CBSE Class 6 Hindi रचना निबंध लेखन
निबंध में गद्य-रचना का उत्कुष्ट रूप मिलता है। विषय का सम्यक् प्रतिपादन, भाषा का प्रांजल रूप और लेखक के व्या क्तात्व की छाप – ये तीनों विशेषताएँ अच्छे निबंध में पाई जाती हैं।
अनुभव और ज्ञान का कोई भी क्षेत्र निबंध का विषय बन सकता है, जैसे – होली, दीवावली, वर्षा, समुद, सूर्य-ग्रहण आदि।
निबंध की रचनागत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
1. कसावट : निबंध का अर्थ ही है भली-भाँति बंधा हुआ। निबंध के वाक्य एक-दूसरे से संबद्ध होते हैं। विचारों में कार्य-कारण का संबंध बना रहता है।
2. आकार : निबंध का आकार प्राय: छोटा और शब्द-सीमा के अंदर रहता है।
3. भाषा : निबंध की भाषा विष्य के अनुकूल होती है। गंभीर और साहित्यिक विषयों के निबंधों में तत्सम शब्दावली रहती है। सामान्य विषयों में भाषा सरल और बोलचाल के निकट होती है।
4. समुचित उद्धरणों, प्रसंगों, दृष्टांतों एवं सूक्तियों के यथा प्रसंग प्रयोग से निबंध रोचक और प्रभावशाली बन जाता है। निबंध के प्रकार :
प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से निबंध तीन प्रकार के होते हैं :
1. वर्णनात्मक या विवरणात्मक निबंध : जैसे मेले का वर्णन, यात्रा-वर्णन आदि।
2. विचार प्रथान निबंध : जैसे – सहकारिता, भाग्य और पुरुषार्थ, भारतीयता आदि।
3. भाव प्रधान निबंध : जैसे क्रोध, प्रेम, सच्ची मित्रता आदि।
निबंध का गठन –
किसी विषय पर निबंध लिखने से पूर्व उसकी रूपरेखा अवश्य बना लेनी चाहिए।
निबंध के तीन अंग होते हैं :
(क) प्रस्तावना या भूमिका,
(ख) विषय-सामग्री तथा उसका सुव्यवस्थित संयोजन,
(ग) उपसंहार।
प्रस्तावना : प्रस्तावना या भूमिका ऐसी होनी चाहिए जो पाठक के मन में निबंध के विषय के प्रति उत्सुकता उत्पन्न कर दे।
यह लंबी नहीं होनी चाहिए।
विषयवस्तु : विषय के प्रतिपादन की दृष्टि से तथ्यों, भावों, विचारों का तर्कसंगत रूप से संयोजन, उनकी क्रमबद्धता और सुसंबद्धता तथा उनका प्रभावपूर्ण वर्णन आवश्यक है।
उपसंहार : निबंध के अंत में विषय-विवेचन के आधार पर निश्चित निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए। अंत इस प्रकार किया जाए कि निबंध का पाठक पर स्थायी प्रभाव पड़े।
आगे कुछ आवश्यक निबंधों के उदाहरण दिए जा रहे हैं :
1. मेरा प्रिय मित्र
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर परस्पर संबंधों का निर्वाह करता है। मनुष्य के जीवन में अनगिनत परिचित होते हैं। प्राय: परिचितों के संबंध स्वार्थों पर आधारित होते हैं। इन परिचितों में एक परिचित मित्र भी होता है। संसार में सच्चे मित्र अल्प मात्रा में ही मिलते हैं। सच्चा मित्र अपने मित्र के दोषों को दूर करता है, उसके लिए हितकारी योजनाएँ बनाता है, गोपनीय को छिपाता है तथा उसके गुणों को समाज के समक्ष प्रकट करता है। आपत्ति में सहायता करता है और दुख में साथ नहीं छोड़ता। इस प्रकार एक आदर्श सच्चा मित्र सबसे बड़ा संबंधी होता है।
निपुण मेरा सहपाठी है और प्रिय मित्र है। वह कक्षा का सबसे व्यवहार कुशल और बुद्धिमान छात्र है। प्रत्येक वर्ष वह कक्षा में प्रथम स्थान पर रहता है। विद्यालय के प्रधानाचार्य एवं सभी शिक्षक उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं। उसके मुखमंडल पर सदैव मुस्कान दिखाई देती है। कक्षा का सबसे मेधावी छात्र होने पर भी उसे घमंड नहीं है। अन्य छात्रों की सहायता करने में उसे अपार खुशी मिलती है। निपुण सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेता है। इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर उसने ऐसा ओजस्वी भाषण दिया कि सभी लोग उसका भाषण सुनकर मंत्रमुण हो गए।
उसे विद्यालय के सर्वोतम वक्ता का पुरस्कार दिया गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ वह खेलों में भी रुचि लेता है। वह विद्यालय की क्रिकेट टीम का कैप्टन है। वह अध्ययन के प्रति जितना गंभीर है, उतना ही हँसमुख भी है। उसके चुटकुले और हँसी की फुलझड़ियाँ सुनकर सभी लोट-पोट हो जाते हैं। वह कभी किसी की शिकायत नहीं करता बल्कि अपने साधियों को गलतियाँ सुधारने की बात कहता है। अपने साथियों की अच्छाइयों की हदय से सराहना करता है। यदि किसी कारणवश वह एक दिन भी नहीं आता तो सभी को उसका अभाव खटकता है।
मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे निपुण जैसे सच्चा एवं आदर्श मित्र मिला है। मैं चाहता हैँ कि हमारी मित्रता सदैव बनी रहे। उसके पिता एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं। पारिवारिक संस्कारों का निपुण पर पूर्ण प्रभाव है। हम सभी का वह प्रेरणा-स्रोत है। कितना अच्छा होता ! यदि मेंर सभी मित्र निपुण जैसे होते। सच्चा मित्र विपत्ति में भी साथ नहीं छोड़ता, यह गुण निपुण में सदैव दिखाई देता है। किसी ने ठीक ही कहा है – “विपत्ति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत।”
2. स्वतंत्रता दिवस
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-पराधीन सपनेहु सुख नाँहीं।’ पराधीनता में स्वप्न में भी सुख नहीं है। स्वतंत्रता तो पशु-पक्षियों को भी प्रिय है। जब कोई राष्ट्र परतंत्र हो जाता है तो उसके निवासियों के लिए वह परतंत्रता अभिशाप बन जाती है। भारत जैसा महान् राष्ट्र भी सैकड़ों वर्ष तक पराधीन रहा और आपसी फूट के कारण पराधीनता के अभिशाप को सहन करता रहा। देशवासियों की एकता और शक्ति के कारण भारत 15 अगस्त, 1947 को पराधीनता से मुक्त हुआ। यह दिवस भारत में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
स्वतंत्रता दिवस भारतवर्ष का राष्ट्रीय पर्व है। सभी भारतवासी संपूर्ण देश में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते हैं। सभी राज्यों की राजधानियों एवं महानगरों में इस दिवस पर विशेष आयोजन होते हैं। सभी राज्य सरकारें इस दिन राज्य के निवासियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करती हैं। इस दिन देश के सभी भागों में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है। सरकारी भवनों को सजाया जाता है। इस समारोह में देश के सभी लोग सम्मिलित होते हैं। भारत के बाहर रहने वाले भारतीय भी इस दिवस को विदेशों में रहकर मनाते हैं। इस प्रकार स्वतंत्रता दिवस हमारा महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व है।
स्वतंत्रता-दिवस समारोह का विशेष आयोजन भारत की राजधानी दिल्ली में होता है। इस दिन दिल्ली के स्कूल एवं कॉलेजों में अवकाश होता है ताकि सभी लोग स्वतंत्रता दिवस समारेह में सम्मिलित हों। दिल्ली में ऐतिहासिक लाल किले के प्राचीर पर प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है। राष्ट्रिय ध्वज को 21 तोपों की सलामी दी जाती है। ध्वजारोहण के उपरांत प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करते हैं।
राष्ट्र के नाम प्रसारण में वे राष्ट्र को संपन्न बनाने तथा राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने का आहवान करते हैं। भाषण के उपरांत वे ‘जयहिंद’ का जयघोष करते हैं जिसे सुनकर श्रोता एवं दर्शकगण जयहिंद का अनुकरण करते हुए सभी दिशाओं को गुंजायमान कर देते हैं। इस दिन अनेक स्थानों पर राष्ट्रीय कवि सम्मेलन एवं मुशाययों का आयोजन होता है। इस दिन देश के लिए प्राणोस्सर्ग करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धा-सुमन अर्पित किए जाते हैं तथा उनके त्याग एवं बलिदान का स्मरण किया जाता है।
स्वतंत्रता दिवस एक प्रेरक राष्ट्रीय पर्व है। यह हमें राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की प्रेरणा देता है। हमें अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए तथा वैमनस्य से दूर रहना चाहिए। हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे हमारी स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीय एकता को ठेस पहुँचे।
3. गणतंत्र दिवस
भारतवर्ष पर्वों का देश है। यहाँ अनेक सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय पर्व मनाए जाते हैं। राष्ट्रीय पर्वों में गणतंत्र दिवस एक महत्त्वपूर्ण पर्व है। इसे सभी भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यह राष्ट्रीय पर्व प्रति वर्ष 26 जनवरी के दिन मनाया जाता है। इसी दिन भारत का संविधान सन् 1950 में लागू हुआ था, तभी से इसे हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं।
26 जनवरी का दिन भारतवर्ष में ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसी दिन सन् 1930 में रावी नदी के तट पर पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति का संकल्प लिया गया था। इस महत्त्वपूर्ण दिवस को ही संविधान लागू किया गया तथा इसी दिन 1950 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में शपथ दिलाई गई।
गणतंत्र दिवस का राष्ट्रीय पर्व संपूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। देश के सभी राज्यों की राजधानियों में, नगरों में, गाँवों में यह पर्व उल्लास के साथ मनाया जाता है। जो भारतीय विदेशों में रहते हैं, वे वहाँ ही गणतंत्र दिवस का पर्व मनाते हैं। गणतंत्र दिवस पर्व का मुख्य आयोजन भारत की राजधानी दिल्ली में होता है। इस दिन दिल्ली की शोभा देखते ही बनती है। 26 जनवरी को प्रति वर्ष प्रातः भारत के राष्ट्रपति शाही बग्घी में बैठकर विजय चौक आते हैं। वहाँ भारत के प्रधानमंत्री एवं तीनों सेनाओं के अध्यक्ष उनका स्वागत करते हैं। विजय चौक और राजपथ पर अपार जनसमूह इस उत्सव की शोभा देखने के लिए एकत्रित होता है।
राष्ट्रीय ध्वजारोहण के उपरांत तीन सेनाओं द्वारा सलामी का कार्यक्रम होता है। इस दिन भारतीय सेनाओं के आधुनिक शस्त्र-अस्त्रों का प्रदर्शन होता है। अनेक राज्यों की मनमोहक झांकियाँ प्रदर्शित होती हैं। अनेक राज्यों से आए हुए लोकनर्तक अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। अनेक विद्यालयों के एन.सी.सी. छात्र, पुलिस के बैंडवादक भी अपनी कला प्रदर्शित करते हैं। इस अवसर पर वीर और साहसी बच्चों की झाँकी भी निकलती है। समारोह का अंतिम चरण बहुत ही आनंददायक होता है। भारतीय वायुसेना के विमान आकाश में अपने कौशल दिखाते हैं तथा आकाश में तिरंगा झंडा बनता है। इस दिन सरकारी भवनों पर रोशनी देखने योग्य होती है।
गणतंत्र दिवस का पर्व हमें राष्ट्रीयता की प्रेरणा देता है। यह दिवस हमें उन शहीदों एवं स्वतंत्रता सेनानियों की याद दिलाता है जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए हैसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। यह दिवस हमें प्रेरणा देता है कि हम अपने स्वार्थों को भुलाकर, राष्ट्रनिर्माण के कार्य में जुट जाएँ तथा संविधान के अनुकूल आचरण करें तभी इस राष्ट्रीय पर्व की सार्थकता सिद्ध होगी।
4. दीपों का पर्व-दीपावली
हमारा देश अनेक धर्म, संप्रदायों, जातियों का अद्भुत संगम है। यहाँ के निवासी अपने विश्वास एवं रुचयों के अनुसार अपने-अपने त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। दीपावली भी भारतीयों द्वारा मनाया जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण पर्व है। दीपावली दो शब्दों से मिलकर बना है – दीप+अवली अर्थात् दीपों की पंक्ति। इस दिन दीप जलाने का विशेष महत्त्व है, इसलिए इस दिन रात को दीपक जलाकर प्रकाश किया जाता है, अतः दीपावली प्रकाश पर्व है।
दीपावली का पर्व प्रति वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। अगर देखा जाए तो दीपावली कई पर्वों का समूह है। दीपावली से पूर्व छोटी दीपावली और उससे पूर्व धनतेरस का पर्व होता है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पूजा तथा उसके अगले दिन भाईदूज का त्योहार होता है। इस प्रकार दीपावली के समय सप्ताह पर्यत हर्षोल्लास का वातावरण बना रहता है। दीपावली को रात्रि में लक्ष्मी पूजन किया जाता है, दीपक या विद्युत दीप जलाकर रोशनी की जाती है। बच्चे आतिशबाजी चलाकर प्रसन्न होते हैं। लक्ष्मी पूजन के उपरांत व्यापारीगण अपने नए बही-खाते प्रारंभ करते हैं।
