध माना गया है?
(ङ) भाव स्पष्ट कीजिए – ‘पौरुष की जागृति कहाती धर्मयुद्ध है।’
उत्तर
(क) असहाय होकर भी जब कोई क्षमा कर देने की बात करता है तो वह कलंक मानी जाती है। जब कोई क्षमावान अपने अपार बल-शक्ति का प्रयोग न कर क्षमा कर देता है और बिना मारे छोड़ देता है तो वह श्रृंगार कहलाता है।
(ख) प्रतिशोध का अर्थ बदला लेना होता है। प्रतिशोध की आवश्यकता तब होती है जब आत्म सम्मान की रक्षा करनी आवश्यक हो जाती है।
(ग) सहिष्णुता को विभूषण तब कहते हैं जब विजेता होकर भी विरोधी को क्षमा कर देता है। पराजित हो जाने पर जब कोई क्रोध न दिखाकर सहिष्णु दिखलाता है तो वह अभिशाप होता है।
(घ) वह युद्ध धर्म के विरूद्ध माना जाता है जो लोग और किसी भी प्रकार के स्वार्थ के कारण किया जाता है।
(ङ) जब कोई शूर वीर सजग-सचेत होकर युद्ध करता है तब उसका पराक्रम और नीति युक्त लड़ाई ही धर्म युद्ध होता है।