दीपावली के कई दिन पहले ही लक्ष्मी के आगमन के लिए तैयारी प्रारम्भ हो जाती है। लोग अपने घरों की सफाई करते हैं। उन्हें यथा संभव सजाते हैं। सफाई एवं शुद्धता के वातावरण में जब दीपकों का प्रकाश किया जाता है तो अमावस्या की काली रात्रि भी पूर्णिमा में परिवर्तित हो जाती है। बाजारों में दुकानों की सजावट देखते ही बनती है। इस अवसर पर लोग अपने इष्टमित्रों के यहाँ मिष्ठान्न एवं उपहार प्रदान करके प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाते हैं।
दीपावली का पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व है। एक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान् श्रीराम लंका के राजा रावण को मारकर सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापस लौटे थे। उनके अयोध्या वापस आने की खुशी में अयोध्यावासियों ने दीपकों की पंक्तियाँ जलाकर प्रकाश किया। तभी से इस दिन दीपकों की पंक्तियाँ जलाने का महत्त्व है। इसी दिन सिक्खों के छठे गुरु गोविंद सिंह की बंधन-मुक्ति हुई थी। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद, जैन तीर्थर महावीर स्वामी ने भी इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था।
प्रकाश पर्व दीपावली हमें जीवन भर हर्षोल्लास से रहने की प्रेरणा देती है। हमारे जीवन में सदैव ज्ञान का प्रकाश जगमगाता रहे, परन्तु इस प्रकाश पर्व के दिन कुछ लोग जुआ खेलते हैं, यह कानूनी अपराध है। कभी-कभी आतिशबाजी से आग लगने की दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। आतिशबाजी से वायु-प्रदूषण तथा ध्वनि-प्रदूपण फैलता है। अत: आतिशबाजी का विरोध करके प्रदूषण रहित दीपावली मनाना ही दीपावली की पवित्रता का परिचायक है।
5. रंगों का त्योहार-होली
भारत विभिन्न ऋतुओं का देश है। वसंत को ऋतुराज की संज्ञा दी जाती है। रंगों का त्योहार होली ऋहुराज वसंत के आने का सूचक है। शीत ॠतु के उपरांत वसंत में प्रकृति अनगिनत रंगों के फूलों से सज जाती है। सर्वत्र प्रकृति के रंग-बिरंगे सौन्दर्य का ही साप्राज्य होता है। रंग-बिंगे पुष्प एवं सरसों के पीले पुष्षों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है और मस्ती से झूम उठता है। इस रंग-बिरंगे वसंत में ही होली का शुभागमन होता है।
होली का त्योहार प्रति वर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली का त्योहार दो दिन तक प्रमुख रूप से मनाया जाता है। पूर्णिमा की रात्रि को होलिका दहन होता है। लोग रात को अपने घरों में भी होली जलाते हैं तथा रबी की फसल की जौ और गेहूँ आदि की बालियाँ भूनते हैं। परस्पर भूने अन्न के दानों का आदान-प्रदान करते हुए अभिवादन करते हैं। अगले दिन प्रात: से ही सभी आबाल वृद्ध एक-दूसरे को अबीर-गुलाल लगाते हैं। एक दूसरे के गले मिलते हैं। सभी भेद-भाव भुलाकर रंग डालते हैं। लोगों के चेहरे और कपड़े रंग-बिरंगे हो जाते हैं। लोग मस्ती में गाते, बजाते, नाचते हैं। इस प्रकार होली पारस्परिक प्रेम और सौहार्द का परिचायक है।
रंगों के पर्व होली का पौराणिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व है। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार हिरण्यकश्यप नामक दैत्यराज था। वह अत्यंत अत्याचारी एवं क्रूर था। उसने भक्त स्वभाव के अपने पुत्र प्रहलाद पर अनेक अत्या. चार किए। हिरण्यकश्यप चाहता, था कि प्रहलाद अपने पिता को ही भगवान् माने। इसलिए वह ईंवर भक्त प्रहलाद से सदैव क्रुद्ध रहता था। अनेक अत्याचारों के ‘असफल होने पर उसने एक अंतिम उपाय किया।
हिरण्यकश्यप की एक होलिका नाम की बहन थी जिसे आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। उसने होलिका के सहयोग से प्रहलाद को जलाने की बात सोची। वह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को प्रहल लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई। भगवान् की कृपा से होलिका तो जल गई परंतु प्रह्लाद सकुशल बच गया। कहते हैं कि तभी से इस दिन होलिका का दहन किया जाता है। एक ऐसी भी मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म किया था। अतः यह पर्व मदन-दहन पर्व बन गया।
रंगों का त्योहार होली हमें पारस्परिक प्रेम एवं सौहार्द का संदेश देता है। इस दिन शत्रु भी अपनी शत्रुता भूलकर मित्र बन जाते हैं, परन्तु कुछ लोग अपनी विकृत मानसिकता का प्रयोग होली में करते हैं। वे शराब पीकर ऊधम मचाते हैं, कई बार प्रदूषित रंगों से आँखों एवं चमड़ी के रोग हो जाते हैं। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें शालीनता के साथ गुलाल लगाकर प्रेमपूर्वक होली खेलनी चाहिए ताकि समाज में स्नेह एवं प्रेम का सौहार्द बढ़े।
6. रक्षाबंधन
भारत पर्वों का देश है। यहाँ वर्ष भर अनेक धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्व मनाए जाते हैं। सभी भारतीय अपने पवों को असीम हर्षोल्लास के साथ मनांते हैं। इन पर्वों में रक्षाबंधन एक पवित्र और प्रसिद्ध पर्व है। यह पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, इसलिए इसे श्रावणी भी कहा जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को रक्षासूत्र अर्थात् राखियाँ बाँधती हैं, इसलिए यह पर्व रक्षा बंधन के नाम से विशेष प्रसिद्ध है।
रक्षाबंधन से काफी समय पूर्व ही बाजार में रंग-विरंगी राखियों की दुकानें सज जाती हैं। भाइयों के दूर होने पर बहनें डाक द्वारा अपनी राखियाँ भेजती हैं। पास रहने वाली बहनें अपने भाई के यहाँ स्वयं जाकर राखी बाँधती हैं तथा भाई के लिए मंगल कामनाएँ करती हैं। रक्षाबंधन के उपरान्त भाई अपनी बहनों को यथाशक्ति उपहार प्रदान करते हैं तथा बहन की रक्षा का उत्तरदा. यित्व लेते हैं। कई भाइयों की बहनें नहीं होतीं तो वे किसी को धर्म-बहन बनाकर रक्षाबंधन करवाते हैं और उसे बहन का प्रेम एवं सम्मान प्रदान करते हैं।
रक्षाबंधन केवल भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक पर्व नहीं है अपितु ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह पर्व महत्वपूण है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि राखी का सम्मान केवल हिंदू ही नहीं अपितु मुसलमान भी करते हैं। रानी कर्मवती ने हुमायूँ
के लिए राखी भेजी थी और राखी का सम्मान करते हुए हुमायूँ ने गुजरात के बादशाह बहादुरशाह से चित्तौड़ की रक्षा की थी। रक्षाबंधन के विषय में यह कथा भी प्रचलित है कि राजा बलि से विण्णु ने वामन का रूप धारण करके तीन पग पृथ्वी की याचना की थी। राजा बलि ने घमंड के साथ इसे देना स्वीकार कर लिया। बाद में विष्णु ने विराट् रूप धारण करके पहले पग में पृथ्वी और दूसरे में आकाश तथा तीसरे में बलि के शरीर को ही नाप दिया था। कहा जाता है कि तभी से ब्राहमण अपने यजमानों के यहाँ रक्षाबंधन करते हैं। इसी संदर्भ में देव और दानवों के युद्ध का उल्लेख भी आता है कि देवताओं की विजय की कामना करते हुए बहनों ने राखी बाँधी थी जिसके परिणाम स्वरूप देवताओं की विजय हुई।
आज के अर्थ प्रधान युग में रक्षाबंधन पर्व की सांस्कृतिक भावना लुप्त होती जा रही है। आज की अधिकांश बहनें राखी को धनप्राप्ति का माध्यम समझती हैं। भाई-बहन का पवित्र प्रेम रक्षा बंधन का आधार है। स्वार्थों के कारण पवित्र संबंधों में भी कटुता आ जाती है। हमें अपने स्वार्थों को त्यागकर पवित्र स्नेह भावना के साथ रक्षाबंधन का पर्व मनाना चाहिए। हमें बाहरी दिखावे को त्यागकर सादगी के साथ सांस्कृतिक पवित्रता की रक्षा करते हुए रक्षाबंधन का पर्व मनाना चाहिए, तभी इस पावन पर्व की सार्थकताहै।
7. ईद
त्योहारों का हमारे जीवन में विशेष महत्त्च है। त्योहारों के मनाने से हमारा जीवन नीरस होने से बचा रहता है। प्रकृति ने तो अपनी विविधता का प्रबंध कर ही रखा है. पर समाज ने भी, जीवन में ताजगी बनाए रखने के लिए पर्व एवं त्योहारों का चक्र बना रखा है। इससे सामाजिक जीवन में विशेष चहल-पहल आ जाती है।
हमारे अधिकांश त्योहारों का संबंध धर्म के साथ जुड़ा हुआ है। हिन्दुओं में होली, दीपावली, दशहरा आदि का विशेष महत्त्व है तो ईसाईयों में क्रिसमस का मुख्य स्थान है। मुसलमानों में जो त्योहार मनाए जाते हैं, उनमें ईद सर्वाधिक महत्त्व का त्योहार है। यह त्योहार सभी मुसलमानों को परोपकार एवं भाईचारे का संदेश देता है।
ईद से पूर्व रमजान का महीना होता है। मुसलमान इस पूरे महीने भर रोजे रखते हैं। वे अपना सारा समय ईश्वर आराधना में व्यतीत करते हैं। बुरे कार्यों के प्रति सतर्क रहते हैं। इस मास में वे शरीर और मन पर बड़ा अंकुश रखते हैं। दिन में खाना तो दूर पानी तक पीना वर्जित होता है।
रोजे खत्म होने के बाद ईद आती है। इसे ‘ईद-उल-फितर’ कहते हैं। ‘ईद’ शब्द का अर्थ है – लौटना और ‘फितर’ शब्द का अर्थ है – खाना-पीना। मुसलमान भाई एक मास तक रोजा (व्रत) रखने के बाद ईद के दिन खाना-पीना शुरू करते हैं। ईद के दिन घरों में हर प्रकार से उल्लास मनाया जाता है। इस दिन घर में भाँति-भाँति की मीठी सेवइयाँ पकती हैं और उन्हें लोगों में प्रसन्नतापूर्वक बाँटा जाता है। इसी कारण इस त्योहार को मीठी ईद भी कहते हैं।
ईद के दिन मुसलमान सूरज निकलने के बाद नमाज पढ़ते हैं। वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि उसकी मेहरबानी से वे रमजान का व्रत रखने में सफल हो गए। वे अपने अपराधों के लिए खुदा से क्षमा याचना भी करते हैं। इस दिन वे गरीबों को खूब दान देते हैं। ईद के दिन संसार की मस्जिदों में खूब भीड़ होती है। उस दिन की सामूहिक नमाज का दूश्य देखने योग्य होता है। हजारों लोग पंक्तियों में खड़े होकर और बैठकर नमाज पढ़ते हैं। नमाज के बाद वे एक-दूसरे के गले मिलते हैं। सभी धर्म वाले उन्हें ‘ईद मुबारक’ कहकर गले मिलते हैं। ईद का त्योहार प्रेम और सद्भावना का त्योहार है।
इसे सब धर्मों के लोगों को मिल-जुल कर मनाना चाहिए। इस दिन मुसलमान वर्ष भर का वैर-भाव भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाते हैं। सभी धर्म वाले उन्हें ‘ईद मुबारक’ कहकर गले मिलते हैं। ईंद का त्योहार प्रेम और सद्भावना का त्योहार है। इसे सब धर्मों के लोगों को मिल-जुलकर मनाना चाहिए। इस दिन मुसलमान वर्ष भर का वैर-भाव भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाते हैं। यह त्योहार सभी के लिए प्रसन्नता का संदेश लाता है। बच्चों में विशेष उत्साह देखने को मिलता है।
इस अवसर पर उनके लिए नए कपड़े सिलवाए जाते हैं। ईदगाह के पास मेलों का आयोजन किया जाता है। इस दिन सब अपनी चिंताएँ भूलकर प्रसन्नता के सागर में डूब जाते हैं। हम सब भारतीयों को ईंद का त्योहार आपस में मिल-जुलकर मनाना चाहिए। इससे साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ता है और राष्ट्रीय् एकता की भावना मजबूत होती है।
8. क्रिसमस
क्रिसम का त्योहार सारे विश्व में अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। यह ईसाइयों का प्रमुख त्योहार है। यह प्रति वर्ष 25 दिसंबर को मनाया जाता है। क्रिसमस का त्योहार नव वर्ष तक चलता है।
यह दिन महात्मा ईसा मसीह के जन्म दिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। आज से लगभग 2000 ई.पू. महात्मा ईसा का जन्म बेथलेहम नामक स्थान पर हुआ था। यह स्थान भूमध्य सागर के पश्चिमी तट के निकट फिलिस्तीन में है। तब यहाँ यहूदी लोग रहते थे लेकिन देश रोम साम्राज्य के अधीन था। ईसा के माता-पिता (मेरी-जोसफ) को जनगणना कराने के लिए बेथलेहम जाना पड़ा। वे रात बिताने के लिए एक अस्तबल में ठहरे। उसी रात मेरी ने एक बालक को जन्म दिया। इस बालक का नाम जीसस रखा गया। यही बालक आगे चलकर ईसा मसीह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ईसा मसीह ने लोगों को प्रेम एवं भाई-चारे का संदेश दिया। उन्होंने अपने धर्म की नींव प्रेम और क्षमा पर रखी।
ईसा मसीह के अनुयायी उनका जन्म दिन प्रति वर्ष क्रिसमस के रूप में अत्यंत उल्लासपूर्वक मनाते हैं। कई दिन पहले से गिरजाघरों को सजाना प्रारंभ कर दिया जाता है। बाजारों में खूब चहल-पहल रहती है। लोग अपने प्रियजनों के लिए सुन्दर उपहार खरीदते हैं। इस अवसर पर ‘ग्रीटिंग कार्ड’ भेजने की भी प्रथा है। बच्चों और स्त्री-पुरुषों को नए-नए वस्त्र पहनने का शौक होता है। घरों को भी खूब सजाया जाता है। घर के एक कोने में ‘क्रिसमस ट्री’ बनाया जाता है। एक बूढ़ा व्यक्ति सांताक्लाज बच्चों के लिए मिठाइयाँ एवं उपहार लेकर आता है।
अर्ध रात्रि के समय चर्च की घंटियाँ बज उठती हैं। सभी लोग हर्ष एवं उल्लास से झूम उठते हैं। केक काटकर ईसा मसीह का जन्म दिन मनाया जाता है। चर्च में प्रार्थना की जाती है। बच्चों को खाने के लिए केक और मिठाइयाँ मिलती हैं। उनकी खुशी देखते ही बनती है। यद्यपि यह त्योहार ईसाइयों का है, पर इसे सभी धर्मों के अनुयायी मिल-जुलकर मनाते हैं। इससे एकता की भावना बढ़ती है। इस दिन हमें ईसामसीह के उपदेशों का स्मरण कर उन पर चलने का प्रण करना चाहिए।
वस्तुतः क्रिमस मनाने का मूल उद्देश्य महान संत ईसामसीह का पावन स्मरण है, जो दया, प्रेम, क्षमा और धैर्य के अवतार थे। संसार में ईसामसीह के दिव्य संदेश से हर व्यक्ति को विश्व शांति की प्रेरणा प्राप्त होती है।
9. सिक्ख धर्म के प्रवर्तक : गुरु नानक देव जी
हमारे देश में अनेक धर्मों को मानने वाले मिल-जुलकर रहते हैं। सभी धर्मों के महान् पुरुषों ने जन्म लिया। इन्होंने अपनी अमृतवाणी का पान जन साधारण लोगों को कराया। इन महापुरुषों ने एकता, प्रेम एवं भाई चारे का संदेश जन-जन को दिया। ऐसे ही एक महापुरुष थे – सिक्खों के पहले गुरु नानक देव जी।
गुरु नानक देव का जन्म सन् 1469 ई. में कार्तिक पूर्णिमा को लाहौर से 30 कि.मी. दूर तलवंडी नामक गाँव में हुआ था। इस स्थान को अब ‘ननकाना साहब’ कहते हैं। यह स्थान अब पाकिस्तान में है। इनके पिता कालूचन्द बेदी तलवंडी के राजपूत शासक के कारिंदे थे। बालक की जन्मपत्री देखकर ज्योतिषी ने कहा कि यह बालक बड़ा प्रतापी होगा।
नानक जब सात-आठ वर्ष के थे तभी से साधुओं की तरह बैठने लगे थे। वे अपने पास के रुपए पैसों को दुखियों एवं गरीबों को बाँट दिया करते थे। नानक का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था। नानक कुछ और बड़े हुए। उनके पिता ने उन्हें खेती-बाड़ी में मन लगाने को कहा, पर उनकां मन न तो खेती-बाड़ी में लगा और न किसी अन्य व्यापार में। एक बार पिता द्वारा सौदा खरीदने के लिए दिए गए चालीस रुपयों को उन्होंने साधुओं को भोजन कराने में खर्च कर डाला। पिता के डाँटने-फटकारने का भी उन पर कोई असर न हुआ। पिता ने उनका विवाह कर दिया। उनके दो पुत्र हुए-श्रीचंद और लक्ष्मीचंद। इसके उपरांत भी नानक का मन गृहस्थ जीवन में नहीं रमा।
नानक देव की प्रवृत्ति धर्म की ओर निरन्तर बढ़ती ही चली गई। उन्होंने इसके लिए घर बार छोड़ दिया। पिता ने मरदाना नामक मुसलमान गवैये को उन्हें समझाने भेजा, पर वह स्वयं उनका शिष्य बन गया। धीरे-धीरे वे गुरु नानक देव के नाम से प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने मरदाना के साथ भारत के तीर्थ स्थानों की यात्रा की। चौथी यात्रा में वे देश से बाहर मक्का, मदीना और बगदाद गए। बगदाद के खलीफा ने दीन-दुखियों को सताकर काफी धन एकत्रित कर लिया था। उसे शिक्षा देकर गुरु नानक सही मार्ग पर ले आए। विदा होते समय खलीफा ने उन्हें एक चोंगा भेंट किया, जिस पर कुरान शरीफ की आयतें लिखी हुई थीं। वह चोंगा डेरा बाबा नानक के गुरुद्वारे में अभी तक सुरक्षित है। वह ‘चोला साहब’ के नाम से प्रसिद्ध है।
गुरु नानक देव अपने नाम पर कोई धर्म या संप्रदाय नहीं चलाना चाहते थे। वे परमात्मा में अटल विश्वास रखते थे। उनका कहना था कि ईश्वर एक है। सबको उसी ने बनाया है। हिन्दू-मुसलमान सब एक ही ईश्वर की संतान हैं। ईश्वर के लिए सब बराबर हैं। ईश्वर सत्य स्वरूप है। हमें अच्छे काम करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में लज्जित न होना पड़े।
गुरु नानक देव सिक्ख पंथ के आदि गुरु हैं। उनके पश्चात् नौ गुरु और हुए। दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ में गुरु नानक और अन्य सिक्ख गुरुओं की वाणी का संग्रह कियो। आज चार सौ वर्ष उपरांत भी गुरु नानक की वाणी हमें एकता और प्रेम का संदेश देती है। सभी धर्म के अनुयायी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं।
10. वर्धमान महावीर
जैन धर्म के 24 तीर्थकरों में वर्धमान महावीर का नाम अग्रगण्य है। वे सबसे अंतिम तीर्थकर हैं। उनका जन्म आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व वैशाली नगर के पास कुंदुुरा के राजा सिद्धार्थ के घर हुआ था। छोटी ही आयु में उनकी शिक्षा प्रारंभ हो गई। वर्धमान का विवाह यशोदा नामक राजकुमारी के साथ हुआ।
वर्धमान का प्रारंभिक जीवन साधारण गृहस्थ की तरह व्यतीत हुआ, पर उनकी प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की ओर नहीं थी। वे गृहस्थ को छोड़कर उन्नति के मार्ग पर जाना चाहते थे। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन को त्यागकर भिक्षु बनने का निश्चय किया। उनके परिवार के लोग तीर्थर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के अनुयायी थे, अत: वे जैन भिथ्यु बन गए। उन्होंने बारह वर्ष तक घोर तपस्या की। उन्हें तेरहवें वर्ष में पूर्ण सत्य का ज्ञान हुआ। इसके फलस्वरूप उन्होंने ‘कैवल्प’ पद प्राप्त किया। वे सांसारिक मोह, सुख-दुख आदि से मुक्त हो चुके थे। उन्होंने जैन धर्म के प्रचार का कार्य करना आरंभ कर दिया। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और लोग उनके शिष्य बनने लगे। उनके शिष्य भिक्षु अथवा मुनि कहलाते थे। उनके प्रमुख शिष्य गौतम इंद्रूति थे।
वर्धमान महावीर तीर्थकर परंपरा में चौबीसवें एवं अंतिम तीर्थकर थे। 72 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वर्धमान महावीर राजगृह के समीप पावा नामक नगर में विराजमान थे। अंब यह स्थान जैन धर्म का तीर्थस्थल बन गया है।
वर्धमान महावीर ने अहिंसा को परम धर्म मानकर उसका प्रचार किया। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए अपरिग्रह (धन एकत्रित न करने की भावना), सदाचरण एवं ब्रहमचर्य के पालन पर बल दिया। उनका कहना था कि मन, वचन और कर्म से अहिंसा के व्रत का पालन करना चाहिए। मनुष्य को असत्य भाषण की प्रवृत्ति को त्यागकर सत्य का मार्ग अपनाना चाहिए। यद्याप जैन धर्म में गृहस्थ और भिक्षु दोनों के लिए अलग-अलग नियम हैं, पर गृहस्थ भी जैन धर्म के नियमों का पालन करके भिक्षु जैसा पवित्र जीवन व्यतीत कर सकता है।
जैन धर्म के अनुसार मानव जींचन का उद्देश्य सांसारिक सुख या ऐश्वर्य भोगना मात्र नहीं है, बल्कि मोक्ष प्राप्त करना है। वर्धमान महावीर ने जिस संप्रदाय की स्थापना की, उसे ‘निर्ग्रथ’ के नाम से पुकारा जाता था। इन्हें ‘जैन’ भी कहा जाता था, क्योंकि ये ‘जिन’ के अनुयायी होते थें।
जैन धर्म त्याग, कष्ट-सहिष्युता, प्रेम एवं भाई चारे का संदेश देता है।
11. राष्ट्रपिता : महात्मा गाँधी
महात्मा गांधी उन महान् आत्माओं में से एक हैं जिन्होंने अपने नि:स्वार्थ कार्यों से विश्व में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। गांधी जी का जीवन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। वे भारतीय स्वतन्त्रता के अग्रदूत थे। उन्होंने सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाकर ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया था। उन्हें सारा संसार महात्मा गांधी के नाम से जानता है। भारतवासी श्रद्धा वश उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ और प्यांर से ‘बापू’ कहते हैं।
गांधी जी का जन्म 2 अक्तूबर, 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामंक स्थान पर हुआ। इनके बचपन का नाम मोहन दास था और इनके पिता का नाम कर्मचन्द था। अत: इनका पूरा नाम मोहन दास कर्मचन्द गाँधी था। उनके पिता राजकोट के दीवान थे। भारत में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के उपरांत इन्हें बैरिस्टरी पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। गाँधी जी ने इंग्लैंड में सादा जीवन बिताया। वे विलायत से वकालत की डिग्री लेकर भारत लौटे। इन्होंने मुंबई में प्रैक्टिस शुरू कर दी। वे झूंठे मुकदमें नहीं लेते थे, अतः उनके पास’ कम मुकदमे आते थे। एक बार एक मुकदमे के सिलसिले में इन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ उन्होंने गोरों द्वारा भारतीयों के अमानवीय व्यवहार को स्वय देखा। इससे उनके हृदय को गहरा आघात पहुँचा। यहीं उन्होंने सबसे पहले सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया।
सन् 1915 ई. में गांधी जी भारत लौट आए। उन्होंने भारतीयों को अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित किया। सन् 1919 ई. के. ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’ का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1920 ई. में उन्होंने ‘असहयोग आन्दोलन’ छेड़ दिया। इसी कड़ी में उन्होंने 1930 का प्रसिद्ध ‘नमक सत्याग्रह’ किया। सन् 1942 ई. में गांधी जी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा देकर संघर्ष का बिगुल बजा दिया। गांधी जी को अनेकों बार जेल की यात्रा करनी पड़ी।
अन्ततः 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वतंत्र हो गया। भारत विभाजन के परिणामस्वरूप सांग्रदायिक दंगे भड़क उठे, अतः शांति स्थापित करने के लिए उन्हें अनशन करना पड़ा। 30 जनवरी, 1948 ई. को प्रार्थना सभा में नाथूराम गोड्से ने उन्हें गोली मारकर इस संसार से विदा कर दिया। गांधी जी के मुख से अंतिम शब्द ‘हे राम’ निकले। इस प्रकार वे ऋषियों की परंपरा में जा मिले।
गांधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे सत्य को ईश्वर मानते थे। उनकी अहिंसा दुर्बल व्यक्ति की अहिंसा न थी। उनके पीछे आत्मिक बल था। वे अन्याय और अत्याचार के सामने कभी नहीं झुके। वे साध्य और साधन दोनों की पवित्रता पर बल देते थे। गांधी जी सब मनुष्यों को एक समान मानते थे। धर्म, संप्रदाय, रंग आदि के आधार पर होने वाले भेदभाव को वे कलंक मानते थे। उन्होंने समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। हरिजनोद्धार उनका प्रमुख आंदोलन था। उन्होंने हरिजनों को समाज में प्रतिष्ठा दिलवाई। स्त्री-शिक्षा के वे सबसे बड़े हिमायती थे। उन्होंने बाल-विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि का डटकर विरोध किया। उन्होंने समाज में महिलाओं को बराबरी का दरजा प्रदान किया।
भारतवासियों के हुदयों में गांधी जी के प्रति असीम श्रद्धा भावना है। उनका नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। उनकी मृत्यु पर पं. नेहरू ने कहा था –
“हमारी जिंदगी में जो ज्योति थी, वह बुझ गई और अब चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा है।”
12. वसंत ऋतु
भारत ऋतुओं का देश है। यहाँ वर्षा, शरद, हेमंत, शीत, वसंत और ग्रीष्म छ: ऋतुएं होती हैं। इन सभी ऋतुओं में वसंत ऋतु का सर्वाधिक महत्त्व है, इसीलिए वसंत को ‘ऋतुराज’ कहा जाता है। वसंत ऋतु का आगमन शीत ऋतु के उपरांत होता है। पौराणि क मतानुसार वसंत को कामदेव का पुत्र बताया जाता है। वसंत के आगमन पर प्रकृति अपनी सज-धज के साथ उसका स्वागत करती है। वसंत ऋतु में प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता अपने उत्कर्ष पर होती है।
वसंत का प्रारंभ मधुमास से होता है। वसंत का स्वागत करने के लिए पेड़-पौधे अपने पुराने पत्तों रूपी वस्त्रों को त्यागकर नए पत्ते धारण कर लेते हैं। सभी ओर वन और उपवन नए रूप में दिखाई देने लगते हैं। प्रकृति में सर्वत्र हरीतिमा का साम्राज्य होता है। रंग-बिरंगे फूलों पर भ्रमरों की गुंजार मन मेहक लगती है। रंग-बिरंगी तितलियाँ फूलों पर लहराने लगती हैं। खेतों में सरसों के फूल लहराने लगते हैं। वसंत ऋतु में आम के वृक्षों पर मंजरी आ जाती है, उसकी सुगंध से सभी वन-उपवन महकने लगते हैं। वसंत ऋतु की छटा को देखकर जड़-चेतन सभी के मन में उल्लास छु.जाता है। कवि अपनी नई-नई कल्पनाएँ करते हैं। कवियों ने अपनी कल्पना एवं अनुभूतियों से वसंत की अनेक प्रकार से महिमा गाई है। श्री सर्वेश्वरद्याल सक्सेना ने तो वसंत को महन्त का रूपक दे दिया :
“आए महंत वसंत।
मखमल के झूल पड़े, हाथी-सा टीला,
बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला,
चँवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत।”
कवि भावुक हृदय होते हैं और वसंत ऋतु उनकी प्रसुप्त भावनाओं को जगा देती है।
वसंत ऋतु में वसंत पंचमी को वसंतोत्सव मनाया जाता है। वसंत पंचमी को ही.ज्ञान की देवी सरस्वती का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है। रंगों का पर्व होली भी वसंत ऋतु का मस्ती से भरा पर्व है। इस दिन सभी लोग अपनी भेद-भावना भुलाकर परस्पर होली खेलते हैं और मानवीय एकता का परिचय देते हैं। वसंत ऋतु केवल भारत में ही नहीं संसार में सभी को आनंद देती है। इसलिए वसंत संसार की सबसे प्रिय ऋतु है। इस ऋतु में न अधिक सरदी होती है और न अधिक गरमी होती है। ऐसे समशीतोष्ण समय में प्रकृति सज-धज के साथ अपना सौंदर्य दिखाती है और सभी को अपने सौंदर्य से मोह लेती है।
वसंत ऋतु हमारे जीवन में नई प्रेरणा देती है। मनुष्यों को भी वसंत ऋतु से प्रेरणा लेकर अपने जीवन में आनंद भरना चाहिए और अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। इसी में वसंत ऋतु की सच्ची सार्थकता है।
13. वर्षा ऋतु
भारत में छः ऋतुएँ होती हैं-वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर। वर्षा ऋतु श्रावण और भाद्र (जुलाई-अगस्त) के महीने में रहती है। भारत में इस ऋतु का बहुत महत्त्व है। इसी ऋतु में जल-वृष्टि होती है। इसी वर्षा पर हमारे देश की कृषि निर्भर है। ग्रीष्म ऋतु की तपन के पश्चात् वर्षा का आगमन बड़ा सुखकर प्रतीत होता है।
जून मास में पृथ्वी तवे के समान जलने लगती है। कवि श्रीधर पाठक जेठ मास की गरमी की भीषणता का चित्रण करते हुए लिखते हैं :
‘जेठ के दारुण आतप से, तप के जगती-तल जावै जला’
इसके पश्चात् हम आकाश की ओर देखने लग जाते हैं। सहसा उमड़ते-घुमड़ते मेघों को देखकर हमारा हृदय उल्लास से भर जाता है।
वर्षा-ऋतु का सौंदर्य इतना मनोहारी होता है कि अनेक कवियों ने उत्साह के साथ इसका वर्णन किया है। ‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदास वर्षा का वर्णन इन शब्दों में करते हैं :
वर्षाकाल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए।
दामिनि दमक रही घन माहीं।
खल की प्रीति जथा थिर नाहीं।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र वर्षा-वर्णन इस प्रकार करते हैं :
कूकै लगीं कोइलें कदंबन पै बैठि फेरि,
धोए-धोए पात हिलि-हिलि सरसै लगे।
फेरि झूमि-झूमि बरषा की ॠतु आई फेरि,
बादर निगोरे झुकि-झुकि बरसै लगे।
वर्षा के आरंभ होते ही कृषि-कार्य आरंभ हो जाता है। गाँवों में नया जीवन जाग उठता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। वर्षा न होने पर सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच जाती है। किसान बादलों को पुकारता है-
“ओ धरती के वीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर।”
वर्षा ऋतु में कभी मूसलाधार वृष्टि हुआ करती है। ऐसी स्थिति में चारों ओर जल ही जल दिखाई देता है। नदियाँ, तालाब, झीलें आदि सब जल से उमड़ने लगाते हैं। बच्चे आनंदमग्न होकर जल-क्रीड़ी करते हैं। वर्षा में दादुर शोर मचाते हैं, मयूर नृत्य करते हैं और कोयलें कूकने लगती हैं।
हमारा पूरा जीवन वर्षा पर ही आधारित है। वर्षा ऋतु में हम अनेक त्योहार मनाते हैं। इनमें रक्षाबंधन और जन्माष्टमी प्रमुख हैं। स्वतंत्रता दिवस भी इसी ऋतु में आता है। वर्षा ऋतु का उल्लास ग्रामीण युवतियों के झूला-झूलने, गीत गाने आदि में झलकता है। यह ऋतु हमें जीवन के सौंदर्य और कर्म की प्रेरणा देती है।
14. प्रातःकालीन सैर
रात्रि के अंधकार के उपरांत प्रातःकाल का आगमन आनंद और प्रकाश का सूचक है। दिन भर कार्यों में व्यस्त रहने के बाद हम रात को सुखपूर्वक निद्रा का आनंद लेने के उपरांत जब प्रातःकाल उठते हैं तो निद्रा जागरण में बदल जाती है। यह प्रातःकाल का सौंदर्य रात्रि की काली चादर को समेट कर उसके स्थान पर सूरज की सुनहरी सौंदर्यशाली किरणें बिखेर देता है। सूर्य जब क्षितिज से उदित होता है पूर्व दिशा में लालिमा दिखाई देने लगती है।
लालिमा के बीच लालं रंग का बाल सूर्य उदित होता है तो पक्षियों का कलरव शीतल मंद समीर, फूलों की सुगंध वातावरण को और भी आनंदमय कर देती है। ऐसे आनंदमय वातावरण में हमें शैय्या त्यागकर सैर करने के लिए वन-उपवन में जाना चाहिए। प्रातःकालीन भ्रमण से हमें स्वास्थ्य लाभ के साथ ताजगी एवं स्फूर्ति भी मिलती है।
प्रातःकालीन सैर हमारे लिए अनेक प्रकार से लाभदायक है। रात्रि को विश्राम करने के बाद प्रातः की ताजी हवा का सेवन हमें स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। सुबह की ताजी हवा हमारे फेफड़ों को शक्ति प्रदान करती है तथा मस्तिष्क को भी ताजगी प्रदान करती है। हमारे स्वास्थ्य के लिए भोजन की भांति ही सैर करना और व्यायाम भी अति आवश्यक है। प्रातःकाल की सैर एक सरल, स्वास्थ्यवर्धक व्यायाम है। यह सैर एक हरे-भरे क्षेत्र में करनी चाहिए जहाँ ताजी हवा और हरियाली भी हो। वन-उपवन, खेतों के सुखदायक वातावरण में भ्रमण करने से मानसिक शान्ति मिलती है। हरीतिमा और पुष्पित वातावरण को देखकर हमारी आँखों को असीम सुख मिलता है।
प्रातःकालीन सैर करते समय तेजी के साथ चलना चाहिए। इससे रक्त का संचार होता है। तेजी से चलते समय श्वास नाक से लेना चाहिए। लंबे श्वास लेना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद् है; इससे फेफड़ो को ताकत मिलती है। प्रातःकालीन भ्रमण से अनेक शारीरिक बीम्मारियाँ नष्ट हो जाती हैं। रक्तचाप में यह सैर बड़ी उपयोगी रहती है। चिक्रित्सकों ने भी प्रातःकालीन सैर पर विशेष बल दिया है। प्रातःकालीन भ्रमण से केवल फायदे ही फायदे हैं, कोई नुकसान नहीं है। शारीरिक और मानसिक विकास के लिए प्रातःकालीन सैर अति आवश्यक है।
15. हमारा देश : भारत
‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।’
कवि इकबाल की यह पंक्ति प्रत्येक भारतवासी के मन में गौरव का संचार कर देती है। भारत विश्व का प्राचीनतम देश है। प्राचीन काल में भी यहाँ संस्कृति और सभ्यता सर्वाच्च शिखर पर थी। ज्ञान के स्रोत वेदों का प्रादुर्भाव इसी धरती पर हुआ। अपने ज्ञान एवं सांस्कृतिक उच्चादर्शों के कारण भारत विश्वगुरु की संज्ञा से अभिहित था। दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। अपने आदर्श एवं आध्यात्मिक मूल्यों के कारण भारत की संस्कृति एवं सभ्यता आज भी विद्यमान है।
भारत भौगोलिक दृष्टि से विश्व के उत्तर पूर्वी गोलार्ध में स्थित है। भूमध्य रेखा के समीप स्थित होने के कारण यहाँ समशीतोष्ण जलवायु पाई जाती है। भारत के उत्तर में हिमालय जैसा विशाल पर्वत है तो दक्षिण में हिंद महासागर इसके पद प्रक्षालन करता है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में अरब सागर है। तीन ओर से समुद्र से घिरा होने के कारण यहाँ सम जलवायु पाई जाती है। यहाँ विभिन्न ऋतुएं होने के कारण अनेक धन-धान्य पाए जाते हैं। भारत में लोहा, कोयला, अभ्रक, ताँबा आदि खनिजों के विशाल भंडार हैं। भारत के उत्तर में ठण्डी जलवायु पाई जाती है तो दक्षिण में सम जलवायु पाई जाती है। भारत के पश्चिमी तट पर भारी वर्षां होती है तो राजस्थान वर्षारहित क्षेत्र में सूखा रह जाता है। यहाँ गंगा, यमुना, गोमती, ब्रहमपुत्र, कृष्णा, कावेरी आदि नदियाँ अपना अमृतमय जल देकर भारत को सींचती हैं। अनेक धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा, प्रांतों के लोग यहाँ रहते हैं। इसी विशेषता पर संसार को आश्चर्य है – अनेकता में एकता, भारत की विशेषता।
प्राचीन काल से ही भारत अपने ज्ञान, संस्कृति, व्यापार आदि के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज भी हमने बहुमुखी उन्नंति की है। हमने पृथ्वी, अग्नि, नाग, त्रिशूल आदि के सफल परीक्षण किए हैं और सिद्ध किया है कि वैज्ञानिक प्रगति में हम किसी देश से पीछे नहीं हैं। जहाँ पहले हम छोटी-मोटी चीजें भी विदेशों से मंगाते थे, वहाँ आज हम बड़ी-बड़ी मशीनें निर्यांत करते हैं। भारत राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, मीरा, तुलसी, विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, गांधी जैसे महापुरुषों की भूमि है। हम सभी धमों का सम्मान करते हुए आपस में प्रेंभपूर्वक रहें। देश की अखंडता एवं एकता के लिए यदि आवश्यक हो तो हम अपने प्राणों की बाजी भी लगा दें। यही मेरा और मेरे सपनों का भारत है। यही मेरी मातृभूमि है जिस पर हम अपना सर्वस्व बलिदान कर सकते हैं :
“ऐसी मातृभूमि है मेरी स्वर्गलोक से भी प्यारी, इसके पद कमलों पर मेरा तन, मन, धन सब बलिहारी।”
16. विद्यार्थी और दूरदर्शन
आज का युग विज्ञान का युग है। आधुनिक विज्ञान ने मानव-जीवन को सुखी, समृद्ध एवं आनंप्रद बनाने में बड़ा सहयोग किया है। मनुष्य को आनंद एवं मनोरंजन प्रदान करने वाले साधनों में दूरदर्शन सबसे अधिक लोकप्रिय साधन है। दूरदर्शन श्रव्य-दृश्य घरेलू माध्यम होने के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है। घर बैठे ही हम दूरदर्शन के माध्यम से देश-विदेश की खबरें देख लेते हैं तथा मनोरंजन भी कर लेते हैं। दूरदर्शन आबाल-वृद्ध छात्र आदि का सर्वाधिक लोकप्रिय मनोरंजन साधन है।
दूरदर्शन केवल मनोरंजन या सूचना देने का ही एकमात्र साधन नहीं है अपितु इससे शिक्षा, खेलकूद, विज्ञापन क्षेत्र में भी भारी प्रगति हुई है। दूरदर्शन पर विद्यार्थियों के लिए विभिन्न विषयों के पाठ भी प्रदर्शित किए जाते हैं जिन्हें देखकर करोड़ों छात्र लाभान्वित होते हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयों के प्रयोग दूरदर्शन पर दिखाए जाते हैं। इन कार्यक्रमों को देखकर विद्यार्थियों को तो विशेष लाभ होता है परन्तु सामान्य लोग भी विशेष ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। दूरदर्शन पर अनेक छात्रोपयोगी कार्यक्रम दिखाए जाते हैं जिन्हें छात्र कक्षाओं में नहीं पढ़ सकते। छात्र दूरदर्शन पर ज्ञान को देखकर तथा सुनकर ग्रहण करते हैं, इस प्रकार का ज्ञान स्थायी और प्रभावी होता है। अत: दूरदर्शन विद्यार्थियों को ज्ञान देने का आधुनिक लोकप्रिय साधन है।
दूरदर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है – शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना। यह शिक्षा को प्रयोगात्मक एवं मनोरंजक बना रहा है। शिक्षा के प्रसार के लिए दूदर्शन का विस्तार किया जा रहा है। डिस्कवरी चैनल इस क्षेत्र में सराहनीय प्रयास है। आज विज्ञान, गणित, भूगोल आदि विषयों का अध्यापन दूरदर्शन के माध्यम से किया जा रहा है। बड़े-बड़े शल्य चिकित्सा के आपरेशन दिखाए जाते हैं। अंधविश्वासों को दूर करने में दूरदर्शन ने विशेष भूमिका निभाई है। दूरदर्शन से हमारा एवं विद्यार्थियों का बौद्धिक स्तर उठ रहाँ है।
दूरदर्शन शिक्षा के साथ मनोरंजन भी प्रदान करता है। आजकल दूरदर्शन के अनगिनत चैनल हो गए हैं। विद्यार्थी अब दूरदर्शन का प्रयोग शिक्षा प्राप्त करने के स्थान पर मनोरंजन प्राप्त करने में अधिक कर रहे हैं। वे अपने विद्यालय का समय भी दूरदर्शन पर बिताना चाहते हैं। वे दूरदर्शन के माध्यम से अश्लीलता ग्रहण करते हैं और उन पात्रों की वेशभूषा, हाव-भाव की नकल करते हैं। बच्चे भी देर रात तक दूरदर्शन देखना चाहते हैं। सुबह देर से उठने के कारण स्कूल को देर हो जाती है तथा कक्षाओं में भी ऊँघते रहते हैं। अतः दूरदर्शन विद्यार्थियों को सही दिशा नहीं दे पा रहा। दूरदर्शन को ऐसे निर्माणकारी कार्यक्रम प्रस्तुत करने चाहिए जो आगे आने वाली छात्र पीढ़ी को सही मार्गदर्शन दे सकें। ऐसे कार्यक्रम ही दूरदर्शन की सच्ची सार्थकता सिद्ध कर पाएंगे।
17. प्रदूषण – एक समस्या
प्रकृति एवं मनुष्य का अटूट संबंध है। प्रकृति ने मानव के सुखी समृद्ध जीवन के लिए अनगिनत सुविधाएँ प्रदान की हैं। मनुष्य का सुखी जीवन संतुलित प्राकृतिक पर्यावरण पर निर्भर करता है। मानव की बढ़ती जनसंख्या के कारण प्राकृतिक संतुलन असंतुलित हो रहा है। मनुष्य की बढ़ती हुई आवश्यकताएँ प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रही हैं। पर्यावरण में दूषित तत्त्वों की मात्रा आवश्यकता से बढ़ जाती है और आवश्यक तत्तों की कमी हो जाती है तो पर्यावरण प्राणियों के लिए हानिकारक हो जाता है। अतः पर्यावरण का असंतुलन ही दूसरे अर्थ में प्रदूषण है।
आधुनिक मानव सभ्यता की बढ़ती आवश्यकताओं के कारण प्राकृतिक संतुलन बदल रहा है तथा प्रदूषण बढ़ रहा है। मानव की आवासीय, औद्योगिक नगरीकरण, कृषि उत्पादन बढ़ाने की समस्याओं ने प्रकृति संतुलन को बिगाड़कर प्रदूषण को बढ़ाया है। यातायात साधनों ने भी प्रदूषण बढ़ाने में सहयोग किया है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से वातावरण में ऑक्सीजन की कमी और कार्बन डाइ-आक्साइड की वृद्धि हो गई है। इसी प्रकार कड़ा-करकट इधर-उधर फेंकने से जल, वायु, भूमि प्रदूषण को बढ़ावा मिला। जोर से संगीत सुनने, हॉर्न बजाने से ध्वनि प्रदूषण बढ़ा। इस प्रकार किसी भी प्रकार के प्रदूषण को बढ़ाने में कहीं न कहीं मनुष्य का ही हाथ रहा है। अपने सुखी जीवन के लिए इस प्रदूषण से मुक्ति पानी होगी। नहीं तो आज के प्रदूषित वातावरण में हम अपनी मृत्यु को स्वयं ही निमंत्रण दे रहे हैं। हमें इसका निराकरण अवश्य सोचना चाहिए।
जल सभी प्राणियों एवं पेड़-पौधों के लिए जीवनदायक तत्त्व है। इसमें अनेक कार्बनिक, अकार्बनिक खनिज तत्त्व एवं गैसे घुली होती हैं। ये तत्त्व जब असंतुलित मात्रा में जल में घुल जाते हैं तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है। गंगा जैसी पवित्र नदी भी प्रदूषण मुक्त नहीं है। प्रदूषित जल से हैजा, टाइफाइड, पीलिया, आंत्रशोथ आदि रोगों को बढ़ावा मिलता है। वायुमंडल में भी आवश्यक गैसें एक निश्चित अनुपात में मिश्रित हैं, परन्तु वायुमंडल में यदि ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाए और कार्बन डाइ-आक्साइड, सल्फर डाइ-आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड की मात्रा बढ़ जाए तो वायु प्रदूषण बढ़ने लगता है। पैट्रोल और डीजल का धुआँ वायु प्रदूषण को फैलाता है, अतः इन इंधनों के स्थान पर सी.एन.जी. के प्रयोग को बढ़ाया जा रहा है। भारत में सामान्य परिस्थिति में 33 प्रतिशत वन होने आवश्यक हैं परंतु इनकी प्रतिशतता केवल 19 प्रतिशत है। अतः वायु प्रदूषण की वृद्धि हो रही है। इसी प्रकार ध्वनि एवं भूमि प्रदूषण भी हमारे लिए हानिकारक हैं।
प्रदूषण की वृद्धि के ।ए मुख्य रूप से मानव ही उत्तरदायी है। अतः इसका निराकरण भी उसे ही सोचना होगा। सबसे पहले उसे गंभीर रूप से अपने मानसिक प्रदूषण को हटाना होगा। व्यक्ति किसी भी प्रकार के प्रदूषण की चिन्ता ही नहीं करता। इसलिए गंभीर होकर हमें यातायात के प्रदूषण को रोकना होगा, वृक्षारोपण बढ़ाकर वन संवर्द्धन करना होगा, ऊँची आवाज वाले वाहनों पर रोक लगानी होगी, पेयजल को शुद्ध करना होगा, रासायनिक विस्फोट को रोकना होगा तथा अन्य उपाय करके मानव जीवन को प्रदूषण मुक्त बनाना होगा तभी मानव जीवन सुखमय हो सकता है।
18. मेरा प्रिय अध्यापक
हमारे विद्यालय में लगभग साठ अध्यापक/अध्यापिकाएं हैं। इनमें अधिकांश उच्च शिक्षित हैं। वे हमें अत्यंत परिश्रमपूर्वक पढ़ाते हैं। इन सबमें हमारे कक्षा अध्यापक श्री रामलाल वर्मा मेरे प्रिय अध्यापक हैं। वे हमें हिंदी पढ़ाते हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम.ए. (हिंदी) की उपाधि प्राप्त की है। इसके पश्चात् उन्होंने बी.एड. की ट्रेनिंग लेकर आज से लगभग दस वर्ष पूर्व शिक्षण व्यवसाय को अपनाया है। तभी से वे निरंतर प्रगति करते चले आ रहे हैं।
मेरे प्रिय अध्यापक श्री वर्मा जी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ में विश्वास रखते हैं। वे सदैव खादी के वस्त्र पहनते हैं और पूर्णत: शाकाहारी हैं। उनके विचार बहुत उच्च हैं। वे मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाने के पक्षपाती हैं। जाति-पाँति से उन्हें सख्त घुण है। वे सभी को एक समान मानते हैं और उनसे प्रेममय व्यवहार करते हैं। उन्होंने दर्शनशास्त्र का भी गहन अध्ययन कर रखा है। वे हमें महान् दार्शनिकों के विचारों से अवगत कराते रहते हैं। उनकी बाते हम बहुत ध्यानपूर्वक सुनते हैं।
मेरे प्रिय अध्यापक श्री वर्मा जी बहुत ही अनुशासन प्रिय हैं। उन्हें अनुशासनहीनता से सखत्त नफरत है। वे किसी भी कीमत पर विद्यालय में इच्छृंखता सहन नहीं कर सकते हैं। उन्हें समय की पाबंदी बहुत प्रिय है। विलंब से आने वाले छात्रों को वे दडिित करने से भी नहीं चूकते। उनके इन प्रयासों के सुखद परिणाम सभी के सामने आ रहे हैं। वे कभी सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में नहीं पड़ते।
श्री वर्मा जी अपने विषय के प्रकांड विद्वान हैं। हिंदी साहित्य पर उनका असाधारण अधिकार है। वे कविताओं को पूरे संदर्भ सहित समझाते हैं। उन्हें अनेक प्रासंगिक कथाएं स्मरण हैं। प्रसंगानुकूल वे उन्हें सुनाकर पाठ को रोचक बना देते हैं। कविता को पूरी लय के साथ गाकर पढ़ते हैं। उनके काव्य पाठ के दौरान विद्यार्थी झूम उठते हैं। उनके पढ़ने के ढंग से ही कविता का मूल भाव स्पष्ट हो जाता है। गद्य-पाठ को भी वे बहुत प्रभावशाली ढंग से समझाते हैं।
मेरे प्रिय अध्यापक हमारी दैनिक समस्याओं को सुलझाने में अत्यंत रुचि लेते हैं। हम उन्हें सच्चा मार्गदर्शक मानते हैं। वे हमारे साथ स्नेहमय एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं। सभी विद्यार्थी उन्हें अपना समझते हैं। वे विद्यार्थियों में अत्यंत लोकप्रिय हैं।
मेरे इन अध्यापक के प्रयासों का ही यह सुखद परिणाम है कि प्रति वर्ष हिन्दी विषय का परीक्षा-परिणाम शत-प्रतिशत रहता है। चार-पाँच विद्यार्थी विशेष योग्यता भी प्राप्त करते हैं। उन्हीं के प्रयासों से हमारा विद्यालय सांस्कृतिक गतिविधियों में भी अग्रणी रहता है।
श्री वर्मा जी को अपने सहयोगियों एवं प्रधानाचार्य का विश्वास प्राप्त है। उन्हें विद्यालय की सांस्कृतिक गतिविधियों की जि. म्मेदारी सौंपी गई है जिसे वे अत्यन्त कुशलतापूर्वक निभाते हैं। वे बहुत अनुशासनप्रिय हैं। उनके ऊपर विद्यालय को गर्व है। इन सब गुणों के कारण ही वे मेरे प्रिय अध्यापक बन गए हैं।
19. परोपकार
भारतीय संस्कृति में सदैव से ‘बहुजन हिताय’ को महत्त्व दिया जाता रहा है। ‘परोपकार’ शब्द की रचना भी ‘पर+उपकार’ से हुई है अर्थात् दूसरों की भलाई करना। परोपकार में स्वार्थ का अंश नहीं रहता। दूसरों की निःस्वार्थ सेवा ही परोपकार की श्रेणी में आती है। जिस कार्य में स्वार्थ छिपा हो, उसे परोपकार नहीं कहा जा सकता।
प्रकृति में भी परोपकार की भावना दृष्टिगोचर होती है। भर्तृहरि ने लिखा है :
“पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः
स्वयं, न खादन्ति फलानि वृक्षा:।
नादर्ति शस्यं खलु वारि वाहा:
परोपकाराय सतां विभूतय:।”
अर्थात् नदियाँ अपना जल कभी नहीं पीतीं, यद्यपि अनंत जलराशि समेट वे अनवरत रूप से प्रवाहित होती हैं। वृक्ष अपने फल नहीं खाते। आँधी और तूफान सहकर भी वे दूसरों को आश्रय देते हैं। बादल युग युगांतर से जल लाकर पृथ्वी के आंचल को सिंचित करते हैं, परन्तु प्रतिदान में कुछ भी नहीं माँगते। प्रकृति परहित के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करती रहती है। तुलसीदास जी ने भी कहा है –
“तुलसी संत सुअंब तरु, फूलहिं फलहिं पर हेत,
इतते वे पाहन हनै उतते वे फल देत।”
हमारे इतिहास में परोपकार के अनेक दृष्टांत उपलब्ध होते हैं। ऋषि दधीचि ने तो परोपकार के लिए अपनी अस्थियाँ तक दान में दे दी थीं। महाराज शिवि ने अपना माँस तक दान में दे डाला था। संतों का जीवन तो परोपकार के लिए ही होता है। रहीमदास जी ने लिखा है –
“वृच्छ कबहु नहीं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर।”
परोपकार पुण्य है तथा दूसरों को कष्ट देना पाप है।
परोपकार मानव का सबसे श्रेष्ठ धर्म है। मनुष्य समस्त जीवन अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु प्रयत्नशील रहता है, परन्तु सच्चा मानव वही होता है जो ‘स्व’ की संकुचित परिधि को लांघकर ‘पर’ के लिए जीता तथा मरता है। तुलसीदास जी ने धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा है –
“परहित सरिस धरम नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अध माई।”
इन सब उदाहरणों से सिद्ध होता है कि परहित से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कोई कार्य नहीं है। हमें अपने जीवन में परोपकार की भावना को अपनाना चाहिए। इससे हमें संतोष एवं सुख मिलता है।
20. परिश्रम का महत्त्व
संसार में सफलता प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण साधन श्रम है। श्रम करके हम जीवन की ऊँची से-ऊँची आकांक्षा को पूरी कर सकते हैं। परिश्रम से सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। यह संसार कर्मक्षेत्र है, अतः कर्म करना ही हम सबका धर्म है। किसी भी कार्य में हमें सफलता तभी प्राप्त होती है, जब हम परिश्रम करते हैं।
श्रम ही जीवन को गति प्रदान करता है। यदि हम श्रम की उपेक्षा करते हैं, तो हमारे जीवन की गति ही रुक जाती है। अकर्मण्यता निराशा को जन्म देती है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति भाग्यवादी नहीं होते। कर्मवीर की विशेषताएं बताते हुए हरिऔध जी ने लिखा है-
“देखकर बाधा विविध बहुविघ्न घबराते नहीं,
रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं ।”
श्रम करने वाला व्यक्ति पुरुषार्थ करने में विश्वास रखता है। ऐसा व्यक्ति इस बात को भली-भांति जानता है कि केवल इच्छा मात्र से सफलता नहीं मिल सकती। संस्कृत में कहा भी गया है –
“उद्यमे न ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनारथैः
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।”
संसार में प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष करके अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ता है। कवि जगदीश गुप्त ने लिखा भी है-
“सच है महज संघर्ष ही ।
संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए, हम या कि तुम,’
जो नत हुआ वह मृत हुआ, ज्यों वृंत से झरकर कुसुम।”
परिश्रम करने से मनुष्य को सबसे बड़ा लाभ यह है, उसे आत्मिक शांति प्राप्त होती है, उसका हुय पवित्र होता है, उसके संकल्पों में दिव्यता आती है, उसे,सच्चे ईश्वर की प्राप्ति होती है। जीवन की उन्नति के लिए मनुष्य क्या काम नहीं करता, यहां तक कि बुरे से बुरे काम को भी तैयार हो जाता है, परंतु यदि वह सफलता रूपी ताले की कुंजी परिश्रम को अपने हाथ में ले ले तो सफलता उस मनस्वी के चरणों को चूमने लगती है। वह उत्तरोत्तर उन्नति और समृद्धि के शिखर पर चढ़ता हुआ जाता है। भारतवर्ष की दासता और पतन का भी कारण यही था कि यहाँ के निवासी अकर्मण्य हो गए थे, परिश्रम करना उन्होंने भुला दिया था। यदि आज भी हम अकर्मण्य और आलसी बने रहे, तो प्राप्त की हुई स्वतंत्रता फिर खो देंगे। आज कठिन साधना की जरूरत है।
परिश्रम से मनुष्य को यश और धन दोनों ही प्राप्त होते हैं। परिश्रम से मनुष्य धनोपार्जन भी करता है। जहां तक यश का संबंध है, वह परिश्रमी व्यक्ति को जीवित रहते हुए भी मिलता है और मृत्यु से अनंतर भी। जीवित रहते हुए समाज में व्यक्ति उसका मान करते हैं, उसकी कीर्ति उसकी जाति और नगर में गाई जाती है। मृत्यु के पश्चात् वह एक आदर्श छोड़ जाता है, जिस पर चलकर भावी सन्तति अपना पथ प्रशस्त करती है।
लोग उसकी यशोगाथा से अपना और अपने बच्चे का मार्ग निर्धारण करते हैं। महामना मालवीय, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महाकवि कालिदास, छत्रपति शिवाजी आदि महापुरुषों का गुणगान करके हम भी अपना मार्ग निश्चित करते हैं। इतिहास साक्षी है कि इन लोगों ने अंपने जीवन में कितना श्रम किया और कितने संघर्ष किए, जिसके फलस्वरूप उन्नति के शिखर पर पहुँचे।
परिश्रम के अभाव में व्यक्ति का जीवन निरर्थक है। परिश्रम, मानव की उन्नति का सोपान है। परिश्रम के द्वारा ही व्यक्ति अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता है। अतः परिश्रम ही जीवन का सार एवं आभूषण है। अतः व्यक्ति को आलस्य त्यागकर कठोर परिश्रम को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाना चाहिए।
21. समय का सदुपयोग
तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में कहा है – “का बरसा जब कृषि सुखाने, समय चूकि पुनि का पछिताने॥” अर्थात् कषि की फसल के सूख जाने पर वर्षा व्यर्थ है और समय के व्यतीत हो जाने पर प्रायश्चित करने का कोई लाभ नहीं। कहा गया है – ‘अब पछताए क्या होत है, जब चिड़ियां चुग गईं खेत।’ समय बीत जाने पर पुन: लौटकर नहीं आता, अतः बाद में किया प्रायश्चित व्यर्थ ही रहता है। हमें समय के महत्त्व और उपयोगिता को समझ कर समय का सदुपयोग करना चाहिए।
समय सबसे अमूल्य धन है। समय रूपी धन का सोच-समझ कर उपयोग करना चाहिए। इसका सही उपयोग करने से मानव का भविष्य उन्नत होता है। कहते हैं कि बीता हुआ समय लौटकर वापस नहीं आता! यह जानकर व्यर्थ में समय नहीं गँवाना चाहिए। धीरे-धीरे करके समय यों ही बीतता रहता है, उसके बीतने का पता ही नहीं चलता। एक-एक पल करके वर्षों बीत जाते हैं। हमारे जीवन की कोई निश्चित अवधि नहीं है। अतः जीवन को क्षणभंगुर कहा गया है। श्री हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने भी जीवन की क्षणभंगुरता का संकेत किया है –
“प्याला है पर पी पाएंगे, है इतना ज्ञात नहीं हमको।
इस पार नियति ने भेजा है असमर्थ बना इतना हमको।”
इस प्रकार संक्षिप्त और क्षणभंगुर जीवन के महत्त्व को समझ कर हमें समय का महत्त्व भी समझना चाहिए।
समय का सदुपयोग वस्तुतः मानव मात्र के लिए आवश्यक है परन्तु छात्र-जीवन में इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। छात्र अपने अध्ययन काल में समय की उपेक्षा करेगा तो वह उज्ज्वल जीवन का निर्माण नहीं कर सकेगा। समय का सदुपयोग सफलता का प्रथम सोपान है। परीक्षा के दिनों में एक-एक क्षण का समय कीमती होता है। इन दिनों समय का सदुपयोग करने वाला छात्र सर्वोच्च सफलता प्राप्त करता है। यदि जीवन के किसी भी क्षेत्र में समय की उपेक्षा की जाए तो हम हर क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं।
समय का सही उपयोग हमारी विवेकशक्ति का परिचायक है। एक बुद्धिमान एवं विवेकी व्यक्ति ही समय का सदुपयोग कर पाता है अन्य तो व्यर्थ के कार्यों में समय बरबाद करते रहते हैं –
“काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च तु मूखर्णाणम् निद्रया कलहेन वा।”
इसलिए माता-पिता, शिक्षक आदि का कर्तव्य है कि घर या विद्यालय में बच्चों को प्रारंभ से ही समय का सदुपयोग समझाएं। उन्हें आलसी न बनने दें। छात्रों की नियमितता पर ध्यान दिया जाए। यदि छात्र जीवन से ही समय का सदुपयोग करने की आदत पड़ जाएगी तो उन्हें कभी भी जीवन में पछताना नहीं पड़ेगा। अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समय का सदुपयोग करे।
22. दिल्ली मेट्रो
दिल्ली की यातायात व्यवस्था में क्रांति लाने का श्रेय मेट्रो रेल सेवा को है। 24 दिसंबर, 2002 को दिल्ली वासियों के सुखद स्वप्न साकार होना प्रारंभ किया। इसी दिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने दिल्ली की पहली मेट्रो ट्रेन को हरी झंडी दिखाकर इस बहुप्रतीक्षित परियोजना का आरंभ किया। यह मेट्रो ट्रेन शाहदरा से चलकर तीसहजारी, शास्त्री नगर, इंद्रलोक, रोहिणी होती हुई रिठाला तक यह सेवा प्रदान कर रही है।
इस भूमिगत ट्रेन की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
वातानुकूलित स्टेशन
कंप्यूटर नियंत्रित हवा आने-जाने की प्रणालियाँ
अप और डाउन मेट्रो ट्रेन के लिए अलग-अलग सुरंग है लेकिन कुछ दूरी पर दोनों सुरंगों के आरपार जाने के लिए पर्याप्त रास्ता है।
इमरजेंसी में भीड़ को कैसे बाहर निकाला जाएगा?
स्टेशन के दाखिल होने और निकले के लिए पर्याप्त दरवाजे और चौड़ी सीढ़ियां हैं। यह व्यवस्था इस तरह से की गई है कि इमरजेंसी में महज 6 मिनट के भीतर स्टेशन से सभी यात्रियों को बाहर निकाला जा सकता है।
यदि सुरंग में आग लग जाए ?
आग की स्थिति से निपटने के लिए सुरंग में ही एक बड़ी पाइपलाइन बिछाई गई है, जिसमें प्रेशर से हर वक्त पानी मौजूद रहेगा। उसी से पानी डालकर आग बुझाई जा सकती है। इसी तरह वेंटिलेशन के लिए हेवी फैन लगाए गए हैं, जो रिवर्स हो सकते हैं। यानी यदि आग से धुआं निकलता है तो ऐसे में जिस तरफ यात्री हों उसके दूसरी ओर धुआं फेंकने के लिए वेंटिलेटर चालू हो जाएंगे ताकि धुंए से यात्रियों का दम न घुटे।
यदि अचानक बिजली चली जाए ?
मेट्रो ट्रेन और इसके स्टेशनों की बिजली सप्लाई के लिए लाइन को बिजलीघरों से तो जोड़ा ही गया है। इनमें नॉर्दन ग्रिड़, आईपी गैस टरबाइन आदि से बिजली की व्यवस्था है। इसके अलावा इमरजेंसी में जेनरेटरों की भी व्यवस्था है।
क्या सुरंग के अंदर चलने वाली मेट्रों ट्रोन में सफर करते समय मोबाइल काम करेंगे ?
मेट्रो स्टेशनों और ट्रेन के अंदर भी वैसे ही मोबाइल काम करेंगे, जैसे सड़को पर काम करते हैं। इसके लिए सुरंगों के अंदर विशेष तौर पर केबल बिछाया गया है।
यदि किसी मुसाफिर को डीयू या पुराना सचिवालय जाना हो तो क्या उसे अलग-अलग टिकट खरीदना होगा?
नहीं, ऐसा होने पर यात्री कॉमन टिकट ले सकता है। यह सस्ता भी पड़ेगा। यह टोकन लेकर यात्री कश्मीरी गेट स्टेशन पर पहली ट्रेन से उतरेगा और उसके बाद स्टेशन से बाहर गए बिना ही अंदर से अंडरग्राउंड स्टेशन पर पहुंच जाएगा। जहां से वह सिविल लाइंस, पुराना सचिवालय या डीयू तक के लिए ट्रेन पकड़ सकता है।
कुछ महंगा होने के बावजूद मेट्रो में सफर करना कामकाजी महिलाओं व कॉलेज गर्ल्स की पहली पसंद है। इसमें उन्हें सुरक्षा मिलती है। इसमें धक्का मुक्की और छेड़छाड़ की घटनाओं से मुक्ति मिलती है। दो-तीन साल के दौरान इक्का-दुक्का घटनाएँ ही सुनने में आई हैं। इसमें सुरक्षा के लिए अंडरग्राउंड स्टेशन में करीब 30 कैमरे लगे हैं, जिनका सीधा संपर्क सेंट्र कंट्रोल रूम से है। इसके अलावा दिल्ली पुलिस व निजी सुरक्षा गार्ड जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएँ भी हैं, मेट्रो के अंदर-बाहर तैनात है। मेट्रो के अंदर अगर किसी महिला के साथ हरकत होती है तो पैसेंजर अलार्म बटन दबाने पर, वह महिला ड्राइवर से सीधे बात कर सकती है। ड्राइवर दरवाजे लॉक करके पुलिस को भेज सकता है।
मेट्रो रेल में नागरिकों के लिए कुछ जरूरी निर्देश
क्या करें : H लाइन में खड़े हों। H 15 किलो से ज्यादा सामान लेकर न चढ़ें। H कड़ेदान में ही कूड़ा डालें। H एस्केलेटर के बायीं ओर ही खड़े हों और चलते समय दायीं ओर रहें। H विकलांगों की सहायता करें। H ट्रेन प्लेटफार्म पर केवल 30 सेकंड के लिए ही रुकेगी। H पूछने पर अपना टिकट दिखाएँ। H सहयात्रियों का सहयोग करें। H शराब पीकर यात्रा न करें। H अपनी वस्तुओं का ख्याल रखें। H असुविधा होने पर मेट्रो पुलिस अधिकारियों को सूचित करें। H महिला पुलिस अधिकारियों को आवश्यकता पड़ने पर सूचित करें।
क्या न करें : H स्टेशन परिसर में खाने की वस्तुएं न लाएँ। H पालतू जानवरों को स्टेशन में न लाएँ। धूम्रपान न करें। H बगैर स्मार्ट कार्ड या टोकन के यात्रा न करें। अपने कार्ड को किसी अन्य व्यक्ति के साथ न बांटें। H प्लेटफार्म पर पीली लकीर को ना फांदें। H रेल की पटरियों पर न चलें। H मेट्रो रेल की छत पर सवारी न करें। H मेट्रो रेल के दरवाजों को खोलने के लिए जबरदस्ती न करें। H स्टेशन या ट्रेन पर पोस्टर न लगाएं। H अंधे लोगों के लिए बनाए गए रास्ते पर न चलें। H अपंगों के लिए बनाई गई लिफ्ट का प्रयोग न करें।
दिल्ली मेट्रो सभी प्रकार की सुविधाओं से सम्पन्न है। यह मेट्रो विश्व की एक आधुनिक सेवा है और यह हमें सिंगापुर और हाँगकाँग तुल्य सुविधाओं का एहसास कराती है। यह समस्त प्रणाली स्वचालित है। यात्रियों की सुविधा के मद्देनजर सभी भूमिगत स्टेशनों पर उचित वातानुकूलन व सुरंगों में जरूरी वेंटीलेशन किया गया है। सभी स्टेशनों को आधुनिक सुविधाओं से लैस किया गया है। ट्रेनों के आवागमन की जानकारी के लिए घड़ियाँ सार्वजनिक उद्घोषणा प्रणाली तथा स.सी.टी.वी. की व्यवस्था की गई है। स्टेशनों पर ऑप्टिकल फाइबर लाइन द्वारा दूरसंचार प्रणाली का प्रबंध किया गया है। इन केबलों में ध्वनि व डाटा प्रेषण की क्षमता है। विभिन्न काउंटरों पर यात्रियों के लिए स्मार्ट कार्ड उपलझ्ष रहेंगे। प्रवेश व निकास के लिए माइक्रोप्रोसेसर नियंत्रित स्वचालित दरवाजे बनाए गए हैं।
व्यस्ततम समय में प्रति तीन मिनट के अंतराल पर ट्रेनों को चलाए जाने के लिए अपनी तरह की अनोखी सतत स्वचालित ट्रेन सिग्नलिंग प्रणाली की व्यवस्था की गई है। इस प्रणाली के प्रयोग से मेट्रो कॉरीडोर में प्रति दो मिनट के अंतराल पर ट्रेनें चलाई जा सकती हैं। मेट्रो कॉरीडोर में एक दिशा में प्रति घंटे 60,000 यात्रियों की वहन-क्षमता है। विशेष सुरक्षा प्रबंधों में ड्रेस गार्ड, फ्लोर प्लेट, हैंड रेल स्पीड डिटेक्शन डिवाइस तथा स्टेप मिसिंग डिवाइस शामिल हैं। ये इंतजाम यात्रियों की सुरक्षा व सुविधाजनक आवागमन के लिए हैं। विकलांग लोगों की सुविधा व सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्नत तकनीक युक्त कुल 48 ऐलीवेटरों (लिफ्ट) का प्रबंध किया गया है।
23. सत्संगति
सत्संगति अच्छी संगति को कहते हैं। दूसरे शब्दों में सत्संगति उन अच्छे और सदाचरण वाले मनुष्यों के अच्छे साथ को कहते हैं, जिनके संग हम उठते-बैठते हैं, और बातचीत करते हैं। सत्संग का मनुष्य के जीवन पर गहरा असर पड़ता है। तभी तो कबीर ने कहा है-
“कबिरा संगति साधु की वेगि कीजिए जाइ।
दुरमति दूरि गंवाइसी, देगी सुमति बताइ ॥”
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी, है। वह अकेला नहीं रह सकता। बचपन से ही मनुष्य को एक-दूसरे के साथ मिलने-बैठने और बातचीत करने की इच्छा उत्पन्न’ हो जाती है। इसी को संगति कहा जाता है। बचपन में बालक अबोध होता है। उसे अच्छे-बुरे की पहचान नहीं होती। जब वह एक-दूसरे के सम्पर्क में आता है तब उसके मन की कोरी स्लेट पर दूसरों का प्रभाव अंकित हो जाता है। वह दूसरों की संगति में उनके कार्यों का अनुकरण करता है। यदि वह अच्छी संगति में रहता है तो उस पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं और यदि उसकी संगति बुरी है तो उसकी आदतें भी बुरी हो जाती हैं।
जहाँ सत्संगति है वहीं स्वर्ग है। दुष्ट आत्माओं के निवास को तो नरक ही कहा जाएगा, चाहे वह स्वर्ग में ही क्यों न हो। संस्कृत के इस श्लोक में भी यही भाव व्यक्त हुआ है-
“सत्संग: परम तीर्थ सत्संग: परमं पदम्।
तस्मात्सर्व परित्यज्यसत्संग सतत कुरु”
अर्थात् सत्संग ही परमतीर्थ है। सत्संग ही परमपद अर्थात् मुक्ति है, अंतः सब कुछ छोड़कर सत्संग का ही सेवन करो।
मनुष्य, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, संगति से ही पहचाना जाता है। संगति की छाप उसके आचरण पर पड़ती, है। एक अच्छा लड़का भी कुसंगति में पड़कर चोर और जेबकतरा बन सकता है। आजकल नशे की लत कुसंगति का ही परिणाम है। जन्म से कोई भी व्यक्ति न अच्छा होता है, न बुरा। व्यक्ति अभ्यास से ही इसे सीखता है।
रहीम ने कहा भी है-
“यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।
बैर, प्रीति, अभ्यास जैसे होत-होत ही होय”
इसी प्रकार कबीर ने भी कहा है-
“कबिरा संगति साधु की, ज्यों गंधी की बास ।
जो कछु गंधी दे नहीं, तो भी बास सुबास ।”
यहाँ साधु से तात्पर्य भले व्यक्ति से है। बड़े-बड़े साधु-संत भी परस्पर सत्संग किया करते हैं। अच्छे मनुष्य कभी भी. दूसरों का अहित नहीं किया करते। वे जब भी कोई कार्य करते हैं, दूसरों के हित के लिए ही करते हैं। यही कारण है कि अच्छे मनुष्यों के साथ रहने पर सुख और यश मिलता है। सत्संग के द्वारा अपने अन्दर भी गुण अंकुरित एवं पल्लवित होते हैं। इसके विपरीत बुरे मनुष्यों की संगति में रहने से सुख तो मिलता ही नहीं, बल्कि जो प्राप्त है वह भी छिन जाता है।
सत्संगति का महत्व सर्वविदित है। सत्संगति मन पर अच्छे संस्कार डालती है। इसमें व्यक्ति को आत्मिक शांति प्राप्त होती है। सत्संगति व्यक्ति को अच्छे कार्य करने को प्रेरित करती है। हमें सदैव सत्संगति में रहने का प्रयास क्रना चाहिए।
24. कंप्यूटर : आज की जरूरत अथवा
कंप्यूटर : विज्ञान का अद्भुत वरवान
इक्कीसवीं सदी कंप्यूटर की है। इसका विकास बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हो गया था, लेकिन इसके प्रयोग की नई-नई दिशाएँ इक्कीसवीं सदी में खुलती जा रही हैं। वर्तमान युग को ‘कंप्यूटर युग’ कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
कंप्यूटर विज्ञान का अत्यधिक विकसित बुद्धिमान यंत्र है। इसके पास ऐसा मशीनी मस्तिष्क है जो लाखों, करोड़ों गणनाएँ पलक झपकते ही कर देता है। पहले इन गणनाओं को करने के लिए सैकड़ों-हजारों मुनीम, लेखपाल दिन-रात परिश्रम करते रहते थे, फिर भी गलतियाँ हो जाती थीं। अब यह यंत्र सेकेंड में बटन दबाते ही निर्दोष गणना प्रस्तुत कर देता है। बैंक का पूरा खाता बटन दबाते ही परदे पर आ जाता है। दूसरा बटन दबाते ही खाते या बिल की प्रति टाइप होकर आपके हाथों में पहुँच जाती है। कार्यालय का सारा रिकार्ड क्षण भर में सामने आ जाता है। अब न रजिस्टर दूँढ़ने की आवश्यकता रह गई है और न पन्ना खोलकर एंट्री करने की। सारा काम साफ-सुथरे अक्षरों में मिनटों में हो जाता है।
आप रेलवे बुकिंग केन्द्र पर जाएँ। पहले वहाँ लंबी-लंबी लाइनें लगती थीं। सुबह से शाम हो जाती थी सीट आरक्षित कराने में। अब कंप्यूटर की कृष्या से यह काम मिनटों में हो जाता है। आप कंप्यूटर की सहायता से देश की किसी भी कंप्यूटर खिड़की से कहीं का भी टिकट खरीद सकते हैं तथा अग्रिम सीट आरक्षित करा सकते हैं। इंटरनेट की सहायता से पूरे रेलवे केंद्र आपस में जुड़ गए हैं। इसी प्रकार हवाई जहाज की सीटें बुक कराई जा सकती हैं।
मुव्रण के क्षेत्र में कंप्यूटर की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है। पहले एक-एक अक्षर को जोड़कर सारी सामग्री कंपोज़ की जाती थी। गलती होने पर साँचा खोलना पड़ता था। अब इस सारे झंझट से मुक्ति कंप्यूटर ने दिला दी है। अब तो एक बटन दबाते ही अक्षरों को मनचाहे आकार एवं रूप में ढाला जा सकता है। कभी भी मोटाई घटाई-बढ़ाई जा सकती है। अब चित्र भी कंप्यूटर की सहायता से बनाए जा’सकते हैं। अब पुस्तक प्रकाशन इतना कलात्मक एवं विविधतापपूर्ण हो गया है कि पुरानी मशीनें तो अब बाबा आदम के जमाने की लगती हैं। कंप्यूटर द्वारा प्रकाशित पुस्तकें आकर्षक होती हैं।
संचार के क्षेत्र में कप्यूटर ने क्रांति ही उपस्थित कर दी है। फैक्स, पेजिंग, मोबाइल के बाद इंटरेट, चैट, सर्फिंग आदि ने मानो सारे संसार को आपके कमरे में कैद कर दिया हो। सूचना तकनीक का विकास दिन-प्रतिदिन नए रूप में हो रहा है। ‘ई-मेल’ सेवा भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। आप अपने कंप्यूटर पर विश्व भर की किसी संस्था अथवा उत्पाद की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। आप विश्व के किसी भी कोने के समाचार-पत्र और पुस्तक पढ़ सकते हैं। अपनी लिखित सामग्री कहीं भी भेजी जा सकती है।
रक्षा के उन्नत उपकरणों में कंप्यूटर प्रणाली अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई। भारत ने कंप्यूटर की सहायता से ही अपनी परमाण क्षमता का विकास किया है। कंप्यूटर की सहायता से हजारों कि.मी. दूर शन्तु पर वार किया जा सकता है। संवेदनशील राडार हो अथवा कृत्रिम उपग्रह सभी में कंप्यूटर प्रणाली की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कंप्यूटर ने घरेलू उपकरणों में स्वचालित प्रणाली विकसित कर दी है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी कंप्यूटर की सेवाएँ बहुत उपयोगी हैं। इसकी संहायता से बीमारी की जाँच और रोगी का रिकॉर्ड रखने में सहायता मिलती है। आप अपने रोग के बारे में विदेशी डॉक्टर से परामर्श ले सकते हैं। यह सब काम कंप्यूटर कर देता है।
कंप्यूटर मनोरंजन के क्षेत्र में भी बच्चों को लुभा रहा है। इस पर तरह-तरह के खेल खेले जा सकते हैं।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि कंप्यूटर वर्तमान युग की आवश्यकता बन गया है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत ने बहुत प्रगति की है। कंप्यूटर धन एवं समय की बचत कराने में बेजोड़ है।
25. समाचार पत्रों की उपयोगिता
व्यक्ति और समाज का पारस्परिक अन्योन्याश्रित संबंध है। व्यक्ति ही समाज का निर्माण करता है तथा समाज की गतिविधियों को जानने के लिए उत्मुक रहता है। आज का समाज आधुुनिक युग के साथ परिवर्तित हो रहा है। साथ ही विश्व स्तरीय समाज थी इस परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार कर रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने देश और विदेश के सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन से परिचित होना चाहता है। इस सामाजिक परिवर्तन की विस्तृत जानकारी प्रदान करने वाला सस्ता, सुलभ, सरल साधन है समाचार-पत्र।
समाचार-पत्र को शिक्षित जनों के प्रातराश की संज्ञा दी गई है। आज का शिक्षित मनुष्य प्रात: उठकर चाय पीने से पहले समाचार पत्र पढ़ना चाहता है। जब उसे उठते ही तत्कालीन घटनाओं तथा समाचारों की जानकारी हो जाती है तो उसकी संतुष्टि हो जाती है। मनुष्य देश-विदेश की घटनाओं की जानकारी चाहता है तथा अपने आस-पास के वातावरण की भी उपेक्षा नहीं कर सकता। दैनिक समाचार-पत्र उस की इस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। आज के विभिन्न संचार माध्यमों के युग में भी समाचार-पत्रों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। रेडियो, दूरदर्शन जैसे सशक्त साधनों के होते हुए भी समाचार-पत्र आज के युग में महत्त्रूपूर्ण है।
आज के युग में देश-विदेश के समाचार उपलब्ध कराने का सर्वप्रथम साधन हैं – समाचार पत्र। देश-विदेश की सामाजिक. सांस्कृतिक, राजनैतिक गतिविधियों की सूचना हमें समाचार पत्रों से मिलती है। समाचार पत्रों के अनेक प्रकार हैं : दैनिक, साप्ता. हिक, पाक्षिक, मासिक, वार्षिक आदि। इसी प्रकार सांस्कृतिक समाचार पत्र, खेल समाचार पत्र, बाजारभाव समाचार पत्र आदि। इन समाचार पत्रों में विज्ञापनों का विशेष महत्त्व है। प्रभावी विज्ञापन वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करते हैं। प्रतिदिन के बाजार-भाव भी समाचार पत्रों से ही मिलते हैं। इससे जन सामान्य को विशेष लाभ होता है।
समाचार-पत्र के पढ़ने से समय का सदुपयोग होता है तथा व्यक्ति के ज्ञान में भी वृद्धि होती है। देश-विदेश की नवीनतम घटनाओं की जानकारी होती है। समाचार पत्रों की मनोरंजक सामग्री से हमारा आनंद्वर्धन होता है। समाचार पत्र व्यापार में भी सर्वात्त्म सहायक है। कभी-कभी दुष्प्रभावकारी विज्ञापन एवं समाचार पाठकों पर बुरा प्रभाव डालते हैं। कुछ समाचार पत्रों में सामाजिक संकीर्णता पाई जाती है तथा कुछ में उत्तेजक सामग्री होती है। ये सब आदर्श समाज की छवि को दूषित करते हैं। कर. ती-कभी कुछ समाचार-पत्र सरकार की झूठी प्रशंसा छाप कर समाज. को दिग्रमित कर देते हैं। ऐसी परिस्थिति में समाचार-पत्रों को निष्पक्ष होकर सर्वजनोपयोगी सामग्री प्रकाशित करनी चाहिए ताकि समाचार-पत्र आदर्श समाज के निर्माण में सक्रिय योगदान कर सकें। यही समाचार-पत्रों की सच्ची सार्थकता है।
26. विद्यालय में प्रथम दिन का अनुभव
मैं जब पाँच वर्ष का हुआ तब मुझे राजकीय विद्यालय की प्रथम कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। मुझे अभी तक विद्यालय के प्रथम दिन का अनुभव याद है।
मैं पहले दिन विद्यालय जाते समय बहुत डर रहा था। मुझे लग रहा था कि विद्यालय में मुझे अकेला छोड़कर मेरे माता-पिता घर लौट आएँगे। वहाँ के अन्य बच्चे मुझे बहुत तंग करेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरे माता-पिता मुझे लेकर प्रधानाचार्य के कक्ष में गए और मेरे प्रवेश का फार्म भरा। उन्होंने जरूरी कागज फार्म के साथ लगाए तथा फीस जमा की।
अब मुझे मेरी कक्षा तक ले जाया गया। कक्षा अध्यापिका मुझे अच्छी लगी। उसने मुझे प्यार के साथ कक्षा में अंदर बुलाया। अन्य बच्चों को मेरा परिचय दिया। सभी बच्चों ने ताली बजाकर मेरा स्वागत किया। मेरा सारा भय जाता रहा। मुझे अगली डेस्क पर बिठाया गया। मुझे कक्षा के अन्य बच्चे अच्छे लगे। तभी दूसरा पीरियड बज गया। यह खेल का पीरियड था। हमारी अध्यापिका हमें खेल के मैदान में ले गई। उन्होंने कई तरह के खेल खिलाए। आधा घंटा कब बीत गया, पता ही नहीं चला। मैं खेल खेलकर बहुत खुश था। अब तक मेरे माता-पिता जा चुके थे। मुझे इसका पता भी नहीं चला।
अब हमें कंप्यूटर रूम में ले जाया गया। इस रूम में $8-10$ कंप्यूटर थे। बारी-बारी से बच्चे कंप्यूटर पर खेल खेल रहे थे। कंप्यूटर टीचर इसे चलाने का ढंग समझा रही थी। उसने एक चित्रकथा भी दिखाई। यह बहुत मनोरंजक थी। मैं इसे देखने में मग्न रहा। यह पीरियड भी खत्म हो गया।
अब आया हिंदी का पीरियड। मुझे वर्णमाला और मात्राओं का ज्ञान पहले से ही था, अतः मैंने पाठ्यपुस्तक पढ़कर दिखा दी। हमारी हिंदी अध्यापिका इससे बहुत खुश हुई। उसने सभी बच्चों के सामने मेरी तारीफ की तो मुझे बहुत अच्छा लगा। अब मेरे मन से डर पूरी तरह से निकल चुका था। इसी तरह अन्य विषयों के पीरियड आए और चले गए। अब छुट्टी का समय निकट आ गया था। मैंने बाहर झाँककर देखा तो मेरी माँ मुझे ले जाने के लिए बाहर खड़ी थी। मुझे इससे तसल्ली हो गई।
मेरा पहला दिन बहुत अच्छी तरह बीता। अब मैं अगले दिन भी विद्यालय आने के लिए पूरी तरह से तैयार था। मेरा यह अनुभव बहुत अच्छा रहा।
27. चंद्रशेखर आजाद
भारत माँ की आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों में चंद्रशेखर आजाद का नाम अग्रगण्यु है। चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के एक गाँव में एक बहुत ही साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. सीताराम और माता का नाम जगरानी देवी था। वे बचपन से ही बहुत साहसी थे। एक बार वे लाल रोशनी देने वाली दियासलाई से खेल रहे थे। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि एक सलाई से इतनी रोशनी होती है तो सब सलाइयों को एक साथ जलाने से न मालूम कितनी रोशनी होगी। उनके प्रस्ताव पर साथी खुश हो तो हुए, पर सारी सलाइयों को एक साथ जलाने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। तब चंद्रशेखर आजाद ने उन सलाइयों को एक साथ जलाया। इसमें उनका हाथ भी जल गया, पर उन्होंने उफ् तक नहीं की।
प्रारंभ में उन्हें संस्कृत पढ़ने के लिए काशी भेजा गया। वहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण पढ़ी, पर इसमें उनका मन नहीं लगता था। वीरों की गाथाएँ उन्हें बहुत पसंद थीं। चंद्रशेखर जब दस-ग्यारह वर्ष के थे तभी जलियाँवाला बाग का भयंकर हत्याकांड हुआ। तभी से वे अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ कर दिखाने के उपाय सोचने लगे।
ब्रिटिश युवराज एडवर्ड के भारत आगमन पर गाँधी जी ने उनके बहिष्कार का आंदालन चलाया। आजाद भी इसमें कूद पड़े। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अदालत में मजिस्ट्रेट ने पूछ्ण-“तुम्हारा क्या नाम है?”
उन्होंने अकड़कर बताया-” आजाद”
“तुम्हारे बाप का नाम क्या है?”
“स्वाधीनता”
“तुम्हारा घर कहाँ है?”
“जेलखाना”
मजिस्ट्रेट नें पंद्रह बेंत लगाने की सजा दी।
आजाद को नंगा करके पीठ पर बेंत मारी जाने लगीं। वह हर बेंत के साथ चिल्लाते “महात्मा गाँधी की जय।” इस घटना के बाद वह बालक ‘आजाद’ के नाम से विख्यात हो गया।
वे एक क्रांतिकारी संगठन के साथ जुड़ गए। इन क्रांतिकारियों के पास धन की कमी थी। अतः 1925 ई. में उत्तर प्रदेश में काकोरी नामक स्थान पर चलती ट्रेन को रोककर सरकारी खजाना लूट लिया गया। अन्य लोग तो पकड़े गए, पर चंद्रशेखर आजाद छिपने में कामयाब हो गए।
ब्रिटिश सरकार आजाद को पकड़ना चाहती थी, पर वे हाथ नहीं आ रहे थे। 27 फरवरी, 1931 की बात है। वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में बैठे हुए थे। एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें पहचानकर पुलिस सुपरिटेंडेंट नाट बाबर को खबर कर दी। उसने आते ही गोलियाँ चला दीं। एक गोली आंद्राद की जाँच में लगी। आजाद की गोली बाबर की कलाई में लगी, जिससे उसकी पिस्तौल छूटकर गिर पड़ी। दोनों ओर से गोलियाँ चल रहीं थीं। जब आजाद की गोलियाँ खत्म होने लगीं तब अंतिम गोली उन्होंने स्वयं को मार ली।
इससे उन्होंने इस प्रतिज्ञा की रक्षा कर ली कि वे कभी जिंदा नहीं पकड़े जाएँगे। अंग्रेज उनसे इतने भयभीत थे कि मृत शरीर को भी गोली मारकर निश्चय किया गया कि वे सचमुच मर गए हैं। आजाद जिस स्थान पर शहीद हुए, वहाँ उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई है। उन्होंने अपना अमर बलिदान देकर भारत के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर लिया है।
28. जन्माष्टमी
हिंदुओं में भगवान राम का जन्मदिन रामनवमी के रूप में और श्रीकृष्ण का जन्मदिन ‘जन्माष्टमी’ के रूप में अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है।
प्रतिवर्ष भादों मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को जन्माष्टमी का पर्व मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन आधी रात को कृष्ण का जन्म कंस के कारावास में हुआ था। कृष्ण के पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम देवकी था। कंस ने उनकी आठवीं संतान को मारने का प्रण कर रखा था, अतः बालक कृष्ण के जीवन की रक्षा करने के लिए वासुदेव उन्हें नंदबाबा और यशोदा के घर छोड़ आए और उनके घर जन्मी पुत्री को कंस को अपनी पुत्री बता दिया। कंस उसे मारकर निश्चित हो गया।
जिस रात्रि को कृष्ण का जन्म हुआ, उस रात कारागार के ताले स्वयं खुल गए और बाहर निकलने का रास्ता सुंगम हो गया। वासुदेव सिर पर टोकरी में बालक को बिठाकर यमुना नदी पार करके नंदबाबा के घर पहुँचे थे। आगे चलकर इन्हीं कृष्ण ने कंस का वध करके मथुरावासियों को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई।
जन्माष्टमी के पर्व को सारे देश में अत्यंत श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन मंदिरों को खूब सजाया जाता है तथा रात्रि के लिए भव्य झाँकियाँ तैयार की जाती हैं। इनमें कृष्ण-लीलाओं को दर्शाया जाता है। इस दिन कृष्ण भक्त नर-ज्ञारी व्रत रखते हैं तथा रात्रि को जन्मोत्सव के बाद व्रत खोलते हैं। इस अवसर पर तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ दिखाई देती है।
आर्य समाज के लोग इसे योगीराज श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं तथा उनके गुणों की चर्चा करते हैं। सनातन धर्म के अनुयायी कृष्ण की विविध लीलाओं का मंचन करते हैं। चारों ओर का वातावरण कृष्णमयी हो जाता है। मथुरा-वृंदावन में श्रीकृष्ण की झाँकियों की शोभा देखते ही बनती है।
जन्माष्टी का दिन हमें कृष्ण के जीवन को जानने का अच्छा अवसर प्रदान करता है।
29. डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर आधुनिक भारत के प्रमुख विधिवेत्ता, समाज-सुधारक और राष्ट्रीय नेता थे। उन्हें ‘दलितों का मसीहा’ कहा जाता है। 1990-91 में उनकी शताब्दी अत्यंत समारोहपूर्वक मनाई गई। इस उपलक्ष्य में संसद् भवन के केंद्रीय कक्ष में उनका तैल-चित्र लगाया गया। उन्हें भारत-सरकार.ने मरणोपरांत ‘भारत-रत्न’ के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया। इसी वर्ष में सरकार ने मंडल आयोग के आधार पर $27 \%$ आरक्षण की घोषणा की।
डॉ. अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई. को महु (मध्य प्रदेश) के एक महार परिवार में हुआ। उनके बचपन का नाम भीम सकपाल था। उनके पिता रामजी मौलाजी एक सैनिक स्कूल में मुख्याध्यापक थे। उनके परिवार पर कबीरपंधी उदार विचारों का पूरा प्रभाव था। उस समय समाज में ऊँच-नीच और छुआछूत की संकीर्णता फैली हुई थी। इसका सामना बालक भीम सकपाल को भी करना पड़ा। नीच जाति के नाम पर उन्हें कदम-कदम पर अपमान झेलना पड़ता था। उनके एक अध्यापक ने उनका नाम बदलकरं भीमराव अंबेडकर कर दिया।
भीमराव ने बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बड़ौदा राज्य की ओर से उन्हें छात्रवृत्ति मिल गई और वे 1913-1917 तक अमेरिका और इंग्लैंड में रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त करते रहे। उन्हें शर्त के अनुसार दस वर्ष तक बड़ौदा राज्य की सेवा करनी थी। इस सेवा-काल में भी उन्हें निरंतर उपेक्षा एवं अपमान सहन करना पड़ा। उन्होंने नौकरी छोड़कर वकालत का पेशा अपना लिया और दलितों को संगठित करने के काम में जुट गए।
भारत के स्वतंत्र होने पर उन्हें भारत-सरकार में कानून मंत्री बनाया गया। इसके पश्चात् संविधान-सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। उन्हीं के प्रयतों से हमारे संविधान का मूल ढाँचा तैयार हो सका। उन्होंने सभी प्रकार के भेद्भावों को समाप्त करने का यथासंभव प्रयत्न किया।
जीवन के अंतिम दिनों में डॉ़ां. भीमराव अंबेडकर ने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था। वे 1951 ई. तक केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहे। तत्पश्चात् पिछड़े वर्ग के हितों की रक्षा में लग गए। 6 दिसंबर, 1956 ई. को नई दिल्ली में उनका देहांत हुआ।
30. पुस्तकालय
‘पुस्तकालय’ शब्द ‘पुस्तक + आलय’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है-पुस्तकों का घर। हमारे विद्यालय में भी एक पुस्तकालय है। पुस्तकालयों का महत्त्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। हमारे यहाँ नालंदा एवं तक्षशिला में विशाल पुस्तकालय थे।
हमारा पुस्तकालय एक बहुत बड़े कमरे में है। इस कमरे में लगभग 20 अलमारियाँ हैं। इन अलमारियों में विभिन्न विषयों की पुस्तकों को बहुत ही सहेजकर रखा गया है। हमारे पुस्तकालय के अध्यक्ष ने इन पुस्तकों को विभिन्न शीर्षकों में बांटकर सूचीबद्ध कर रखा है, ताकि हमें अपनी इच्छानुसार पुस्तकें बूँढ़ने में सुविधा रहे। हमारे पास पुस्तकालय की सदस्यता के दो कार्ड हैं, जिन पर हमें दो सप्ताह के लिए पुस्तकें मिल जाती हैं। हमारे पुस्तकालय में लगभग 5000 पुस्तकें हैं। इनमें अनेक पुस्तकें बहुत कीमती हैं, जिन्हें हमारे लिए खरीदना संभव नहीं है। इन्हें हम पुस्तकालय से लेकर ही पढ़ते हैं।
पुस्तकालय के अपने नियम होते हैं, जिनका पालन करना हमारे हित में है। हम पुस्तकालय में शांतिपूर्ण वातावरण बनाए रखते हैं, ताकि अध्ययन करने वाले को किसी भी प्रकार की असुविधा न हो।
हमारे पुस्तकालयों में पुस्तकों के अतिरिक्त अनेक समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ भी आती हैं। इनको पढ़कर जहाँ हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है, वहीं हमारा पर्याप्त मनोरंजन भी होता है। अनेक पत्रिकाएँ ज्ञानवर्धक लेखों के साथ-साथ रोचक सामग्री भी प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार हमारा पुस्तकालय बहुपयोगी बन गया है।
पुस्तकालय का सदुपयोग करना चाहिए। पुस्तकालय के नियमों का पालन करना हमारा कर्तव्य है। हमारे प्रत्येक व्यवहार में अनुशासन होना चाहिए। हमें अन्य पाठकों की सुविधा का भी ध्यान रखनां चाहिए। पुस्तकालय में शांति बनाए रखना नितांत आवश्यक है। पुस्तकालय निर्धन वर्ग के छात्रों के लिए तो वरदान स्वरूप हैं, इसके साथ-साथ शोध कार्य में लगे विद्यार्थियों के लिए पुस्तकालय का बहुत महत्त्व है।
पुस्तकालय स्थापना का कार्य केवल सरकार का ही नहीं मानना चाहिए। समाज के विभिन्न वर्गों को भी इस कार्य में पर्याप्त रूचि लेनी चाहिए। उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में पुस्तकालय स्थापित करने चाहिए। इससे जहाँ पाठकों को लाभ पहुँचता है, वहीं लेखकों का भी उत्साहवर्धन होता है। यह एक पावन कार्य है। इससे समाज प्रवुद्ध बनता है।
पुस्तकालयाध्यक्ष पुस्तकालय का प्राण होता है। उसमें पाठकों की रूचि जानने की क्षमता होनी चाहिए। पुस्तकालय में पुस्तकों के शीर्षक लेखक का नाम, क्रम संख्या आदि में वर्गीकृत करके रखना चाहिए। नई पुस्तकों का परिचय पाठकों को उपलब्ध कराना च्राहिए। अधिक-से-अधिक पुस्तकें पाठकों को जारी की जानी चाहिए। काम से बचने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए।
विद्यालय में पुस्तकालय का विशेष महत्त्व है। पुस्तकालय के बिना विद्यालय की वह स्थिति होती है जो औषधियों के बिना चिकित्सालय की। पुस्तकालय ज्ञान-पिपासा शांत करने का केंद्र है। हमें इसका पूरा उपयोग करना चाहिए।
31. बाल दिवस
प्रतिवर्ष 14 नवंबर को सारे देश में बाल दिवस अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन का संबंध भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से है। इसी दिन 1889 ई. में उनका जन्म हुआ था। उनका जन्मदिन ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उन्हें बच्चों से विशेष प्रेम था। बच्चे उन्हें ‘चाचा नेहरू’ कहकर बुलाते थे।
बाल दिवस के अवसर स्कूलों में विशेष्ष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। बाल मेले भी लगाए जाते हैं। इनमें बच्चे तरह-तरह के खेलों में भाग लेते हैं। खाने-पीने की चीजों को भी इन मेलों में बेचा जाता है। बाल दिवस के अवसर पर ‘चित्रकला प्रतियोगिता’ का भी आयोजन किया जाता है। श्रेष्ठ चित्रों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है।
इंडिया गेट पर चिल्ड्रन पार्क है। वहाँ बच्चों की मौज-मस्ती के लिए तरह-तरह के झूले हैं। बच्चे वहाँ खूब आनंद उठाते हैं। बच्चों को फल, मिठाइयाँ, बिस्कुट आदि भी बाँटे जाते हैं।
इस दिन बच्चे नेहरूजी को याद करते हैं। उनसे संबंधित कविताएँ सुनाई जाती हैं। चाचा नेहरू से संबंधित संस्मरण भी सुनाए जाते हैं। अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है।
इस प्रकार बाल दिवस उत्साहपूर्वक मनाया जाता है।